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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
    सूक्त - वेनः देवता - आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मविद्या सूक्त

    हि॑रण्यग॒र्भः सम॑वर्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत्। स दा॑धार पृथि॒वीमु॒त द्यां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒र॒ण्य॒ऽग॒र्भ: । सम् । अ॒व॒र्त॒त॒ । अग्रे॑ । भू॒तस्य॑ । जा॒त: । पति॑: । एक॑: । आ॒सी॒त् । स: । दा॒धा॒र॒ । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । कस्मै॑ । दे॒वाय॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीमुत द्यां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यऽगर्भ: । सम् । अवर्तत । अग्रे । भूतस्य । जात: । पति: । एक: । आसीत् । स: । दाधार । पृथिवीम् । उत । द्याम् । कस्मै । देवाय । हविषा । विधेम ॥२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (हिरण्यगर्भः) तेजवाले लोकों का आधार (अग्रे) पहिले ही पहिले (सम्) ठीक-ठीक (अवर्तत) वर्त्तमान था। वही (जातः) प्रकट होकर (भूतस्य) पृथिवी आदि पञ्चभूत का (एकः) एक (पतिः) पति, ईश्वर (आसीत्) हुआ, (सः) उसने (पृथिवीम्) पृथिवी (उत) और (द्याम्) सूर्य को (दाधार) धारण किया, उस (कस्मै) सुखदायक प्रजापति परमेश्वर की (देवाय) दिव्य गुण के लिये (हविषा) भक्ति के साथ (विधेम) हम सेवा किया करें ॥७॥

    भावार्थ - सर्वशक्तिमान् अविनाशी परमात्मा प्रलयकाल में विद्यमान था। उसके कर्मों से ज्ञात होता है कि उस अकेले ने सूक्ष्म पञ्चभूत का यथावत् संयोग वियोग करके पृथिवी, सूर्य आदि सृष्टि को रचा और धारण किया है, उसकी उपासना से उत्तम गुण प्राप्त करके आनन्द भोगें ॥७॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० १०।१२१।१, यजु० १३।४ तथा २५।१० और निरु० १०।२३ में है ॥

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