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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 29/ मन्त्र 7
    सूक्त - मृगारः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - शक्वरीगर्भा जगती सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    ययो॒ रथः॑ स॒त्यव॑र्त्म॒र्जुर॑श्मिर्मिथु॒या चर॑न्तमभि॒याति॑ दू॒षय॑न्। स्तौमि॑ मि॒त्रावरु॑णौ नाथि॒तो जो॑हवीमि तौ नो मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ययो॑: । रथ॑: । स॒त्यऽव॑र्त्मा । ऋ॒जुऽर॑श्मि: । मि॒थु॒या । चर॑न्तम् । अ॒भि॒ऽयाति॑ । दू॒षय॑न् । स्तौमि॑ । मि॒त्रावरु॑णौ । ना॒थि॒त: । जो॒ह॒वी॒मि॒ । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२९.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ययो रथः सत्यवर्त्मर्जुरश्मिर्मिथुया चरन्तमभियाति दूषयन्। स्तौमि मित्रावरुणौ नाथितो जोहवीमि तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ययो: । रथ: । सत्यऽवर्त्मा । ऋजुऽरश्मि: । मिथुया । चरन्तम् । अभिऽयाति । दूषयन् । स्तौमि । मित्रावरुणौ । नाथित: । जोहवीमि । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२९.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 29; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (ययोः) जिन दोनों का (सत्यवर्त्मा) सत्यमार्गवाला, (ऋजुरश्मिः) सरल व्याप्ति वा डोरीवाला (रथः) रथ (मिथुया) हिंसा के साथ (चरन्तम्) चलते हुए पुरुष को (दूषयन्) सताता हुआ (अभियाति) चढ़ाई करता है। (नाथितः) मैं अधीन होकर (मित्रावरुणौ) दिन रात वा प्राण अपान को (स्तौमि) सराहता हूँ और (जोहवीमि) बारंबार पुकारता हूँ। (तौ) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥—७॥

    भावार्थ - जो मनुष्य समय और आत्मिक शक्तियों का कुप्रयोग करते हैं, वे ही कर्म उन दुराचारियों का नाश कर देते हैं। इसलिये मनुष्य अपने काल और सामर्थ्य को उत्तम कामों में लगाकर प्रसन्न रहें ॥—७॥

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