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अथर्ववेद > काण्ड 8 > सूक्त 10 > पर्यायः 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - आर्ची त्रिष्टुप् सूक्तम् - विराट् सूक्त

    तस्मा॒द्वन॒स्पती॑नां संवत्स॒रे वृ॒क्णमपि॑ रोहति वृ॒श्चते॒ऽस्याप्रि॑यो॒ भ्रातृ॑व्यो॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्मा॑त् । वन॒स्पती॑नाम् । स॒म्ऽव॒त्स॒रे । वृ॒क्णम् । अपि॑ । रो॒ह॒ति॒ । वृ॒श्चते॑ । अ॒स्य॒ । अप्रि॑य: । भ्रातृ॑व्य: । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्माद्वनस्पतीनां संवत्सरे वृक्णमपि रोहति वृश्चतेऽस्याप्रियो भ्रातृव्यो य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्मात् । वनस्पतीनाम् । सम्ऽवत्सरे । वृक्णम् । अपि । रोहति । वृश्चते । अस्य । अप्रिय: । भ्रातृव्य: । य: । एवम् । वेद ॥१२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 3; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (तस्मात्) इसीलिये (संवत्सरे) वर्ष भर में (वनस्पतीनाम्) वनस्पतियों का (वृक्णम्) खण्डित अंश (अपि रोहति) भर जाता है, (अस्य) उसका (अप्रियः) अप्रिय (भ्रातृव्यः) भ्रातृ भाव से रहित [शत्रु, मनोदोष] (वृश्चते) कट जाता है, (यः एवम् वेद) जो ऐसा जानता है ॥२॥

    भावार्थ - ब्रह्मज्ञानी पुरुष अन्न आदि पदार्थों की न्यूनता की पूर्णता वर्ष भर में वृष्टि द्वारा देखकर आत्मिक दोषों के त्याग से ज्ञान की पूर्त्ति द्वारा ईश्वरशक्ति का अनुभव करते हैं ॥२॥

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