अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 1
तमिन्द्रं॑ वाजयामसि म॒हे वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे। स वृषा॑ वृष॒भो भु॑वत् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । इन्द्र॑म् । वा॒ज॒या॒म॒सि॒ । म॒हे । वृ॒त्राय॑ । हन्त॑वे ॥ स: । वृषा॑ । वृ॒ष॒भ: । भु॒व॒त् ॥४७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिन्द्रं वाजयामसि महे वृत्राय हन्तवे। स वृषा वृषभो भुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । इन्द्रम् । वाजयामसि । महे । वृत्राय । हन्तवे ॥ स: । वृषा । वृषभ: । भुवत् ॥४७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 1
विषय - राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
(तम्) उस (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को (महे) बड़े (वृत्राय) रोकनेवाले वैरी के (हन्तवे) मारने को (वाजयामसि) हम बलवान् करते हैं [उत्साही बनाते हैं], (सः) वह (वृषा) पराक्रमी (वृषभः) श्रेष्ठ वीर (भुवत्) होवे ॥१॥
भावार्थ - प्रजागण राजा को शत्रुओं के मारने के लिये सहाय करें, और राजा भी प्रजा की भलाई के लिये प्रयत्न करे ॥१॥
टिप्पणी -
मन्त्र १-३ ऋग्वेद में है-८।९३ [सायणभाष्य ८२]।७-९; कुछ भेद से सामवेद-उ० ।१। तृच १०। मन्त्र १। पू० २।३। और यह तृच आगे है-अथ० २०।१३७।१२-१४ ॥ १−(तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (वाजयामसि) बलवन्तं कुर्मः। उत्साहयामः (महे) द्वितीयार्थे चतुर्थी। महान्तम् (वृत्राय) आवरकं, शत्रुम् (हन्तवे) मारयितुम् (सः) (वृषा) पराक्रमी (वृषभः) श्रेष्ठो वीरः (भुवत्) भवेत् ॥