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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
    सूक्त - मृगारः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    सचे॑तसौ॒ द्रुह्व॑णो॒ यौ नु॒देथे॒ प्र स॒त्यावा॑न॒मव॑थो॒ भरे॑षु। यौ गच्छ॑थो नृ॒चक्ष॑सौ ब॒भ्रुणा॑ सु॒तं तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सऽचे॑तसौ । द्रुह्व॑ण: । यौ । नु॒देथे॒ इति॑ । प्र । स॒त्यऽवा॑नम् । अव॑थ: । भरे॑षु । यौ । गच्छ॑थ: । नृ॒ऽचक्ष॑सौ । ब॒भ्रुणा॑ । सु॒तम् । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सचेतसौ द्रुह्वणो यौ नुदेथे प्र सत्यावानमवथो भरेषु। यौ गच्छथो नृचक्षसौ बभ्रुणा सुतं तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सऽचेतसौ । द्रुह्वण: । यौ । नुदेथे इति । प्र । सत्यऽवानम् । अवथ: । भरेषु । यौ । गच्छथ: । नृऽचक्षसौ । बभ्रुणा । सुतम् । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 29; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (सचेतसौ) हे समान ज्ञान करानेवाले ! (यौ) जो तुम दोनों (द्रुह्वणः) उपद्रवियों को (नुदेथे) निकाल देते हो और (सत्यावानम्) सत्यवान् पुरुष को (भरेषु) संग्रामें में (प्र) अच्छे प्रकार (अवथः) बचाते हो। (नृचक्षसौ) मनुष्यों के देखनेवाले (यौ) जो तुम दोनों (बभ्रुणा) पोषण के साथ (सुतम्) उत्पन्न जगत् वा पराक्रमी वा पुत्रसमान सेवक पुरुष को (गच्छथः) प्राप्त होते हो। (तौ) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥—२॥

    भावार्थ - जो मनुष्य श्वास-श्वास और पल-पल पर दृष्टि रख कर वैदिक कर्म करते रहते हैं, वे सत्यप्रतिज्ञ पुरुष बल पराक्रम प्राप्त करके सदा प्रसन्न रहते हैं ॥—२॥

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