अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 15
अदृ॑श्रन्नस्य के॒तवो॒ वि र॒श्मयो॒ जनाँ॒ अनु॑। भ्राज॑न्तो अ॒ग्नयो॑ यथा ॥
स्वर सहित पद पाठअदृ॑श्रन् । अ॒स्य॒ । के॒तव॑: । वि । र॒श्मय॑: । जना॑न् । अनु॑ ॥ भ्राज॑न्त: । अ॒ग्नय॑: । य॒था॒ ।४७.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
अदृश्रन्नस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा ॥
स्वर रहित पद पाठअदृश्रन् । अस्य । केतव: । वि । रश्मय: । जनान् । अनु ॥ भ्राजन्त: । अग्नय: । यथा ।४७.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 15
विषय - १३-२१। परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ -
(अस्य) इस [सूर्य] की (केतवः) जतानेवाली (रश्मयः) किरणें (जनान् अनु) प्राणियों में (वि) विविध प्रकार से (अदृश्रन्) देखी गयी हैं, (यथा) जैसे (भ्राजन्तः) दहकते हुए (अग्नयः) अंगारे ॥१॥
भावार्थ - जैसे सूर्य की किरणें धूप, बिजुली और अग्नि के रूप से संसार में फैलती हैं, वैसे ही सब मनुष्य शुभ गुण कर्म और स्वभाव से प्रकाशमान होकर आत्मा और समाज की उन्नति करें ॥१॥
टिप्पणी -
१३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥