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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 29/ मन्त्र 5
    सूक्त - मृगारः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    यौ भ॒रद्वा॑ज॒मव॑थो॒ यौ गवि॑ष्ठिरं वि॒श्वामि॑त्रं वरुण मित्र॒ कुत्स॑म्। यौ क॒क्षीव॑न्त॒मव॑थः॒ प्रोत कण्वं॒ तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यौ । भ॒रत्ऽवा॑जम् । अव॑थ: । यौ । गवि॑ष्ठिरम् । वि॒श्वामि॑त्रम् । व॒रु॒ण॒ । मि॒त्र॒ । कुत्स॑म् । यौ । क॒क्षीव॑न्तम् । अव॑थ: । प्र । उ॒त । कण्व॑म् । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यौ भरद्वाजमवथो यौ गविष्ठिरं विश्वामित्रं वरुण मित्र कुत्सम्। यौ कक्षीवन्तमवथः प्रोत कण्वं तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यौ । भरत्ऽवाजम् । अवथ: । यौ । गविष्ठिरम् । विश्वामित्रम् । वरुण । मित्र । कुत्सम् । यौ । कक्षीवन्तम् । अवथ: । प्र । उत । कण्वम् । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 29; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (यौ) जो (मित्र वरुण) मित्र और वरुण तुम दोनों (भरद्वाजम्) अन्न वा बल, वा ज्ञान के धारण करनेवाले को, (यौ) जो तुम (गविष्ठिरम्) वेदवाणी में स्थिर को, (विश्वामित्रम्) सबके मित्र को, वा सब हैं मित्र जिसके उसको, और (कुत्सम्) संगतिशील वा दोषों के कतरनेवाले को (अवथः) बचाते हो, (यौ) जो तुम दोनों (कक्षीवन्तम्) उद्योगी वा शासनशील (उत) और (कण्वम्) स्तुति करनेवाले मेधावी पुरुष को (प्र) अच्छे प्रकार (अवथः) बचाते हो। (तौ) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥—५॥

    भावार्थ - पुरुषार्थी, वेदों की आज्ञा पालन करनेवाले सर्वहितकारक आदिक पुरुषों के लिये समय और आत्मबल सदा अनुकूल रहते हैं ॥—५॥

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