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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 37/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३७
    28

    तव॑ च्यौ॒त्नानि॑ वज्रहस्त॒ तानि॒ नव॒ यत्पुरो॑ नव॒तिं च॑ स॒द्यः। नि॒वेश॑ने शतत॒मावि॑वेषी॒रहं॑ च वृ॒त्रं नमु॑चिमु॒ताह॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । च्यौ॒त्नानि॑ । व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒ । तानि॑ । नव॑ । यत् । पुर॑: । न॒व॒तिम् । च॒ । स॒द्य: ॥ नि॒ऽवेश॑ने । श॒त॒ऽत॒मा । अ॒वि॒वे॒षी॒: । अह॑न् । च॒ । वृ॒त्रम् । नमु॑चिम् । उ॒त । अ॒ह॒न् ॥३७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव च्यौत्नानि वज्रहस्त तानि नव यत्पुरो नवतिं च सद्यः। निवेशने शततमाविवेषीरहं च वृत्रं नमुचिमुताहन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव । च्यौत्नानि । वज्रऽहस्त । तानि । नव । यत् । पुर: । नवतिम् । च । सद्य: ॥ निऽवेशने । शतऽतमा । अविवेषी: । अहन् । च । वृत्रम् । नमुचिम् । उत । अहन् ॥३७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (वज्रहस्त) हे हाथों में वज्र रखनेवाले ! (ते) तेरे (तानि) वे (च्यौत्नानि) बल हैं, (यत्) कि (सद्यः) तुरन्त (नव) नव (च) और (नवतिम्) नब्बे [निन्नानवे] (पुरः) नगरों में और (निवेशने) छावनी के बीच (शततमा) सौवें [नगर] में (अविवेषीः) तू व्याप गया है, (च) और (वृत्रम्) रोकनेवाले शत्रु को (अहन्) तूने मारा है (उत) और (नमुचिम्) न छोड़ने योग्य डाकू को (अहन्) मारा है ॥॥

    भावार्थ

    राजा अपनी उत्तम सेना के द्वारा वैरी के सब नगरों और राजधानी को अधीन करके शत्रुओं को मारे ॥॥

    टिप्पणी

    −(नव) (च्यौत्नानि) जनिदाच्युसृवृ०। उ०४।१०४। च्युङ् गतौ-त्नण् प्रत्ययः। बलानि-निघ०२।९। (वज्रहस्त) हे शस्त्रपाणे (तानि) प्रसिद्धानि (नवनवतिम्) एकोनशतसंख्याकाः (पुरः) नगर्यः (च) (सद्यः) शीघ्रम् (निवेशने) निवेशे। सेनास्थितिस्थाने (शततमा) नित्यं शतादिमासार्ध०। पा०।२।७। डटस्तमडागमः। शततमीम्। शतसंख्यापूरिकां पुरीम् (अविवेषीः) विष्लृ व्याप्तौ-यङ्लुगन्ताल्लुङि। व्याप्तवानसि (अहन्) मध्यमपुरुषस्य प्रथमपुरुषः। अहः। हतवानसि (च) (वृत्रम्) आवरकं शत्रुम् (नमुचिम्) अ०२०।२१।७। अमोचनीयम्। दण्डनीयम् (उत) अपि च (अहन्) हतवानसि ॥

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    विषय

    न वृत्र, न नमुचि

    पदार्थ

    १. है (वज्रहस्त) = वन को हाथ में लिये हुए प्रभो। (तानि) = वे (च्यौत्ननि) = शत्रुओं को च्युत करनेवाले बल (तव) = आपके ही हैं, (यत्) = जब आप नव (नवतिं च) = शत्रुओं की निन्यानवें पुरियों को (सद्यः) = शीघ्र ही (अहन्) = नष्ट कर डालते हैं। २. असुरों की निन्यानवें नगरियों को नष्ट करके निवेशने उत्तम जीवन के निवेशन की निमित्त शततमा सौवीं पुरी में (अविवेषी) = आप व्यास होते हैं (च) = और आप (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (अहन्) = विनष्ट करते ही हैं, (उत) = और (नमुचिम्) = पवित्रात्माओं का भी पीछा न छोड़नेवाली अहंकारवृत्ति को भी (अहन्) = नष्ट करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु अपनी प्रबल शक्ति से असुरों की निन्यानवें नगरियों का विध्वंस करके हमें उत्तम निवास के लिए सौवी नगरी को प्राप्त कराते हैं, जिसमें न वृत्र का स्थान हो, न नमुचि का। वस्तुत: यह सौवी देवपुरी काम व अहंकार से शून्य है।

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    भाषार्थ

    (वज्रहस्त) हे न्यायवज्रधारी परमेश्वर! (यत्) चूंकि (तव) आपने, (नवतिम्) धर्मकर्म से इन्कार करनेवाली (तानि) उन (नव पुरः) नौ पुरियों को, कोशों को, (सद्यः) शीघ्र (च्यौत्नानि) विनाशी कर दिया है, इसलिए (अहम्) मैं (नमुचिम्) न छोड़नेवाले (वृत्रम्) पाप-वृत्र का (अहन्) हनन कर दिया है, और फलतः (निवेशने) मेरे शरीर-गृह में, शारीरिक कोशों में, आपने (शततमा) सैकड़ों सत्कर्म (आविवेषीः) प्रविष्ट कर दिये हैं।

    टिप्पणी

    [नवतिम्=न+वत्। नव पुरः=९ कोश। प्रायः ५ कोशों का वर्णन हुआ है। अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, आनन्दमय कोश, और विज्ञानमयकोश। अवान्तरभेद से इन कोशों को ९ भी कहा है। यथा—“तस्येमे नव कोशा विष्टम्भा नवधा हिताः” (अथर्व০ १३.४ (१).१०)। ये ९ कोश हैं, (१) स्थूलशरीर; (२) स्थूलशरीर को रचनेवाले ५ भूत; (३) पंच तन्मात्राएँ; (४) कर्मेन्द्रियाँ; (५) ज्ञानेन्द्रियाँ; (६) मन; (७) अहंकार; (८) बुद्धि; (९) चित्।

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य और परमात्मा के गुण

    भावार्थ

    हे (वज्रहस्त) ज्ञानरूप वज्र को हाथ में धारण करने हारे ! (तव) तेरे (तानि) वे (च्योत्नानि) शत्रुओं को पद दलित करनेवाले बल हैं (यत्) जिनसे (नव नवतिं च पुरः) ९९ पुरों को नाश करने में (सद्यः) शीघ्र ही सफल होता हैं और (शततमा) सौवें (निवेशने) आश्रयस्थान में (अविवेषीः) प्राप्त हो जाता है और (वृत्रम्) ज्ञानके आवरणकारी (नमुचिम्) अमोच्य, अनादि वासनाबन्धों को (अहन्) विनाश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। त्रिष्टुभः। इन्द्रो देवता। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    lndra Devata

    Meaning

    O wielder of the thunderbolt, those frightful forces of yours which instantly destroy nintynine citadels of want and darkness and hundreds more for the entry of light and justice, pray demolish the unbreakable walls of the forts of impenetrable ignorance, superstition, prejudice, hatred and violence.

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    Translation

    O King, you have your fatal weapon in your hand. Yours are those very powers through which you at once, make forceful entry in ninety nine forts and the camp, the hundred they one and stay the wicked and the man binding others.

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    Translation

    O King, you have your fatal weapon in your hand. Yours are those very powers through which you at once, make forceful entry in ninety nine forts and the camp, the hundred they one and stay the wicked and the man binding others.

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    Translation

    O mighty king, with thunderbolt in hand, those are thy enemy-crushing powers, which swiftly ruin numerous (i.e., 99) fortresses and drive him out of them. Thou gettest well-entrenched in the 100th feet. Thou killest the over powering foe and destroys him, who is not to be spared at any cost. Or O Atomic energy, with deadly force in hand, thou at once smashest all the 99 (so-called elements, such are the powers of fission. Thou art well-entrenched in the 100th place of shelter (in the very core of the matter). Thou consumest all covering material and even the substance, which resists all forces to fission it.

    Footnote

    The number 99 is significant. To me it appears, it refers to the number of so-called elements, known to scientists. These are called भोग in the Vedic verses. The verse explains the working of the atomic energy quite well, (ii) ‘Namuchi and Vritra’ are nodemons, as interpreted by Sayana and Griffith. They simply refer to non-conductors or substance difficult to fission.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    −(नव) (च्यौत्नानि) जनिदाच्युसृवृ०। उ०४।१०४। च्युङ् गतौ-त्नण् प्रत्ययः। बलानि-निघ०२।९। (वज्रहस्त) हे शस्त्रपाणे (तानि) प्रसिद्धानि (नवनवतिम्) एकोनशतसंख्याकाः (पुरः) नगर्यः (च) (सद्यः) शीघ्रम् (निवेशने) निवेशे। सेनास्थितिस्थाने (शततमा) नित्यं शतादिमासार्ध०। पा०।२।७। डटस्तमडागमः। शततमीम्। शतसंख्यापूरिकां पुरीम् (अविवेषीः) विष्लृ व्याप्तौ-यङ्लुगन्ताल्लुङि। व्याप्तवानसि (अहन्) मध्यमपुरुषस्य प्रथमपुरुषः। अहः। हतवानसि (च) (वृत्रम्) आवरकं शत्रुम् (नमुचिम्) अ०२०।२१।७। अमोचनीयम्। दण्डनीयम् (उत) अपि च (अहन्) हतवानसि ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বজ্রহস্ত) হে বজ্রহস্ত/হাতে বজ্র ধারণকারী! (তে) তোমার (তানি) সেই (চ্যৌত্নানি) বল আছে, (যৎ) যে (সদ্যঃ) দ্রুত (নব) নব (চ) এবং (নবতিম্) নব্বই [নিরানব্বই] (পুরঃ) নগরে এবং (নিবেশনে) সেনানিবাসে (শততমা) শত শত [নগরে] (অবিবেষীঃ) তুমি ব্যাপ্ত হয়েছো, (চ) এবং (বৃত্রম্) প্রতিরোধকারী শত্রুকে (অহন্) তুমি হনন করেছো (উত) এবং (নমুচিম্) অমোচনীয়/মুক্তির অযোগ্য ডাকাতকে (অহন্) হনন করেছো ॥৫॥

    भावार्थ

    রাজা নিজের উত্তম সেনা দ্বারা শত্রুদের সকল নগর এবং রাজধানীকে অধীন করে শত্রুদের হনন করেন ॥৫॥

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    भाषार्थ

    (বজ্রহস্ত) হে ন্যায়বজ্রধারী পরমেশ্বর! (যৎ) যেহেতু (তব) আপনি, (নবতিম্) ধর্মকর্ম থেকে বিমুখকারী (তানি) সেই (নব পুরঃ) নয় পুরীকে, কোশ-সমূহকে, (সদ্যঃ) শীঘ্র (চ্যৌত্নানি) বিনাশী করেছেন, এইজন্য (অহম্) আমি (নমুচিম্) অমোচনীয় (বৃত্রম্) পাপ-বৃত্রের (অহন্) হনন করেছি, এবং ফলতঃ (নিবেশনে) আমার শরীর-গৃহে, শারীরিক কোশ-সমূহের মধ্যে, আপনি (শততমা) শত সৎকর্ম (আবিবেষীঃ) প্রবিষ্ট করিয়েছেন।

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