यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 17
ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
145
मनो॒ न येषु॒ हव॑नेषु ति॒ग्मं विपः॒ शच्या॑ वनु॒थो द्र॑वन्ता। आ यः शर्या॑भिस्तुविनृ॒म्णोऽ अ॒स्याश्री॑णीता॒दिशं॒ गभ॑स्तावे॒ष ते॒ योनिः॑ प्र॒जाः पा॒ह्यप॑मृष्टो॒ मर्को॑ दे॒वास्त्वा॑ मन्थि॒पाः प्रण॑य॒न्त्वना॑धृष्टासि॥१७॥
स्वर सहित पद पाठमनः॑। न। येषु॑। हव॑नेषु। ति॒ग्मम्। विपः॑। शच्या॑। व॒नु॒थः। द्र॑वन्ता। आ। यः। शर्य्या॑भिः। तुवि॒नृम्ण इति॑ तुविऽनृ॒म्णः। अ॒स्य॒। अश्री॑णीत। आ॒दिश॒मित्या॒ऽदिश॑म्। गभ॑स्तौ। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। पा॒हि॒। अप॑मृष्ट॒ इत्यप॑ऽमृष्टः। मर्कः॑। दे॒वाः। त्वा॒। म॒न्थि॒पा इति॑ मन्थि॒ऽपाः। प्र। न॒य॒न्तु॒। अना॑धृष्टा। अ॒सि॒ ॥१७॥
स्वर रहित मन्त्र
मनो न येषु हवनेषु तिग्मँ विपः शच्या वनुथो द्रवन्ता । आ यः शर्याबिस्तुविनृम्णो अस्याश्रीणीतादिशङ्गभस्तावेष ते योनिः प्रजाः पाह्यपमृष्टो मर्का देवास्त्वा मन्थिपाः प्रणयन्त्वनाधृष्टासि ॥
स्वर रहित पद पाठ
मनः। न। येषु। हवनेषु। तिग्मम्। विपः। शच्या। वनुथः। द्रवन्ता। आ। यः। शर्य्याभिः। तुविनृम्ण इति तुविऽनृम्णः। अस्य। अश्रीणीत। आदिशमित्याऽदिशम्। गभस्तौ। एषः। ते। योनिः। प्रजा इति प्रऽजाः। पाहि। अपमृष्ट इत्यपऽमृष्टः। मर्कः। देवाः। त्वा। मन्थिपा इति मन्थिऽपाः। प्र। नयन्तु। अनाधृष्टा। असि॥१७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे शिल्पिद्याविचक्षण सभापते विद्वन्नेष राजधर्मस्ते तव योनिरस्ति, त्वं यथा यस्तुविनृम्णः प्रजापतिर्विपः प्रजाजनश्चैतौ द्वौ युवां येषु हवनेषु शर्य्याभिस्तिग्मं मनो न द्रवन्तौ शच्या सह आवनुथः, इत्थं प्रत्येकः प्रजाजनोऽस्य गभस्तावादिशं यथा स्यात् तथा शत्रूनाश्रीणीत, मर्कश्चापमृष्टो भवतु। प्रजाः पाहि मन्थिपा देवास्त्वा त्वां प्रणयन्तु, हे प्रजे! यतोऽनाधृष्टा निर्भया स्वतन्त्रा त्वमसि, तं राजानं सततं रक्ष॥१७॥
पदार्थः
(मनः) विज्ञानम् (न) इव (येषु) (हवनेषु) धर्म्मेणैवादानेषु (तिग्मम्) वज्रवत् तीव्रम्। तिग्ममिति वज्रनामसु पठितम्। (निघं॰२।२०) (विपः) विविधं पातीति विपो मेधावी। विप इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰३।१५) (शच्या) प्रज्ञया। शचीति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं॰३।९) (वनुथः) कामयेथे। वनोतीति कान्तिकर्म्मसु पठितम्। (निघं॰२।६) (द्रवन्ता) गन्तारौ। अत्र सुपां सुलुग् [अष्टा॰७.१.३९] इत्याकारदेशः (अष्टा॰७।१।१३९) (आ) (यः) (शर्य्याभिः) गतिभिः (तुविनृम्णः) तुवीनि बहूनि धनानि यस्य सः। तुवीति बहुनामसु पठितम्। (निघं॰२।५) (अस्य) (अश्रीणीत) श्रीणाति पचति (आदिशम्) दिशमभिव्याप्येव (गभस्तौ) अङ्गुल्या निर्देशे। गभस्तयः इत्यङ्गुलिनामसु पठितम्। (निघं॰२.५) (एषः) राजधर्म्मः (ते) तव (योनिः) गृहम् (प्रजाः) संरक्षणीयाः (पाहि) (अपमृष्टः) दूरीकृतः (मर्कः) मरणदुःखदो दुर्नयः (देवाः) विद्वांसः (त्वा) त्वाम् (मन्थिपाः) ये मन्थन्ति शत्रून् तान् वीरान् पान्ति ते (प्र) (नयन्तु) प्रीणयन्तु (अनाधृष्टा) अधर्षणीया (असि) लोडर्थे लट्॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। १। ६। १२-१५) व्याख्यातः॥१७॥
भावार्थः
प्रजापुरुषा राज्यकर्म्मणि यं राजानमाश्रयेयुस्स तेषां न्यायेन रक्षां कुर्य्यात्। ते च तं न्यायाधीशं प्रति स्वाभिप्रायं प्रवदेयुः। राजसेवकाश्च न्यायकर्म्मणैव प्रजापुरुषान् रक्षेयुरिति॥१७॥
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
सपदार्थान्वयः
हे शिल्पविद्याविचक्षण सभापते विद्वन् ! एषः राजधर्मः ते=तव योनिः गृहम् अस्ति, त्वं यथा यस्तुविनृम्णः तुवीनि=बहूनि धनानि यस्य सः प्रज्ञापतिर्विपः विविधं पातीति विपो मेधावी प्रजाजनश्चैतो द्वौ युवां येषु हवनेषु धर्मेणैवादानेषु शर्याभिः गतिभिः तिग्मं व्रजवत्तीव्रंमनः विज्ञानं न इव [द्रवन्ता]=द्रवन्तौ गन्तारौसन्तौ शच्या प्रज्ञया सह आवनुथः कामयेथे, इत्थं प्रत्येकः प्रजाजनोऽस्य गभस्तौ अंगुल्या निर्देशे आदिशं दिशमभिव्याप्येव यथा स्यात्तथा शत्रूना श्रीणीतःश्रीणाति= पचति, मर्क: मरणदुःखदो दुर्नयः चापमृष्ट: दूरीकृत भवतु, प्रजाः संरक्षणीयाः पाहि, मन्थिपाः मन्थन्ति शत्रून् तान् वीरान् पान्ति ते देवाः विद्वांसः त्वा=त्वां प्रणयन्तु प्रीणयन्तु। हे प्रजे ! यतोऽनाधृष्टा=निर्भया स्वतन्त्रा अधर्षणीया त्वमसि, तं राजानं सततंरक्ष ।। ७ । १७ ।। [हे शिल्पविद्याविचक्षसभापते विद्वन्! एष ते=तव योनिरस्ति, त्वं......प्रजाः पाहि,मन्थिपा देवास्त्वा=त्वां प्रणयन्तु]
पदार्थः
(मनः) विज्ञानम् (न) इव (येषु) (हवनेषु) धर्म्मेणैवादानेषु (तिग्मम्) वज्रवत्तीव्रम्। तिग्ममिति वज्रनामसु पठितम्॥ निघं० २ । २० ॥ (विपः) विविधं पातीति विपो मेधावी। विप इति मेधाविनामसु पठितम् ॥ निघं ० ३ । १५ ।। (शच्या) प्रज्ञया। शचीति प्रज्ञानामसु पठितम् ॥ निघं० ३ । ९॥ (वनुथः)। कामयेथे । वनोतीति कांतिकर्मसु पठितम्॥ निघं० २। ६ ॥ (द्रवन्ता) गन्तारौ । अत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः ॥ अ० ७ । १ । ३९॥ (आ) (यः) (शर्य्याभिः) गतिभिः (तुविनृम्णः) तुवीनि=बहूनि धनानि यस्य सः । तुवीति बहुनामसु पठितम् ॥ निघं० ३ । १ ॥ (अस्य) (अश्रीणीत) श्रीणाति पचति आदिशंदिशमभिव्याप्येव (गभस्तौ) अङ्गुल्या निर्देशे। गभस्तय इत्यङ्गुलीनामसु पठितम् ॥ निघं० २। ५ ॥ (एषः) राजधर्म: (ते) तव (योनिः) गृहम् (प्रजा:) संरक्षणीयाः (पाहि) (अपमृष्टः) दूरीकृतः (मर्कः) मरणदुःखदो दुर्नयः (देवाः) विद्वांसः (त्वा) त्वाम् (मन्थिपाः) ये मन्थन्ति शत्रून् तान् वीरान् पांति ते (प्र) (नयंतु) प्रीणयंतु (अनाधृष्टा) अधर्षणीया (असि) लोडर्थे लट् । अयं मन्त्रः शत० ४ । १ । ६ । १२--१५ व्याख्यातः।। १७ ।।
भावार्थः
प्रजापुरुषा राज्यकर्मणि राजानमाश्रयेयुस्स तेषां न्यायेन रक्षां कुर्यात् । ते च तं न्यायाधीशं प्रति स्वाभिप्रायं प्रवदेयुः। राजसेवकाश्च न्यायकर्मणैव प्रजापुरुषान् रक्षेयुरिति ।। ७ । १७ ।।
विशेषः
वत्सारः काश्यप । विश्वेदेवा=विद्वांसः। स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवतः।।
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे शिल्पविद्या में चतुर सभापते! (एषः) यह राजधर्म (ते) तेरा (योनिः) सुखपूर्वक स्थिरता का स्थान है। जैसे तू (यः) जो (तुविनृम्णः) अत्यन्त धनयुक्त प्रजा का पालने वाला वा (विपः) बुद्धिमान् प्रजाजन ये तुम दोनों (येषु) जिन हवनादि कर्म्मों में (शर्य्याभिः) वेगों से (तिग्मम्) वज्र के तुल्य अतिदृढ़ (मनः) मन के (न) समान वेग से (द्रवन्ता) चलते हुए (शच्या) बुद्धि के साथ (आवनुथः) परस्पर कामना करते हो, वैसे प्रत्येक प्रजापुरुष (अस्य) इस प्रजापति के (गभस्तौ) अंगुली-निर्देश से (आदिशम्) सब दिशाओं में तेज जैसे हो, वैसे शुत्रओं को (आ, अश्रीणीत) अच्छे प्रकार दुःख दिया करे (मर्कः) मरण के तुल्य दुःख देने और कुढंग चालचलन रखने वाला शत्रु (अपमृष्टः) दूर हो और तू (प्रजाः) प्रजा का (पाहि) पालन कर (मन्थिपाः) शत्रुओं केा मंथने वाले वीरों के रक्षक (देवाः) विद्वान् लोग (त्वा) तुझे (प्र, नयन्तु) प्रसन्न करें। हे प्रजाजनो! तुम जिससे (अनाधृष्टा) प्रगल्म निर्भय और स्वाधीन (असि) हो, उस राजा की रक्षा किया करो॥१७॥
भावार्थ
प्रजापुरुष राज्यकर्म में जिस राजा का आश्रय करें, वह उन की रक्षा करे और प्रजाजन उस न्यायाधीश के प्रति अपने अभिप्राय को शंका-समाधान के साथ कहें, राजा के नौकर-चाकर भी न्यायकर्म्म ही से प्रजाजनों की रक्षा करें॥१७॥
विषय
मनो विजय
पदार्थ
गत मन्त्र में प्रभु की उपासना के द्वारा वेन अपने जीवन को अत्यन्त सुन्दर बनाने का निश्चय करता है। ‘इन प्रभु-उपासनाओं से क्या होता है?’ यह बात प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि ( येषु हवनेषु ) = जिन प्रभु के पुकारने के समयों पर अथवा प्रभु के प्रति अपना अर्पण करने के अवसरों पर ( विपः ) = मेधावी पति-पत्नी ( मनः ) = अपने मन को, जो मन ( न तिग्मम् ) = तेज़ नहीं है, अर्थात् जो शान्त है, उसे ( शच्या ) = प्रज्ञापूर्वक ( द्रवन्ता ) = गति करते हुए ( वनुथः ) = जीतते हैं।
२. उपासना से मन शान्त होता है, मनुष्य सब क्रियाओं को बुद्धिमत्तापूर्वक करता है, अन्त में मन को पूर्णरूप से जीत लेता है। यह मनोविजेता वह है ( यः ) = जो ( आशर्याभिः ) = [ शॄ हिंसायाम् ] सब बुराइयों की हिंसा के द्वारा ( तुविनृम्णः ) = महान् बलवाला है। ( अस्य ) = इसकी ( गभस्तौ ) = ज्ञान-किरणों में ( आदिशम् ) = [ दिशायाम् दिशायाम् ] प्रत्येक दिशा में ( आश्रीणीत ) = अपने को परिपक्व करो। जिसने स्वयं मन को जीता है, उसके अनुभवों से पूर्ण लाभ लेते हुए अन्य लोग भी अपनी शक्तियों का परिपाक करें।
३. ( एषः ते योनिः ) = हे सोम! जिस तेरी रक्षा पर ही सब उन्नतियाँ निर्भर करती हैं, उस तेरा यह शरीर ही घर है। इस शरीर में ही व्यापक होकर तूने रहना है।
४. शरीर में रहकर ( प्रजाः पाहि ) = सब प्रजाओं का तू पालन कर। तेरे निवास से ही यह ( मर्कः ) = शरीर ( अपमृष्टः ) = बुराइयों के सुदूर विध्वंस के द्वारा शुद्ध कर दिया जाता है।
५. इसीलिए ( मन्थिपाः ) = सोम की रक्षा करनेवाले ( देवाः ) = देव ( त्वा ) = तुझे ( प्रणयन्तु ) = शरीर में विशेष रूप से प्राप्त कराएँ। हे शुक्रशक्ते! तू ( अनाधृष्ट असि ) = अपराजेय है। तेरे होने पर शरीर में किसी रोगादि का आक्रमण नहीं होता।
भावार्थ
भावार्थ — प्रभु-उपासना से मन शान्त होता है। जीवन शुद्ध होता है। यह शुक्रशक्ति अपराजेय है। इसकी रक्षा से ही शरीर निर्दोष होता है।
विषय
आक्रामकों के नाशक पुरुष की नियुक्ति ।
भावार्थ
हे राजन् ! हे प्रजाजन ! ( येषु ) जिन ( हवनेषु ) युद्ध के अवसरों पर ( मनः न ) मन के समान ( तिग्मं ) तीक्ष्ण अति तीव्र- गति वाले ( विपः ) विपश्चित् या कार्यकुशल पुरुष को ( शच्या ) अपनी शक्ति या सेना से ( द्रवन्तौ) गमन करते हुए ( वनुथः ) प्राप्त करते हैं। और जो ( तुविनृम्णः ) बहुत ऐश्वर्यवान् ( अस्य ) इस राजा के लिये (आदिशम् ) प्रत्येक दिशा, या देश में ( गभस्तौ ) अपने ग्रहण या आक्रमण या देश विजय करने के बल पर ( शर्याभिः ) अपने शर प्रहार करने वालो सेनाओं से ( आश्रीणीत ) सब प्रकार राजा का आश्रय करता या उसके शत्रु को सन्तप्त करता है । हे वीर पुरुष ! (एषः ) यह प्रजा भी ( तेयोनिः ) तेरा आश्रय स्थान या पद है। तू ( प्रजाः पाहि ) प्रजा का पालन कर इस प्रकार ( मर्कः ) प्रजा पर मृत्यु का दुःख डालने वाले शासकों का दुर्नय या दुष्प्रबन्ध और उसके कारण उत्पन्न होने वाला पारस्परिक घात प्रतीघात या माहमारी आदि रोग ( अपमृष्टः ) दूर किया जाय । हे राजन् ( त्वाः ) तुमको ( मन्थिपाः ) शत्रुओं को मथन करने वाले पुरुष के रक्षक ( देवा: ) विजिगीषु लोग (प्रणयन्तु ) आगे विजय मार्ग पर ले चलें । हे प्रजे ! इस प्रकार तू ( अनाघृष्टा असि) शत्रुओं द्वारा कभी पीड़ित नहीं हो सकती । शत० ४ । २ । १ । १२ ।
राजा एक ऐसे विद्वान को नियुक्त करे जो युद्ध के अवसरों पर मन के समान तीक्ष्ण मननशील हो ! राजा प्रजा उसकी शक्ति से सब कार्यों में आगे बढ़े। वह प्रत्येक दिशा में शत्रुओं को पराजित करे । उसको उचित आश्रय दे । जो राजा प्रजा का पालन करे, आक्रामक शत्रु का नाश करे उसका नाम 'मन्थी' है । उसके आज्ञा के पालक राजा को आगे बढ़ावें । प्रजा सुरक्षित रहे ।
टिप्पणी
१७ - होम स्तुतिदक्षिणोत्तरे वेदी च देवताः । सर्वा०
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वेदेवाः देवताः । स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवतः स्वरः ॥
विषय
सभाध्यक्ष राजा के कर्त्तव्य का फिर उपदेश किया है ॥
भाषार्थ
हे शिल्पविद्या में कुशल सभापति विद्वान् ! (एषः, ते) यह तेरा राजधर्म (योनिः) घर के समान सुखदायक है, तू--जैसे जो (तुविनृम्णः) अति धनवान् (विपः) विविध जनों की रक्षा करने वाला मेघावी राजा और प्रजाजन तुम दोनों जिन (हवनेषु ) धर्म-कार्यों में (शर्याभिः) नाना चेष्टाओं से (तिग्मम्) वज्र के समान तीव्र (मनः) मन के (न) के तुल्य [द्रवन्ता] शीघ्र गमन करने वाले होकर(शच्या) बुद्धिपूर्वक (आवनुथः) इच्छा करते हो, इस प्रकार प्रत्येक प्रजाजन (अस्य) इस सभापति के (गभस्तौ) अंगुली के इशारे पर (आदिशम्) दिशाओं को घेर कर जैसे भी हो, वैसे शत्रुओं को (आ+श्रीणीत) भून डाले, ओर (मर्क:) मृत्यु दुःख देने वाली अनीति (अपमृष्ट:) दूर हो, और तू (प्रजाः) रक्षा करने योग्य प्रजा की (पाहि) रक्षा कर। (मन्थिपाः) शत्रुओं का मन्थन करने वाले वीरों के रक्षक (देवाः) विद्वान् लोग (त्वा) तुझे (प्रणयन्तु) प्रसन्न रखें । हे प्रजा ! इस सभापति राजा के कारण (अनाधृष्टा) तू निर्भय एवं स्वतन्त्र (असि) है, इसलिये इस उक्त राजा की सदा रक्षा कर ॥ ७ । १७ ।।
भावार्थ
प्रजा के लोग राज्य कार्य में जिसे राजा मानें वह उनकी न्यायपूर्वक रक्षा करे और वे उस न्यायाधीश के सामने अपना अभिप्राय बतलावें और राजा के सेवक न्याय-कर्म से ही प्रजा-जनों की रक्षा करे ।। ७ । १७ ।।
प्रमाणार्थ
(तिग्मम्) यह शब्द निघं० ( २ । २०) वज्र-नामों में पढ़ा है । (विपः) यह शब्द निघं० (३ । १५) में मेधावी- नामों में पढ़ा है। (शच्या) 'शची’ शब्द निघं० (३ । ९) में प्रज्ञानामों में पढ़ा है। (वनुथः) कामयेथे । 'वनोति' पद निघं० (२ । ६) में कान्ति-अर्थ वाली क्रियाओं में पढ़ा है । (द्रवन्ता) गन्तारौ । यहाँ'सुपां सुलुक्०' (अ० ७ । १ । ३९) इस सूत्र से आकार आदेश है। (तुविनृम्णः) 'तुवि' शब्द निघं० (३ । १) में बहु नामों में पढ़ा है । (गभस्तौ) 'गभस्ति' शब्द निघं० ( २ । ५) में अंगुली-नामों में पढ़ा है। (असि) यहाँ लोट् अर्थ में लट् लकार है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । १ । ६ । १२-१५) में की गई है ।। ७ । १७ ।।
भाष्यसार
सभाध्यक्ष राजा का कर्त्तव्य--सभापति विद्वान् राजा शिल्प विद्या में दुःख निवारक कुशल हो। जैसे घर दुःखों का निवारण करके सुख प्रदान करता है, वैसे राजा का धर्म भी और सुखदायक हो। राजा अतिधनवान् तथा विविध प्रजा की रक्षा करने वाला मेधावी विद्वान् हो। राजा और प्रजाजन दोनों मिलकर शुभ कार्यों में विविध चेष्टाओं से मन के समान शीघ्र गति करने वाले हों। दोनों बुद्धिपूर्वक कामना करें। प्रजा का प्रत्येक व्यक्ति राजा के निर्देश पर सब दिशाओं को घेर कर शत्रुओं को भून डाले। राजा की दुर्नीति मृत्यु दुःख का हेतु होती है, उससे सदा दूर रहे। प्रजा के लोग राज्य-कार्यों में जिसको राजा मानें, वह उनकी न्यायपूर्वक रक्षा करे, और प्रजा के लोग न्यायाधीश के सामने अपना अभिप्राय बतलावें । राजा के सेवक भी न्याय से प्रजा की रक्षा करें। विद्वान् लोग शत्रुओं का मन्थन करने वाले वीरों की रक्षा करके राजा को सदा प्रसन्न रखें । सभाध्यक्ष राजा से रक्षित प्रजा निर्भय और स्वतन्त्र होती है। इसलिये वह राजा की सदा रक्षा करे ।। ७ । १७ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
ज्या राजाच्या आश्रयाने प्रजा राज्यकार्य करते त्या राजाने प्रजेचे रक्षण करावे व प्रजेने राजाच्या न्याय देण्याबाबत शंकानिरसन करून आपले मत स्पष्ट मांडावे. राजाच्या कर्मचाऱ्यांनीही न्याय करताना प्रजेचे रक्षण करावे.
विषय
हाच विषय पुढील मंत्रात प्रतिपादिला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे शिल्पविद्या कुशल सभापती, (एष:) हा राजधर्म (ते) आपले (योनि:) सुखदायक व स्थिर असे एक स्थान आहे. आपण दृढपणे या पदावर आसीन होऊन (तुविनृम्ण:) अत्यंत संपन्नतेने प्रजेचे पालन करीत आहात. (विप:) आपण व आपले बुद्धिमान प्रजाजन (येषु) दोघे मिळून ज्या हवन आदी उत्तम कर्मांत (शर्य्याभि:) वेगाने (शीघ्रतेने वा लवकर) तिग्मन्) वज्राप्रमाणे दृढ राहून तसेच (मन:) (क) मनाप्रमाणे वेगाने (द्रवतौ) गती वा प्रगती करतात, (शच्या) तसेच बुद्धिपूर्वक (आवनुथ:) परस्परास एकमेकास सहकार्य करता. (आपल्या प्रत्येक प्रजाननाचे कत्तर्व्य आहे की त्याने) (अस्य) या आपल्या प्रिय प्रजापति सभाध्यक्षास सहकार्य करावे. ज्यायोगे या सभापतीचे तेज (अदिशम्) सर्व दिशांमध्ये पसृत होईन आणि याच्या (गरस्त्रौ) अंगुलि-निर्देश मात्राने शस्त्रू (आ अश्रीणीत) फार भयभीत होतील वा कष्टी-दुखी होतील, असे व्हावे (मर्क:) मरणप्राय यातना देणारा शत्रू आणि कपटी दुराचारी शत्रू (अपमृष्ट:) दूर वा नष्ट व्हावा, अशाच रीतीने हे सभाध्यक्ष आपण (प्रजा:) प्रजेचे (वाहि) पालन करा. (मंथिपा:) शत्रूना मर्दित, व्यथित करणारे शक्तिशाली (देवळ) विद्वान जन (त्वा) आपणांस (प्र नयन्तु) मार्गदर्शन करीत, आपल्यावर प्रसन्न राहोत. हे प्रजाजन हो, तुम्ही सर्व ज्या राजाच्या कृपेने (अनाधृष्टा) (असि) निर्भय आणि स्वाधीन (असि) आहात, त्या राजाचे कुशल व क्षेम होईल, असेच वर्तन करा ॥17॥
भावार्थ
भावार्थ - राज्यधर्म व शासनव्यवस्था करण्याच्या कामी प्रजेने राजाला सहकार्य द्यावे आणि राजाने आपल्या अश्रित प्रजेचे रक्षण करावे. राजा प्रजेसाठी न्यायाधीश आहे, म्हणून प्रजेने आपले म्हणणे वा तक्रारी राजासमोर अवश्य मांडाव्यात. तसेच राजाचे अधीनस्थ अधिकारी, सेवक आदी कर्मचार्यांचे ही कर्त्तव्य आहे की त्यांनी न्याय्यरीतीने प्रजेचे पालन व रक्षण करावे ॥ 17॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O skilful ruler, this art of government is thy mainstay. Just as thou, master of wealth, and protector of thy subjects, and the wise people of thine, both perform Havan with alertness, and determined mind, and acting wisely contribute to the welfare of the state, so should each subordinate of thine, on the signal of thy finger, remove enemies from all sides. Let the wicked and agonising foe be cast aside. Protect thy subjects. Let the learned, who quell the foes, add to thy happiness. O people protect the ruler that grants ye independence and fearlessness.
Meaning
Ruler and Head of the republic, lord of power and wealth, this land and its governance is your haven, the very meaning of your existence. The enlightened ruler and the people, both dynamic and intelligent, working at the speed of the mind, sharp as an arrow and strong as adamant, think hard and plan for the nation. In the light of his glory shining in all directions and under the protection of the fighters of this man of a mighty host working at his command, they shine in peace and bum in war. Protect and serve the people. Free of the enemies as you are, may the divine powers who protect the brave help and lead you on. Be invincible.
Translation
In those sacrifices, where both of you wise arrive rushing swiftly as mind, with your actions, the possessor of great wealth, with movement of his fingers, compels obedience from him. (1) This is your abode. Protect our people. Sin has been thrown off. (2) May the enlightened ones, the protectors of the intellectuals be pleased with you. (3) Unconquered you are. (4)
Notes
Sacya, शची इति कर्म नाम , with actions. Vipah, विपश्चितौ, wise, learned. Saryabhih, srzefiftr:, with fingers. अंगुलीभि:, possessor of abundant wealth. Gabhasti, पाणि:, hand. Manthipáh, protectors of intellectuals.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনরায় সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে শিল্পবিদ্যায় দক্ষ সভাপতে ! (এষঃ) এই রাজধর্ম (তে) তোমার (য়োনিঃ) সুখপূর্বক স্থিরতার স্থান । যেমন তুমি (য়ঃ) যে (তুবিনৃম্ণ) অত্যন্ত ধনযুক্ত প্রজার পালক অথবা (বিপঃ) বুদ্ধিমান্ প্রজা এই তোমরা উভয়েই (য়েষু) যে সব হবনাদি কর্মে (শর্য়্যভিঃ) বেগের সহিত (তিগ্মম্) বজ্রতুল্য অতিদৃঢ় (মনঃ) মনের (ন) সমান বেগে (দ্রবন্তৌ) চালিত হইয়া (শচ্যা) বুদ্ধি সহ (আবনুষঃ) পরস্পর কামনা কর । সেইরূপ প্রত্যেক প্রজাপুরুষ (অস্য) এই প্রজাপতির (গভস্তৌ) অঙ্গুলি – নির্দেশে (আদিশম্) সকল বিদ্যায় তেজের মত হও সেইরূপ শত্রুদিগকে (আ, অশ্রীণীত) উত্তম ভাবে দুঃখ প্রদান করিবে । (মর্কঃ) মরণ তুল্য দুঃখ প্রদান করিবার এবং বদ আচরণকারী শত্রু (অপমৃষ্টঃ) দূর হও এবং তুমি (প্রজাঃ) প্রজার (পাহি) পালন কর (মন্থিপা) শত্রুদিগকে মন্থনকারী বীরদের রক্ষক (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (ত্বাঃ) তোমাকে (প্র, নয়ন্তু) প্রসন্ন করুক । হে প্রজাগণ । তোমরা যদ্দ্বারা (অনাধৃষ্টা) চতুর, নির্ভয় ও স্বাধীন (অসি) হও সেই রাজার রক্ষা করিতে থাক ॥ ১৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- প্রজাপুরুষ রাজকর্ম্মে যে রাজার আশ্রয় করে তিনি তাহাদিগের রক্ষা করেন এবং সেই সব প্রজাগণ সেই ন্যায়াধীশের প্রতি নিজ অভিপ্রায়কে সন্দেহ নিরসন পূর্বক বলিবে । রাজার সেবকগণও ন্যায়কর্মের দ্বারাই প্রজাগণের রক্ষা করিবে ॥ ১৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
মনো॒ ন য়েষু॒ হব॑নেষু তি॒গ্মং বিপঃ॒ শচ্যা॑ বনু॒থো দ্রব॑ন্তা । আ য়ঃ শর্য়া॑ভিস্তুবিনৃ॒ম্ণোऽ অ॒স্যাশ্রী॑ণীতা॒দিশং॒ গভ॑স্তাবে॒ষ তে॒ য়োনিঃ॑ প্র॒জাঃ পা॒হ্যপ॑মৃষ্টো॒ মর্কো॑ দে॒বাস্ত্বা॑ মন্থি॒পাঃ প্র ণ॑য়॒ন্ত্বনা॑ধৃষ্টাসি ॥ ১৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
মনো ন য়েষ্বিত্যস্য বৎসারঃ কাশ্যপ ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । স্বরাড্ ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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