अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 4
इन्द्र॒मिद्गा॒थिनो॑ बृ॒हदिन्द्र॑म॒र्केभि॑र॒र्किणः॑। इन्द्रं॒ वाणी॑रनूषत ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । इत् । गा॒थिन॑: । बृ॒हत् । इन्द्र॑म् । अ॒र्केभि॑: । अ॒र्किण॑: ॥ इन्द्र॑म् । वाणी॑: । अ॒नू॒ष॒त॒ ॥४७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रमिद्गाथिनो बृहदिन्द्रमर्केभिरर्किणः। इन्द्रं वाणीरनूषत ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम् । इत् । गाथिन: । बृहत् । इन्द्रम् । अर्केभि: । अर्किण: ॥ इन्द्रम् । वाणी: । अनूषत ॥४७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 4
विषय - राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
(गाथिनः) गानेवालों और (अर्किणः) विचार करनेवालों ने (अर्केभिः) पूजनीय विचारों से (इन्द्रम्) सूर्य [के समान प्रतापी], (इन्द्रम्) वायु के समान फुरतीले (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को और (वाणीः) वाणियों [वेदवचनों] को (इत्) निश्चय करके (बृहत्) बड़े ढंग से (अनूषत) सराहा है ॥४॥
भावार्थ - मनुष्य सुनीतिज्ञ, प्रतापी, उद्योगी राजा के और परमेश्वर की दी हुई वेदवाणी के गुणों को विचारकर सबके सुख के लिये यथावत् उपाय करे ॥४॥
टिप्पणी -
मन्त्र ४-६ आ चुके हैं-अ० २०।३८।४-६ और आगे हैं-२०।७०।७-९ ॥ ४-६-एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३८।४-६ ॥