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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 37

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 37/ मन्त्र 7
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३७

    मा ते॑ अ॒स्यां स॑हसाव॒न्परि॑ष्टाव॒घाय॑ भूम हरिवः परा॒दै। त्राय॑स्व नोऽवृ॒केभि॒र्वरू॑थै॒स्तव॑ प्रि॒यासः॑ सू॒रिषु॑ स्याम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । ते॒ । अ॒स्याम् । स॒ह॒सा॒ऽव॒न् । परि॑ष्टौ । अ॒घाय॑ । भू॒म॒ । ह॒रि॒ऽव॒: । प॒रा॒ऽदौ ॥ त्राय॑स्‍व । न॒: । अ॒वृ॒केभि॑: । वरू॑थै: । तव॑ । प्रि॒यास॑: । सू॒रिषु॑ । स्या॒म॒ ॥३७.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा ते अस्यां सहसावन्परिष्टावघाय भूम हरिवः परादै। त्रायस्व नोऽवृकेभिर्वरूथैस्तव प्रियासः सूरिषु स्याम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । ते । अस्याम् । सहसाऽवन् । परिष्टौ । अघाय । भूम । हरिऽव: । पराऽदौ ॥ त्रायस्‍व । न: । अवृकेभि: । वरूथै: । तव । प्रियास: । सूरिषु । स्याम ॥३७.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (सहसावन्) हे बहुत बलवाले ! (हरिवः) हे प्रशंसनीय मनुष्योंवाले ! [राजन्] (ते) तेरी (अस्याम्) इस (परिष्टौ) सब ओर से इष्ट सिद्धि में (परादै) छोड़ने योग्य (अघाय) पाप करने के लिये (मा भूम) हम न होवें। (नः) हमको (अवृकेभिः) चोर न होनेवाले (वरूथैः) श्रेष्ठों के द्वारा (त्रायस्व) बचा, (सूरिषु) प्रेरक नेताओं के बीच हम लोग (ते) तेरे (प्रियासः) प्यारे [प्रसन्न करनेवाले] (स्याम) होवें ॥७॥

    भावार्थ - जैसे प्रजागण धर्मात्मा राजा की उन्नति के लिये प्रयत्न करें, वैसे ही वह भी उत्तम-उत्तम विद्याओं और बड़े-बड़े अधिकारों के देने से प्रजा को प्रसन्न करें ॥७॥

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