यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 17
ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
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मनो॒ न येषु॒ हव॑नेषु ति॒ग्मं विपः॒ शच्या॑ वनु॒थो द्र॑वन्ता। आ यः शर्या॑भिस्तुविनृ॒म्णोऽ अ॒स्याश्री॑णीता॒दिशं॒ गभ॑स्तावे॒ष ते॒ योनिः॑ प्र॒जाः पा॒ह्यप॑मृष्टो॒ मर्को॑ दे॒वास्त्वा॑ मन्थि॒पाः प्रण॑य॒न्त्वना॑धृष्टासि॥१७॥
स्वर सहित पद पाठमनः॑। न। येषु॑। हव॑नेषु। ति॒ग्मम्। विपः॑। शच्या॑। व॒नु॒थः। द्र॑वन्ता। आ। यः। शर्य्या॑भिः। तुवि॒नृम्ण इति॑ तुविऽनृ॒म्णः। अ॒स्य॒। अश्री॑णीत। आ॒दिश॒मित्या॒ऽदिश॑म्। गभ॑स्तौ। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। पा॒हि॒। अप॑मृष्ट॒ इत्यप॑ऽमृष्टः। मर्कः॑। दे॒वाः। त्वा॒। म॒न्थि॒पा इति॑ मन्थि॒ऽपाः। प्र। न॒य॒न्तु॒। अना॑धृष्टा। अ॒सि॒ ॥१७॥
स्वर रहित मन्त्र
मनो न येषु हवनेषु तिग्मँ विपः शच्या वनुथो द्रवन्ता । आ यः शर्याबिस्तुविनृम्णो अस्याश्रीणीतादिशङ्गभस्तावेष ते योनिः प्रजाः पाह्यपमृष्टो मर्का देवास्त्वा मन्थिपाः प्रणयन्त्वनाधृष्टासि ॥
स्वर रहित पद पाठ
मनः। न। येषु। हवनेषु। तिग्मम्। विपः। शच्या। वनुथः। द्रवन्ता। आ। यः। शर्य्याभिः। तुविनृम्ण इति तुविऽनृम्णः। अस्य। अश्रीणीत। आदिशमित्याऽदिशम्। गभस्तौ। एषः। ते। योनिः। प्रजा इति प्रऽजाः। पाहि। अपमृष्ट इत्यपऽमृष्टः। मर्कः। देवाः। त्वा। मन्थिपा इति मन्थिऽपाः। प्र। नयन्तु। अनाधृष्टा। असि॥१७॥
विषय - सभाध्यक्ष राजा के कर्त्तव्य का फिर उपदेश किया है ॥
भाषार्थ -
हे शिल्पविद्या में कुशल सभापति विद्वान् ! (एषः, ते) यह तेरा राजधर्म (योनिः) घर के समान सुखदायक है, तू--जैसे जो (तुविनृम्णः) अति धनवान् (विपः) विविध जनों की रक्षा करने वाला मेघावी राजा और प्रजाजन तुम दोनों जिन (हवनेषु ) धर्म-कार्यों में (शर्याभिः) नाना चेष्टाओं से (तिग्मम्) वज्र के समान तीव्र (मनः) मन के (न) के तुल्य [द्रवन्ता] शीघ्र गमन करने वाले होकर(शच्या) बुद्धिपूर्वक (आवनुथः) इच्छा करते हो, इस प्रकार प्रत्येक प्रजाजन (अस्य) इस सभापति के (गभस्तौ) अंगुली के इशारे पर (आदिशम्) दिशाओं को घेर कर जैसे भी हो, वैसे शत्रुओं को (आ+श्रीणीत) भून डाले, ओर (मर्क:) मृत्यु दुःख देने वाली अनीति (अपमृष्ट:) दूर हो, और तू (प्रजाः) रक्षा करने योग्य प्रजा की (पाहि) रक्षा कर। (मन्थिपाः) शत्रुओं का मन्थन करने वाले वीरों के रक्षक (देवाः) विद्वान् लोग (त्वा) तुझे (प्रणयन्तु) प्रसन्न रखें ।
हे प्रजा ! इस सभापति राजा के कारण (अनाधृष्टा) तू निर्भय एवं स्वतन्त्र (असि) है, इसलिये इस उक्त राजा की सदा रक्षा कर ॥ ७ । १७ ।।
भावार्थ - प्रजा के लोग राज्य कार्य में जिसे राजा मानें वह उनकी न्यायपूर्वक रक्षा करे और वे उस न्यायाधीश के सामने अपना अभिप्राय बतलावें और राजा के सेवक न्याय-कर्म से ही प्रजा-जनों की रक्षा करे ।। ७ । १७ ।।
प्रमाणार्थ -
(तिग्मम्) यह शब्द निघं० ( २ । २०) वज्र-नामों में पढ़ा है । (विपः) यह शब्द निघं० (३ । १५) में मेधावी- नामों में पढ़ा है। (शच्या) 'शची’ शब्द निघं० (३ । ९) में प्रज्ञानामों में पढ़ा है। (वनुथः) कामयेथे । 'वनोति' पद निघं० (२ । ६) में कान्ति-अर्थ वाली क्रियाओं में पढ़ा है । (द्रवन्ता) गन्तारौ । यहाँ'सुपां सुलुक्०' (अ० ७ । १ । ३९) इस सूत्र से आकार आदेश है। (तुविनृम्णः) 'तुवि' शब्द निघं० (३ । १) में बहु नामों में पढ़ा है । (गभस्तौ) 'गभस्ति' शब्द निघं० ( २ । ५) में अंगुली-नामों में पढ़ा है। (असि) यहाँ लोट् अर्थ में लट् लकार है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । १ । ६ । १२-१५) में की गई है ।। ७ । १७ ।।
भाष्यसार - सभाध्यक्ष राजा का कर्त्तव्य--सभापति विद्वान् राजा शिल्प विद्या में दुःख निवारक कुशल हो। जैसे घर दुःखों का निवारण करके सुख प्रदान करता है, वैसे राजा का धर्म भी और सुखदायक हो। राजा अतिधनवान् तथा विविध प्रजा की रक्षा करने वाला मेधावी विद्वान् हो। राजा और प्रजाजन दोनों मिलकर शुभ कार्यों में विविध चेष्टाओं से मन के समान शीघ्र गति करने वाले हों। दोनों बुद्धिपूर्वक कामना करें। प्रजा का प्रत्येक व्यक्ति राजा के निर्देश पर सब दिशाओं को घेर कर शत्रुओं को भून डाले। राजा की दुर्नीति मृत्यु दुःख का हेतु होती है, उससे सदा दूर रहे। प्रजा के लोग राज्य-कार्यों में जिसको राजा मानें, वह उनकी न्यायपूर्वक रक्षा करे, और प्रजा के लोग न्यायाधीश के सामने अपना अभिप्राय बतलावें । राजा के सेवक भी न्याय से प्रजा की रक्षा करें। विद्वान् लोग शत्रुओं का मन्थन करने वाले वीरों की रक्षा करके राजा को सदा प्रसन्न रखें । सभाध्यक्ष राजा से रक्षित प्रजा निर्भय और स्वतन्त्र होती है। इसलिये वह राजा की सदा रक्षा करे ।। ७ । १७ ।।
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