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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 37

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 37/ मन्त्र 2
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३७

    त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र॒ कुत्स॑मावः शुश्रूषमाणस्त॒न्वा सम॒र्ये। दासं॒ यच्छुष्णं॒ कुय॑वं॒ न्यस्मा॒ अर॑न्धय आर्जुने॒याय॒ शिक्ष॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । ह॒ । त्यत् । इ॒न्द्र॒ । कुत्स॑म् । आ॒व:॒ । शुश्रू॑षमाण: । त॒न्वा॑ । स॒ऽम॒र्ये ॥ दास॑म् । यत् । शुष्ण॑म् । कुय॑वम् । नि । अ॒स्मै॒ । अर॑न्धय: । आ॒र्जु॒ने॒याय॑ । शिक्ष॑न् ॥३७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं ह त्यदिन्द्र कुत्समावः शुश्रूषमाणस्तन्वा समर्ये। दासं यच्छुष्णं कुयवं न्यस्मा अरन्धय आर्जुनेयाय शिक्षन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । ह । त्यत् । इन्द्र । कुत्सम् । आव: । शुश्रूषमाण: । तन्वा । सऽमर्ये ॥ दासम् । यत् । शुष्णम् । कुयवम् । नि । अस्मै । अरन्धय: । आर्जुनेयाय । शिक्षन् ॥३७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (शुश्रूषमाणः) सुनने की इच्छा करते हुए [वा सेवा करते हुए] (त्वम्) तूने (ह) ही (त्यत्) तब (कुत्सम्) मिलनसार ऋषि [वा वज्रधारी शूर] को (तन्वा) शरीर से (समर्थे) सङ्ग्राम में (आवः) बचाया है। (यत्) जबकि (दासम्) नाश करनेवाले, (शुष्णम्) सुखानेवाले, (कुयवम्) अन्नों के बिगाड़ देनेवाले [वैरी] को (अस्मै) उस (आर्जुनेयाय) विद्या प्राप्ति करानेवाली [विदुषी स्त्री] के पुत्र के लिये (शिक्षन्) शिक्षा देते हुए तूने (नि अरन्धयः) वश में कर लिया है ॥२॥

    भावार्थ - जो राजा प्रजा की पुकार सुनता और विद्वानों का सत्कार करता है और शत्रुओं का नाश करके विद्या फैलाता है, वह स्थिर ऐश्वर्य को प्राप्त होता है ॥२॥

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