अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
सूक्त - भृगु
देवता - मित्रावरुणौ, कामबाणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कामबाण सूक्त
उ॑त्तु॒दस्त्वोत्तु॑दतु॒ मा धृ॑थाः॒ शय॑ने॒ स्वे। इषुः॒ काम॑स्य॒ या भी॒मा तया॑ विध्यामि त्वा हृ॒दि ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त्ऽतु॒द: । त्वा॒ । उत् । तु॒द॒तु॒ । मा । धृ॒था॒: । शय॑ने । स्वे । इषु॑: । काम॑स्य । या । भी॒मा । तया॑ । वि॒ध्या॒मि॒ । त्वा॒ । हृ॒दि ॥२५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तुदस्त्वोत्तुदतु मा धृथाः शयने स्वे। इषुः कामस्य या भीमा तया विध्यामि त्वा हृदि ॥
स्वर रहित पद पाठउत्ऽतुद: । त्वा । उत् । तुदतु । मा । धृथा: । शयने । स्वे । इषु: । कामस्य । या । भीमा । तया । विध्यामि । त्वा । हृदि ॥२५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
विषय - अविद्या के नाश से विद्या की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ -
[हे अविद्या !] (उत्तुदः) तेरा उखाड़नेवाला [विद्वान्] (त्वा) तुझको (उत् तुदतु) उखाड़ दे। (स्वे शयने) अपने शयन स्थान [हृदय] में (मा धृथाः) मत ठहर। (कामस्य) सुकामना का (या) जो [तेरे लिये] (भीमा) भयानक (इषुः) तीर है, (तया) उससे (त्वा) तुझको (हृदि) हृदय में (विध्यामि) बेधता हूँ ॥१॥
भावार्थ - सब स्त्री पुरुष ब्रह्मचर्यादि तपोबल द्वारा अविद्या को हृदय से मिटावें, जैसे शूर वीर योद्धा शत्रु सेना को अस्त्र शस्त्रों से मार गिराता है ॥१॥ इस सूक्त में स्त्री लिङ्ग शब्द अविद्या और विद्या के लिए आये हैं। पहले तीन मन्त्र अविद्यापरक, और पिछले तीन विद्यापरक हैं। अलङ्कार से अविद्या को दुःखदायिनी और विद्या को सुखदायिनी मानकर संबोधन किया है ॥
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