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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - कुष्ठस्तक्मनाशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुष्ठतक्मनाशन सूक्त

    दे॒वेभ्यो॒ अधि॑ जा॒तोऽसि॒ सोम॑स्यासि॒ सखा॑ हि॒तः। स प्रा॒णाय॑ व्या॒नाय॒ चक्षु॑षे मे अ॒स्मै मृ॑ड ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वेभ्य॑: । अधि॑ । जा॒त: । अ॒सि॒ । सोम॑स्य । अ॒सि॒ । सखा॑ । हि॒त: । स: । प्रा॒णाय॑ । वि॒ऽआ॒नाय॑ । चक्षु॑षे । मे॒ । अ॒स्मै । मृ॒ड॒ ॥४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवेभ्यो अधि जातोऽसि सोमस्यासि सखा हितः। स प्राणाय व्यानाय चक्षुषे मे अस्मै मृड ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवेभ्य: । अधि । जात: । असि । सोमस्य । असि । सखा । हित: । स: । प्राणाय । विऽआनाय । चक्षुषे । मे । अस्मै । मृड ॥४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (देवेभ्यः) विद्वान् पुरुषों से (अधि) ऐश्वर्य के साथ (जातः असि) तू उत्पन्न है, और (सोमस्य) ऐश्वर्यवान् पुरुष का (हितः) हितकारी (सखा) (असि) तू है। (सः) सो तू (मे) मेरे (प्राणाय) प्राण के लिये, (व्यानाय) व्यान के लिये और (चक्षुषे) नेत्र के लिये (अस्मै) इस पुरुष पर (मृड) सुखी हो ॥७॥

    भावार्थ - कुलीन ऐश्वर्यवान् राजा कुलीन ऐश्वर्यवान् पुरुषों का सत्कार करता हुआ उनकी सर्वथा रक्षा करता रहे ॥७॥

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