Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 37 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 37/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३७
    36

    त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र॒ कुत्स॑मावः शुश्रूषमाणस्त॒न्वा सम॒र्ये। दासं॒ यच्छुष्णं॒ कुय॑वं॒ न्यस्मा॒ अर॑न्धय आर्जुने॒याय॒ शिक्ष॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । ह॒ । त्यत् । इ॒न्द्र॒ । कुत्स॑म् । आ॒व:॒ । शुश्रू॑षमाण: । त॒न्वा॑ । स॒ऽम॒र्ये ॥ दास॑म् । यत् । शुष्ण॑म् । कुय॑वम् । नि । अ॒स्मै॒ । अर॑न्धय: । आ॒र्जु॒ने॒याय॑ । शिक्ष॑न् ॥३७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं ह त्यदिन्द्र कुत्समावः शुश्रूषमाणस्तन्वा समर्ये। दासं यच्छुष्णं कुयवं न्यस्मा अरन्धय आर्जुनेयाय शिक्षन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । ह । त्यत् । इन्द्र । कुत्सम् । आव: । शुश्रूषमाण: । तन्वा । सऽमर्ये ॥ दासम् । यत् । शुष्णम् । कुयवम् । नि । अस्मै । अरन्धय: । आर्जुनेयाय । शिक्षन् ॥३७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (शुश्रूषमाणः) सुनने की इच्छा करते हुए [वा सेवा करते हुए] (त्वम्) तूने (ह) ही (त्यत्) तब (कुत्सम्) मिलनसार ऋषि [वा वज्रधारी शूर] को (तन्वा) शरीर से (समर्थे) सङ्ग्राम में (आवः) बचाया है। (यत्) जबकि (दासम्) नाश करनेवाले, (शुष्णम्) सुखानेवाले, (कुयवम्) अन्नों के बिगाड़ देनेवाले [वैरी] को (अस्मै) उस (आर्जुनेयाय) विद्या प्राप्ति करानेवाली [विदुषी स्त्री] के पुत्र के लिये (शिक्षन्) शिक्षा देते हुए तूने (नि अरन्धयः) वश में कर लिया है ॥२॥

    भावार्थ

    जो राजा प्रजा की पुकार सुनता और विद्वानों का सत्कार करता है और शत्रुओं का नाश करके विद्या फैलाता है, वह स्थिर ऐश्वर्य को प्राप्त होता है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(त्वम्) (ह) निश्चयेन (त्यत्) तदा (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (कुत्सम्) अ०२०।२१।१०। संगतिशीलम्। ऋषिम्। कुत्सो वज्रनाम-निघ०२।२०। अर्शआद्यच्। वज्रधारिणम् (आवः) अरक्षः (शुश्रूषमाणः) श्रोतुमिच्छन्। सेवां कुर्वाणः (तन्वा) शरीरेण (समर्ये) मर्यो मनुष्यनाम-निघ०२।३। मनुष्यैर्युक्ते सङ्ग्रामे (दासम्) दसु उपक्षये-घञ्। नाशयितारम् (यत्) यदा (शुष्णम्) शोषकम् (कुयवम्) कु कुत्सिता नाशिता यवा अन्नानि येन तं शत्रुम् (नि) निरन्तरम् (अस्मै) (अरन्धयः) अ०१०।४।१०। वशीकृतवानसि (आर्जुनेयाय) अर्जेर्णिलुक् च। उ०३।८। अर्ज संचये-णिच्-उनन् णेश्च लुक्, गौरादित्वाद् ङीप्। स्त्रीभ्यो ढक्। पा०४।१।१२०। अर्जुनी-ढक्। अर्जयति विद्याः सा अर्जुनी। अर्जुन्या विदुष्याः पुत्राय (शिक्षन्) शिक्षां कुर्वन् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    कुत्स का रक्षण

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (त्वं ह) = आप निश्चय से (कुत्सम्) = वासनाओं का संहार करनेवाले पुरुष का (आव:) = रक्षण करते हैं। (त्यत्) = तब [तत्] यह (समर्ये) = इस जीवन-संग्राम में (तन्या) = शक्तियों के विस्तार के साथ (शुश्रूषमाणः) = सदा गुरुजनों से ज्ञान के श्रवण की कामनावाला होता है। प्रभु से रक्षित व्यक्ति शक्तियों का विस्तार करता है और ज्ञान-प्राप्ति के लिए यत्नशील होता है। २. हे प्रभो! (यत्) = जब (अस्मै) = इस कुत्स के लिए (दासम्) = शक्तियों का उपक्षय कर देनेवाले क्रोध को, (शुष्णम्) = सुखा देनेवाले काम को तथा (कुयवम्) = सब बुराइयों का मिश्रण करनेवाले लोगों को (नि अरन्धय) = पूर्णरूप से वशीभूत करते हैं तब इस (आर्जुनेयाय) = [अर्जुनी-श्वेता] अर्जुनी पुत्र के लिए-अत्यन्त श्वेत [शुद्ध] जीवनवाले के लिए (शिक्षन) = धनों को देनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    हम वासनाओं के संहार के लिए यत्नशील हों। प्रभु हमारे काम, क्रोध, लोभ का विनाश करेंगे और हमें शुद्ध जीवनवाला बनाकर धन प्राप्त कराएंगे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (तन्वा) अपनी व्यापकता के कारण (त्वम्) जब आप, कहीं भी रहते उपासक की प्रार्थना को (शुश्रूषमाणः) सुन लेते हैं, स्वीकार कर लेते हैं, तब आप, (त्यत्) उस (कुत्सम्) वैद्युत-वज्र के सदृश अपने पापों की जड़ काटनेवाले उपासक की (समर्ये) उसके देवासुर-संग्राम में (ह) अवश्य (आवः) रक्षा करते हैं। और (आर्जुनेयाय) शुक्ल सात्त्विक और सत्यमय कर्मो का उपार्जन करनेवाले (अस्मै) इस उपासक के लिए (शिक्षन्) सत् शिक्षा देते हुए, आपने (दासम्) उपासक का क्षय करनेवाले और उसे (शुष्णम्) शोषण करनेवाले तामस और राजस कर्मों का (अरन्धयः) विनाश कर दिया है, (यत्) जैसे कि मेघीय-विद्युत्। (कुयवम्) जौ आदि अन्न को कुत्सितावस्था में कर देनेवाले, और (शुष्णम्) उसे सुखा देनेवाले तथा (दासम्) उसका क्षय देनेवाले मेघ का (अरन्धयः) हिंसन करती है।

    टिप्पणी

    [तन्वा=तनु विस्तारे, (अर्थात्) व्यापकता। कुत्सम्=कृन्ततेः (निरु০ ३.२.११), तथा कुत्सः=वज्र (निघं০ २.२०)। आर्जु नेयाय=अर्जुन=शुक्ल (निरु০ २.६.२१); तथा ऋजु=अर्ज् (सत्यमार्ग, ऋजुमार्ग तथा अर्ज अर्जने, अर्जन करना, उपार्जन करना। समर्ये=संग्रामनाम (निघं০ २.१७)।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    lndra Devata

    Meaning

    Indra, brilliant ruler, you govern and strike your thunderbolt of justice and punishment, listen to the voice of the people in the battle business of life and protect the sagely man of judgement and discretion with your force when you fight the demon of drought, punish the selfish exploiter and food polluter and help and arrange for the education of the children of noble mothers all for our sake.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O ruling King, you serving him by yourself, at the time in the battle protect the men who holds the thundering weapon and as for the sake of this man who is perfect in knowledge (Arjyneva) you punishing him take into your control the man destorying goods acts, expleiter of the people and the man bad company.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O ruling King, you serving him by yourself, at the time in the battle protect the men who holds the thundering weapon and as for the sake of this man who is perfect in knowledge (Arjvneva) you punishing him take into your control the man destroying goods acts, exploiter of the people and the man bad company.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O Lord of destruction and fortunes, thou usest the proper deadly wea- pon for protection in large wars, bodily rendering your services therein, when thou subduest the oppressor, the blood-sucker and the adulterator for the sake of this civilised and educated person.

    Footnote

    Rendering of Kutsa, Dasa, Sushrushma and Kuyava, by Sayāna and Griffith as proper historic persons is wrong on the very face of it.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(त्वम्) (ह) निश्चयेन (त्यत्) तदा (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (कुत्सम्) अ०२०।२१।१०। संगतिशीलम्। ऋषिम्। कुत्सो वज्रनाम-निघ०२।२०। अर्शआद्यच्। वज्रधारिणम् (आवः) अरक्षः (शुश्रूषमाणः) श्रोतुमिच्छन्। सेवां कुर्वाणः (तन्वा) शरीरेण (समर्ये) मर्यो मनुष्यनाम-निघ०२।३। मनुष्यैर्युक्ते सङ्ग्रामे (दासम्) दसु उपक्षये-घञ्। नाशयितारम् (यत्) यदा (शुष्णम्) शोषकम् (कुयवम्) कु कुत्सिता नाशिता यवा अन्नानि येन तं शत्रुम् (नि) निरन्तरम् (अस्मै) (अरन्धयः) अ०१०।४।१०। वशीकृतवानसि (आर्जुनेयाय) अर्जेर्णिलुक् च। उ०३।८। अर्ज संचये-णिच्-उनन् णेश्च लुक्, गौरादित्वाद् ङीप्। स्त्रीभ्यो ढक्। पा०४।१।१२०। अर्जुनी-ढक्। अर्जयति विद्याः सा अर्जुनी। अर्जुन्या विदुष्याः पुत्राय (शिक्षन्) शिक्षां कुर्वन् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top