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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 29/ मन्त्र 3
    सूक्त - मृगारः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    यावङ्गि॑रस॒मव॑थो॒ याव॒गस्तिं॒ मित्रा॑वरुणा ज॒मद॑ग्नि॒मत्त्रि॑म्। यौ क॒श्यप॒मव॑थो॒ यौ वसि॑ष्ठं॒ तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यौ । अङ्गि॑रसम् । अव॑थ: । यौ । अ॒गस्ति॑म् । मित्रा॑वरुणा । ज॒मत्ऽअ॑ग्निम् । अत्त्रि॑म् । यौ । क॒श्यप॑म् । अव॑थ: । यौ । वसि॑ष्ठम् । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यावङ्गिरसमवथो यावगस्तिं मित्रावरुणा जमदग्निमत्त्रिम्। यौ कश्यपमवथो यौ वसिष्ठं तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यौ । अङ्गिरसम् । अवथ: । यौ । अगस्तिम् । मित्रावरुणा । जमत्ऽअग्निम् । अत्त्रिम् । यौ । कश्यपम् । अवथ: । यौ । वसिष्ठम् । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 29; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (यौ) जो (मित्रावरुणा) मित्र और वरुण तुम दोनों (अङ्गिरसम्) उद्योगी वा ज्ञानी पुरुष को और (यौ) जो तुम दोनों (अगस्तिम्) वक्रगति पाप के गिरा देनेवाले, (जमदग्निम्) [यज्ञ वा शिल्पसिद्धि में] प्रकाशमान अग्निवाले और (अत्रिम्) दोष के नाश करनेवाले, यद्वा निरन्तर गतिशील, यद्वा कायिक वाचिक और मानसिक तीन दोष रहित महात्मा को (अवथः) बचाते हो। (यौ) जो तुम दोनों (कश्यपम्) सोमरस पीनेवाले वा सूक्ष्मदर्शी पुरुष को और (यौ) जो तुम दोनों (वसिष्ठम्) बड़े धनी और बड़े श्रेष्ठ जन को (अवथः) बचाते हो। (तौ) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥—३॥

    भावार्थ - मनुष्य (मित्रावरुणा) दिन-रात अर्थात् समय, और प्राण और अपान अर्थात् इन्द्रियों के यथावत् प्रयोग से ज्ञानी, शुद्ध चित्त, और सूक्ष्मदर्शी होकर सदा आनन्द भोगते हैं ॥—३॥

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