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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - कुष्ठस्तक्मनाशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुष्ठतक्मनाशन सूक्त

    सु॑पर्ण॒सुव॑ने गि॒रौ जा॒तं हि॒मव॑त॒स्परि॑। धनै॑र॒भि श्रु॒त्वा य॑न्ति वि॒दुर्हि त॑क्म॒नाश॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒प॒र्ण॒ऽसुव॑ने । गि॒रौ । जा॒तम् । हि॒मऽव॑त: । परि॑ । धनै॑: । अ॒भि । श्रु॒त्वा । य॒न्ति॒ । वि॒दु: । हि । त॒क्म॒ऽनाश॑नम् ॥४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुपर्णसुवने गिरौ जातं हिमवतस्परि। धनैरभि श्रुत्वा यन्ति विदुर्हि तक्मनाशनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुपर्णऽसुवने । गिरौ । जातम् । हिमऽवत: । परि । धनै: । अभि । श्रुत्वा । यन्ति । विदु: । हि । तक्मऽनाशनम् ॥४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (सुपर्णसुवने) उत्तम पालन सामर्थ्य उत्पन्न करने हारे (गिरौ) स्तुति योग्य कुल में (हिमवतः) उद्योगी पुरुष से (परि) अच्छे प्रकार (जातम्) उत्पन्न पुरुष को (धनैः) धनों के साथ वर्तमान (श्रुत्वा) सुनकर [विद्वान् लोग] (अभि यन्ति) सन्मुख पहुँचते हैं, [और उस को] (तक्मनाशनम्) दुःखित जीवन नाश करने हारा (हि) निश्चय करके (विदुः) जानते हैं ॥२॥

    भावार्थ - विद्वान् लोग उत्तम कुल में उत्पन्न प्रतापी, धनी पुरुष को अपना राजा बनाते और उस पर प्रजा की रक्षा का भार रखते हैं ॥२॥

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