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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - कुष्ठस्तक्मनाशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुष्ठतक्मनाशन सूक्त

    उद॑ङ्जा॒तो हि॒मव॑तः॒ स प्रा॒च्यां नी॑यसे॒ जन॑म्। तत्र॒ कुष्ठ॑स्य॒ नामा॑न्युत्त॒मानि॒ वि भे॑जिरे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उद॑ङ् । जा॒त: । हि॒मऽव॑त: । स: । प्रा॒च्याम् । नी॒य॒से॒ । जन॑म् । तत्र॑ । कुष्ठ॑स्य । नामा॑नि । उ॒त्ऽत॒मानि॑ । वि । भे॒जि॒रे॒ ॥४.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदङ्जातो हिमवतः स प्राच्यां नीयसे जनम्। तत्र कुष्ठस्य नामान्युत्तमानि वि भेजिरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उदङ् । जात: । हिमऽवत: । स: । प्राच्याम् । नीयसे । जनम् । तत्र । कुष्ठस्य । नामानि । उत्ऽतमानि । वि । भेजिरे ॥४.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (सः) सो तू (हिमवतः) उद्योगी पुरुष से (जातः) उत्पन्न होकर और (उदङ्) ऊँचा पद पाकर (प्राच्याम्) प्रकृष्ट गति के बीच (जनम्) मनुष्यों में (नीयसे) लाया जाता है। (तत्र) वहाँ पर (कुष्ठस्य) गुणपरीक्षक राजा के (उत्तमानि) उत्तम-उत्तम (नामानि) यशों का (वि) विविध प्रकार से (भेजिरे) उन्होंने सेवन किया है ॥८॥

    भावार्थ - प्रजागण उत्तम राजा को पाकर सदा उसका नाम गाते रहते हैं ॥८॥

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