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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - कुष्ठस्तक्मनाशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुष्ठतक्मनाशन सूक्त

    यो गि॒रिष्वजा॑यथा वी॒रुधां॒ बल॑वत्तमः। कुष्ठेहि॑ तक्मनाशन त॒क्मानं॑ ना॒शय॑न्नि॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । गि॒रिषु॑ । अजा॑यथा: । वी॒रुधा॑म् । बल॑वत्ऽतम: ।कुष्ठ॑ । आ । इ॒हि॒ । त॒क्म॒ऽना॒श॒न॒ । त॒क्मान॑म् । ना॒शय॑न् । इ॒त: ॥४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो गिरिष्वजायथा वीरुधां बलवत्तमः। कुष्ठेहि तक्मनाशन तक्मानं नाशयन्नितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । गिरिषु । अजायथा: । वीरुधाम् । बलवत्ऽतम: ।कुष्ठ । आ । इहि । तक्मऽनाशन । तक्मानम् । नाशयन् । इत: ॥४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (यः) जो तू (गिरिषु) स्तुतियोग्य पुरुषों में (वीरुधाम्) विविध उत्पन्न प्रजाओं के बीच (बलवत्तमः) अत्यन्त बलवान् (अजायथाः) उत्पन्न हुआ है। (तक्मनाशन) हे दुःखित जीवन नाश करनेवाले (कुष्ठ) गुणपरीक्षक पुरुष (इतः) यहाँ से (तक्मानम्) दुःखित जीवन को (नाशयन्) नाश करता हुआ (आ इहि) तू आ ॥१॥

    भावार्थ - प्रतापी राजा प्रजा के दुःखों का नाश करके उन्नति करे कुष्ठ वा कूट एक ओषधि का भी नाम है, जो राजयक्ष्म, कुष्ठ आदि रोगों को शान्त करती है] ॥१॥

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