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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    सूक्त - वेनः देवता - आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मविद्या सूक्त

    यं क्रन्द॑सी॒ अव॑तश्चस्कभा॒ने भि॒यसा॑ने॒ रोद॑सी॒ अह्व॑येथाम्। यस्या॒सौ पन्था॒ रज॑सो वि॒मानः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । क्रन्द॑सी॒ इति॑ । अव॑त: । च॒स्क॒भा॒ने इति॑ । भि॒यसा॑ने॒ इति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । अह्व॑येथाम् । यस्य॑ । अ॒सौ । पन्था॑: । रज॑स: । वि॒ऽमान॑: । कस्मै॑ । दे॒वाय॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं क्रन्दसी अवतश्चस्कभाने भियसाने रोदसी अह्वयेथाम्। यस्यासौ पन्था रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । क्रन्दसी इति । अवत: । चस्कभाने इति । भियसाने इति । रोदसी इति । अह्वयेथाम् । यस्य । असौ । पन्था: । रजस: । विऽमान: । कस्मै । देवाय । हविषा । विधेम ॥२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (यम्) जिसको (चस्कभाने) परस्पर रोकती हुई (क्रन्दसी) ललकारती हुई दो सेनाएँ (अवतः) प्राप्त होती हैं, और [जिसको] (भियसाने) हे डरती हुई (रोदसी) सूर्य और भूमि ! (आह्वयेथाम्) तुम दोनों ने पुकारा है। (यस्य) जिसका (असौ पन्थाः) यह मार्ग (रजसः) संसार का (विमानः) विविध प्रकार नापनेवाला वा विमान रूप है, उस (कस्मै) प्रजापति सुखदाता परमेश्वर की (देवाय) उत्तम गुण के लिये (हविषा) भक्ति के साथ (विधेम) हम सेवा किया करें ॥३॥

    भावार्थ - परमेश्वर को ही दो लड़ती हुई सेनाएँ पुकारती हैं, उसीकी आज्ञा में सूर्य आदि लोक रहते हैं, उसीकी व्याप्ति संसार भर में है, उसी परब्रह्म की भक्ति करके सब मनुष्य पुरुषार्थ करें ॥३॥ इस मन्त्र का पूर्वार्ध कुछ भेद से ऋ० १०।१२१।६ और यजु० ३२।७। और उत्तरार्ध यजु० ३२।६ में है ॥

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