अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 18
येना॑ पावक॒ चक्ष॑सा भुर॒ण्यन्तं॒ जनाँ॒ अनु॑। त्वं व॑रुण॒ पश्य॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । पा॒व॒क॒ । चक्ष॑सा । भु॒र॒ण्यन्त॑म् । जना॑न् । अनु॑ ॥ त्वम् । व॒रु॒ण॒ । पश्य॑सि ॥१७.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ अनु। त्वं वरुण पश्यसि ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । पावक । चक्षसा । भुरण्यन्तम् । जनान् । अनु ॥ त्वम् । वरुण । पश्यसि ॥१७.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 18
विषय - १३-२१। परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ -
(पावक) हे पवित्र करनेवाले ! (वरुण) हे उत्तम गुणवाले ! [सूर्य रविमण्डल] (येन) जिस (चक्षसा) प्रकाश से (भुरण्यन्तम्) धारण और पोषण करते हुए [पराक्रम] को (जनान् अनु) उत्पन्न प्राणियों में (त्वम्) तू (पश्यसि) दिखाता है ॥१८॥
भावार्थ - जैसे सूर्य अपने प्रकाश से वृष्टि आदि द्वारा अपने घेरे के सब प्राणियों और लोकों का धारण-पोषण करता है, वैसे ही मनुष्य सर्वोपरि विराजमान परमात्मा के ज्ञान से परस्पर सहायक होकर सुखी होवें ॥१८, १९॥
टिप्पणी -
१३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥