यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 30
ऋषिः - देवश्रवा ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - साम्नी गायत्री,आसुरी अनुष्टुप्,याजुषी पङ्क्ति,आसुरी उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः, षड्जः
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उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ मध॑वे त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि॒ माध॑वाय त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि शु॒क्राय॑ त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि॒ शुच॑ये त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि॒ नभ॑से त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि नभ॒स्याय त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसी॒षे त्वो॑पया॒मगृ॑हीतोऽस्यू॒र्जे त्वो॑पया॒मगृ॑हीतोऽसि॒ सह॑से त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि सह॒स्याय त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि॒ तप॑से त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽसि तप॒स्याय त्वोपया॒मगृ॑हीतोऽस्यꣳहसस्प॒तये॑ त्वा॥३०॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। मध॑वे। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। माध॑वाय। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। शु॒क्राय॑। त्वा॒। उ॒प॒या॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। शुच॑ये। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। नभ॑से। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। न॒भ॒स्या᳖य। त्वा॒। उ॒पा॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इ॒षे। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। ऊ॒र्ज्जे। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। सह॑से। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। स॒ह॒स्या᳖य। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। तप॑से। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। त॒प॒स्या᳖य। त्वा॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒ꣳह॒स॒स्प॒तये॑। अ॒ꣳह॒सः॒प॒तय॒ इत्य॑ꣳहसःऽप॒तये॑। त्वा॒ ॥३०॥
स्वर रहित मन्त्र
उपयामगृहीतोसि मधवे त्वोपयामगृहीतोसि माधवाय त्वोपयामगृहीतोसि शुक्राय त्वोपयामगृहीतोसि शुचये त्वोपयामगृहीतोसि नभसे त्वोपयामगृहीतोसि नभस्याय त्वोपयामगृहीतोसीषे त्वोपयामगृहीतोस्यूर्जे त्वोपयामगृहीतोसि सहसे त्वोपयामगृहीतोसि सहस्याय त्वोपयामगृहीतोसि तपसे त्वोपयामगृहीतोसि तपस्याय त्वोपयामगृहीतो स्यँहसस्पतये त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। मधवे। त्वा। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। माधवाय। त्वा। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। शुक्राय। त्वा। उपयामऽगृहीतः। असि। शुचये। त्वा। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। नभसे। त्वा। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। नभस्याय। त्वा। उपायामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इषे। त्वा। उपयामगृहीत इत्युपयामगृहीतः। असि। ऊर्ज्जे। त्वा। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। सहसे। त्वा। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। सहस्याय। त्वा। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। तपसे। त्वा। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। तपस्याय। त्वा। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। अꣳहसस्पतये। अꣳहसःपतय इत्यꣳहसःऽपतये। त्वा॥३०॥
विषय - राजा, प्रजा, सेना और सभ्य जनों को क्या क्या कहे, यह विषयान्तर से उपदेश किया है।
भाषार्थ -
हे राजन् ! जिससे आप (उपयामगृहीतः) उत्तम नियमों से स्वीकृत (असि) हो, इसलिये (त्वा) आपको (मधवे) चैत्र मास के लिये हम स्वीकार करते हैं ।
सभापति कहता है—हे प्रजा, सभा और सेना के पुरुषो ! क्योंकि तुम में से प्रत्येक व्यक्ति (उपयामगृहीतः) उत्तम नियमों से स्वीकृत है, इस लिये एक-एक करके (त्वा) तुम्हें (मधवे) चैत्र मास के लिये मैं स्वीकार करता हूँ। इस प्रकार सकल मन्त्र की योजना करें ।
[योजना इस प्रकार है]
[हे राजन्! जिससे आप (उपयामगृहीतः) उत्तम नियमों से स्वीकृत (असि) हो, इसलिये (त्वा) आपको (माधवाय) वैशाख मास के लिये (त्वा) आपको (शुक्राय) ज्येष्ठ मास के लिये, (त्वा)आपको (शुचये) आषाढ़ मास के लिये, (त्वा) आपको (नभसे) श्रावण मास के लिए (त्वा) आपको (नभस्याय) भाद्र मास के लिए, (त्वा) आपको (इषे) आश्विन मास के लिये, (त्वा) आपको (ऊर्जे) कार्त्तिक मास के लिये, (त्वा) आपको (सहसे) मार्गशीर्ष मास के लिये, (त्वा) आापको (सहस्याय) पौष मास के लिये, (त्वा) आापको (तपसे) माघ मास के लिये, (त्वा) आपको(तपस्याय) फाल्गुन मास के लिये, (त्वा) (अहंसस्पतये) सबके बल की रक्षा के लियेहम स्वीकार करते हैं।
सभापति कहता है-- हे प्रजा, सभा और सेना के पुरुषो! क्योंकि तुम में से प्रत्येक (उपयामगृहीतः) उत्तम नियमों से स्वीकृत है, इसलिये एक-एक करके (त्वा) तुम्हें (माधवाय) वैशाख मास के लिये, (त्वा) तुम्हें (शुक्राय) ज्येष्ठ मास के लिये, (त्वा) तुम्हें (शुचये) आषाढ़ मास के लिये, (त्वा) तुम्हें (नभस्याय) भाद्र मास के लिये, (त्वा) तुम्हें (इषे) आश्विन मास के लिये, (त्वा) तुम्हें (ऊर्जे) कार्त्तिक मास के लिये, (त्वा) तुम्हें (सहसे) मार्गशीर्ष मास के लिये, (त्वा) तुम्हें (सहस्याय) पौष मास के लिये, (त्वा) तुम्हें (तपसे) माघ मास के लिये, (त्वा) तुम्हें (तपस्याय) फाल्गुन मास के लिये, (त्वा) तुम्हें (अहंसस्पतये) सबके बल की रक्षा के लिये--मैं स्वीकार करता हूँ ।। ७ । ३० ।। ]
भावार्थ - सभापति राजा यथाकाल श्रेष्ठ राज्य को प्राप्त करके आप्त व्यवहार से प्रजा जनों को सब सुख प्रदान करे और वे राजा की आज्ञा के अनुकूल व्यवहार में वर्तमान रहें ।। ७ । ३० ।।
प्रमाणार्थ -
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ३ । १ । १४-२३) में की गई है।। ७ । ३०।।
भाष्यसार - १. प्रजा का राजा के प्रति कथन--हे राजन् ! आप उत्तम नियमों के अनुसार स्वीकार किये गये हमारे राजा हो, इसलिये आपको चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्त्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन इन वर्ष के १२ मासों में होने वाले सब सुखों की प्राप्ति के लिए हम प्रजाजन आप को राजा स्वीकार करते हैं । सबके बल की रक्षा करने वाले आप ही हो। आपकी आज्ञा के अनुकूल व्यवहार में हम सदा वर्तमान रहेंगे। २. राजा का प्रजा के प्रति कथन--हे प्रजा, सभा और सेना के पुरुषो ! तुम में से प्रत्येक व्यक्ति को मैंने नियमानुसार अपनी प्रजा स्वीकार किया है। इसलिये चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्त्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन --इन वर्ष के १२ मासों में यथाकाल श्रेष्ठ राज्य को प्राप्त करके आप्त जनों के व्यवहार के अनुसार सब सुख प्रदान करूँगा। तुम प्रजा, सभा और सेना के पुरुष ही मेरे सब बलों के रक्षक हो। इसलिये मैं तुम्हें प्रजा रूप में स्वीकार करता हूँ ।। ७।३० ।।
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