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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - मरुद्गणः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - वृष्टि सूक्त

    उदी॑रयत मरुतः समुद्र॒तस्त्वे॒षो अ॒र्को नभ॒ उत्पा॑तयाथ। म॑हऋष॒भस्य॒ नद॑तो॒ नभ॑स्वतो वा॒श्रा आपः॑ पृथि॒वीं त॑र्पयन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ई॒र॒य॒त॒ । म॒रु॒त॒: । स॒मु॒द्र॒त: । त्वे॒ष: । अ॒र्क: । नभ॑: । उत् । पा॒त॒या॒थ॒ । म॒हा॒ऽऋ॒ष॒भस्य॑ । नद॑त: । नभ॑स्वत: । वा॒श्रा: । आप॑: । पृ॒थि॒वीम् । त॒र्प॒य॒न्तु॒ ॥१५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदीरयत मरुतः समुद्रतस्त्वेषो अर्को नभ उत्पातयाथ। महऋषभस्य नदतो नभस्वतो वाश्रा आपः पृथिवीं तर्पयन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । ईरयत । मरुत: । समुद्रत: । त्वेष: । अर्क: । नभ: । उत् । पातयाथ । महाऽऋषभस्य । नदत: । नभस्वत: । वाश्रा: । आप: । पृथिवीम् । तर्पयन्तु ॥१५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (मरुतः) हे वायुवेगो ! (अर्कः= अर्कस्य) सूर्य के (त्वेषः= त्वेषेण) प्रकाश द्वारा (नभः) जलको (समुद्रतः) समुद्र से (उदीरयत) उठाओ और (उत् पातयाथ) ऊपर ले जाओ। (मह ऋषभस्य) बड़े गमन शील, (नदतः) गरजते हुए, (नभस्वतः) आकाश में छाये [बादल] की (वाश्राः) धड़धड़ाती (आपः) जल धाराएँ (पृथिवीम्) पृथिवी को (तर्पयन्तु) तृप्त करें ॥५॥

    भावार्थ - जल, पवन और प्रकाश द्वारा पृथिवी से मेघमण्डल में चढ़ता और फिर पृथिवी पर बरसकर अनेक पदार्थ उपजाता है, इसी प्रकार सज्जन पुरुष विज्ञान से परिपूर्ण होकर संसार में विद्या फैलाते हैं ॥५॥

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