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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
    सूक्त - वेनः देवता - आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मविद्या सूक्त

    यस्य॒ विश्वे॑ हि॒मव॑न्तो महि॒त्वा स॑मु॒द्रे यस्य॑ र॒सामिदा॒हुः। इ॒माश्च॑ प्र॒दिशो॒ यस्य॑ बा॒हू कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । विश्वे॑ । हि॒मऽव॑न्त: । म॒हि॒ऽत्वा । स॒मु॒द्रे । यस्य॑ । र॒साम् । इत् । आ॒हु: । इ॒मा: । च॒ । प्र॒ऽदिश॑: । यस्य॑ । बा॒हू इति॑ । कस्मै॑ । दे॒वाय॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य विश्वे हिमवन्तो महित्वा समुद्रे यस्य रसामिदाहुः। इमाश्च प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । विश्वे । हिमऽवन्त: । महिऽत्वा । समुद्रे । यस्य । रसाम् । इत् । आहु: । इमा: । च । प्रऽदिश: । यस्य । बाहू इति । कस्मै । देवाय । हविषा । विधेम ॥२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (यस्य) जिसकी (महित्वा=०-त्वेन) महिमा से (विश्वे) सब (हिमवन्तः) हिमवाले पहाड़ हैं, और (यस्य) जिसकी [महिमा से] (समुद्रे) समुद्र [अन्तरिक्ष, वा पार्थिव समुद्र] में (रसाम्) नदी को (इत्) भी (आहुः) बताते हैं। (च) और (इमाः) यह (प्रदिशः) बड़ी दिशाएँ (यस्य) जिसकी (बाहू) दो भुजाएँ हैं, उस (कस्मै) सुखदायक प्रजापति परमेश्वर की (देवाय) दिव्य गुण के लिये (हविषा) भक्ति के साथ (विधेम) हम सेवा किया करें ॥५॥

    भावार्थ - जैसे मनुष्य अपनी दो भुजाओं के बल से अर्थात् शारीरिक और आत्मिक सामर्थ्य से प्रजापालन आदि बड़े बड़े बोझ उठाते हैं, उसी प्रकार परमेश्वर ने दिशाओं अर्थात् अवकाश के भीतर सब लोकों को रचकर परस्पर आकर्षण द्वारा स्थापित किया है, उस जगदीश्वर की आज्ञा में चलकर हम यत्न से उत्तम गुण प्राप्त करें ॥५॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० १०।१२१।४ और यजु० २५।१२ में है ॥

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