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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
    सूक्त - वेनः देवता - आत्मा छन्दः - पुरोऽनुष्टुप् सूक्तम् - आत्मविद्या सूक्त

    आपो॒ अग्रे॒ विश्व॑माव॒न्गर्भं॒ दधा॑ना अ॒मृता॑ ऋत॒ज्ञाः। यासु॑ दे॒वीष्वधि॑ दे॒व आसी॒त्कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आप॑: । अग्रे॑ । विश्व॑म् । आ॒व॒न् । गर्भ॑म् । दधा॑ना: । अ॒मृता॑: । ऋ॒त॒ऽज्ञा: । यासु॑ । दे॒वीषु॑ । अधि॑ । दे॒व: । आसी॑त् । कस्मै॑ । दे॒वाय॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपो अग्रे विश्वमावन्गर्भं दधाना अमृता ऋतज्ञाः। यासु देवीष्वधि देव आसीत्कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आप: । अग्रे । विश्वम् । आवन् । गर्भम् । दधाना: । अमृता: । ऋतऽज्ञा: । यासु । देवीषु । अधि । देव: । आसीत् । कस्मै । देवाय । हविषा । विधेम ॥२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (गर्भम्) बीज को (दधानाः) धारण करते हुए, (अमृताः) मरणरहित [जीवन शक्तिवाले] (ऋतज्ञाः) सत्य नियम को जाननेवाले (आपः) उन व्यापक जलों [वा तन्मात्राओं] ने (अग्रे) पहिले (विश्वम्) जगत् की (आवन्) रक्षा की थी, (यासु देवीषु अधि) जिन दिव्य गुणवालों के ऊपर (देवः) परमेश्वर (आसीत्) था उस (कस्मै) सुखदायक प्रजापति परमेश्वर की (देवाय) दिव्य गुण के लिये (हविषा) भक्ति के साथ (विधेम) हम सेवा किया करें ॥६॥

    भावार्थ - सृष्टि की आदि में ईश्वर नियम से जल [वा तन्मात्रा] के भीतर जगत् का बीज और जीवन सामर्थ्य था, जिससे यह सृष्टि हुई है। उसी परमात्मा के नियम पर चलकर हम अपने जीवन को पुरुषार्थ करके सुधारें ॥६॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० १०।१२—१।७, ८ और यजु० २७।२५, २६ में हैं। मनु महाराज ने भी ऐसा कहा है-मनु १।८ ॥ सोऽभिध्याय शरीरात् स्वात् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः। अप एव ससर्जादौ तासु बीजमवासृजत् ॥ उस परमात्मा ने सब ओर ध्यान करके अपने शरीर [अव्याकृत रूप वा सामर्थ्य] से नाना विध प्रजाएँ उत्पन्न करने की इच्छा करते हुए जलही पहिले उत्पन्न किया और उसमें बीज छोड़ दिया ॥

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