यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 25
ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः
देवता - वैश्वनरो देवता
छन्दः - याजुषी अनुष्टुप्,विराट आर्षी बृहती
स्वरः - गान्धारः
118
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि ध्रु॒वोऽसि ध्रु॒वक्षि॑तिर्ध्रु॒वाणां॑ ध्रु॒वत॒मोऽच्यु॑तानामच्युत॒क्षित्त॑मऽए॒ष ते॒ योनि॑र्वैश्वान॒राय॑ त्वा। ध्रु॒वं ध्रु॒वेण॒ मन॑सा वा॒चा सोम॒मव॑नयामि। अथा॑ न॒ऽइन्द्र॒ऽइद्विशो॑ऽसप॒त्नाः सम॑नस॒स्कर॑त्॥२५॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒या॒मगृ॑हीत इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। ध्रु॒वः। अ॒सि॒। ध्रु॒वक्षि॑ति॒रिति॑ ध्रु॒वऽक्षि॑तिः। ध्रु॒वाणा॑म्। ध्रु॒वत॑म॒ इति॑ ध्रु॒वऽतमः॑। अच्यु॑तानाम्। अ॒च्युत॒क्षित्त॑म॒ इत्य॑च्युत॒क्षित्ऽत॑मः। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। वै॒श्वा॒न॒राय॑। त्वा॒। ध्रु॒वम्। ध्रु॒वेण॑। मन॑सा। वा॒चा। सोम॑म्। अव॑। न॒या॒मि॒। अथ॑। नः॒। इन्द्रः॑। इत्। विशः॑। अ॒स॒प॒त्नाः। सम॑नस॒ इति॑ सऽम॑नसः। कर॑त् ॥२५॥
स्वर रहित मन्त्र
उपयामगृहीतोसि धु्रवोसि धु्रवक्षितिर्ध्रुवाणान्धु्रवतमोच्युतानामच्युतक्षितमऽएष ते योनिर्वैश्वानराय त्वा । धु्रवन्धु्रवेण मनसा वाचा सोममवनयामि । अथा नऽइन्द्रऽइद्विशो सपत्नाः समनसस्करत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। ध्रुवः। असि। ध्रुवक्षितिरिति ध्रुवऽक्षितिः। ध्रुवाणाम्। ध्रुवतम इति ध्रुवऽतमः। अच्युतानाम्। अच्युतक्षित्तम इत्यच्युतक्षित्ऽतमः। एषः। ते। योनिः। वैश्वानराय। त्वा। ध्रुवम्। ध्रुवेण। मनसा। वाचा। सोमम्। अव। नयामि। अथ। नः। इन्द्रः। इत्। विशः। असपत्नाः। समनस इति सऽमनसः। करत्॥२५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते॥
अन्वयः
हे परमेश्वर! त्वमुपयामगृहीतोऽसि ध्रुवोऽसि ध्रुवक्षितिर्ध्रुवाणां ध्रुवतमस्तथा चाच्युतानामच्युतक्षित्तमोऽसि। एष ते योनिरस्ति। अस्मै वैश्वानराय राज्यप्रकाशकाय ध्रुवेण मनसा ध्रुवया वाचा च सोमं त्वां ध्रुवमवनयामि। अथेन्द्रो भवान् नो विशोऽसपत्नाः समनस इदेव करत् करोतु॥२५॥
पदार्थः
(उपयामगृहीतः) यमानां समूहो यामम्, उपगतं च तद्यामं चोपयाममुपयामेन गृहीत उपयामगृहीतः परमेश्वरः (असि) (ध्रुवः) स्थिरः (असि) (ध्रुवक्षितिः) ध्रुवा क्षितयो भूमयो यस्मिन् (ध्रुवाणाम्) आकाशादीनां मध्ये (ध्रुवतमः) अतिशयेन ध्रुवो ध्रुवतमः (अच्युतानाम्) कारणजीवानाम् (अच्युतक्षित्तमः) अच्युतं क्षयति निवासयति सोऽतिशयितः (एषः) सत्यमार्गप्रकाशः (ते) तव (योनिः) स्थानमिव (वैश्वानराय) विश्वेषां नराणां नायकाय सत्यप्रकाशकाय (त्वा) त्वाम् (ध्रुवम्) निश्चयम् (ध्रुवेण) निष्कम्पेण (मनसा) अन्तःकरणेन (वाचा) वाण्या (सोमम्) सकलजगतः प्रसवितारम् (अव) (नयामि) स्वीकरोमि (अथ) अनन्तरम् (नः) अस्माकम् (इन्द्रः) सर्वदुःखविदारकः (इत्) एव (विशः) प्रजाः (असपत्नाः) अजातशत्रवः (समनसः) समानं मनः स्वान्तं यासां ताः (करत्) करोतु। लेट्प्रयोगोऽयम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। २। ४। २४) व्याख्यातः॥२५॥
भावार्थः
योऽनित्यानां नित्यो ध्रुवाणामपि ध्रुवः परमेश्वरस्तस्य सर्वजगत्प्रेरकस्येश्वरस्य प्राप्त्या योगाभ्यासानुष्ठानेन चैव विज्ञानं जायते नान्यथा॥२५॥
विषयः
अथेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते॥
सपदार्थान्वयः
हे परमेश्वर! त्वमुपयामगृहीतः यमानां समूहो यामम्, उपगतं च तद्यामं चोपयाममुपयामेन गृहीतः परमेश्वरः असि, ध्रुवः स्थिरः असि, ध्रुवक्षितिः ध्रुवाः क्षितयः=भूमयो यस्मिन् ध्रुवाणाम् आकाशादीनां मध्ये (ध्रुवतमः) अतिशयेन ध्रुवो ध्रुवतमः, तथा चाच्युतानां कारणजीवानाम् अच्युतक्षित्तमः अच्युतं क्षयति=निवासयति सोऽतिशयितः असि। एषः सत्यमार्गप्रकाशः ते तव योनिः स्थानमिव अस्ति। अस्मै वैश्वानराय=राज्यप्रकाशकायविश्वेषां नराणां नायकाय, सत्यप्रकाशाय ध्रुवेण निष्कम्पेणमनसाअन्तःकरणेनध्रुवया वाचा वाण्या च सोमं सकलजगतः प्रसवितारं त्वां ध्रुवं निश्चयम् अवनयामि स्वीकरोमि। अथ अनन्तरम् इन्द्रः सर्वदुःखविदारकः भवान् नः अस्माकं विशः प्रजा: असपत्ना:अजातशत्रवः समनसः समानं मनः=स्वान्तं यासां ताः इद्=एव करत्=करोतु ।। ७ । २५ ।। [हे परमेश्वर! त्वमुपयामगृहीतोऽसि, ध्रुवोऽसि, ध्रुवक्षितिर्ध्रुवाणां ध्रुवतमस्तथा चाच्युतानामच्युतक्षित्तमोऽसि]
पदार्थः
(उपयामगृहीतः) यमानां समूहो यामम्, उपगतं च तद्यामं चोपयाममुपयामेन गृहीत उपयामगृहीतः परमेश्वर: (असि) (ध्रुव:) स्थिर: (असि) (ध्रुवक्षितिः) ध्रुवाः क्षितयो=भूमयो यस्मिन् (ध्रुवाणाम्) आकाशादीनां मध्ये (ध्रुवतमः) अतिशयेन ध्रुवो ध्रुवतमः (अच्युतानाम्) कारणजीवानाम् (अच्युतक्षितमः) अच्युतं क्षयति निवासयति सोऽतिशयित: (एषः) सत्यमार्गप्रकाशः (ते) तव (योनिः) स्थानमिव (वैश्वानराय) विश्वेषां नराणां नायकाय=सत्यप्रकाशकाय (त्वा) त्वाम् (ध्रुवम्) निश्चयम् (ध्रुवेण) निष्कम्पेण (मनसा) अन्तःकरणेन (वाचा) वाण्या (सोमम्) सकलजगतः प्रसवितारम् (अव) (नयामि) स्वीकरोमि (अथ) अनन्तरम् (नः) अस्माकम् (इन्द्रः) सर्वदुःखविदारकः (इत्) एव (विश:) प्रजा: (असपत्ना:) अजातशत्रवः (समनसः) समानं मनः = स्वांतं यासां ताः (करत्) करोतु। लेट्प्रयोगोऽयम्।। अयं मन्त्रः शत० ४ । २ । ४ । २४ व्याख्यातः ॥ २५ ॥
भावार्थः
यो नित्यानां नित्यो ध्रुवाणामपि ध्रुवः परमेश्वरस्तस्य सर्वजगत्प्रेरकस्य प्राप्त्या योगाभ्यासानुष्ठानेन चैव विज्ञानं जायते, नान्यथा ।। ७ । २५ ।।
भावार्थ पदार्थः
अच्युतानाम्=नित्यानाम्।
विशेषः
भरद्वाजः। वैश्वानरः=ईश्वरः॥ याजुष्यनुष्टुप्। गान्धारः। ध्रुवोसित्यस्य ध्रुवमित्यस्य च विराडार्षी बृहती। मध्यमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अगले मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है॥
पदार्थ
हे परमेश्वर! आप (उपयामगृहीतः) शास्त्रप्राप्त नियमों से स्वीकार किये जाते (असि) हैं, ऐसे ही (ध्रुवः) स्थिर (असि) हैं कि (ध्रुवक्षितिः) जिन आप में भूमि स्थिर हो रही है और (ध्रुवाणाम्) स्थिर आकाश आदि पदार्थों में (ध्रुवतमाः) अत्यन्त स्थिर (असि) हैं तथा (अच्युतानाम्) जगत् का अविनाशी कारण और अनादि सिद्ध जीवों में (अच्युतक्षित्तमः) अतिशय करके अविनाशीपन बसाने वाले हैं। (एषः) यह सत्य के मार्ग का प्रकाश (ते) आप के (योनिः) निवास-स्थान के समान है। (वैश्वानराय) समस्त मनुष्यों को सत्य मार्ग में प्राप्त कराने वाले वा इस राज्यप्रकाश के लिये (ध्रुवेण) दृढ़ (मनसा) मन और (वाचा) वाणी से (सोमम्) समस्त जगत् के उत्पन्न कराने वाले (त्वा) आप को (ध्रुवम्) निश्चयपूर्वक जैसे हो वैसे (अवनयामि) स्वीकार करता हूं। (अथ) इसके अनन्तर (इन्द्रः) सब दुःख के विनाश करने वाले आप (नः) हमारे (विशः) प्रजाजनों को (असपत्नाः) शत्रुओं से रहित और (समनसः) एक मन अर्थात् एक दूसरे के चाहने वाले (इत्) ही (करत्) कीजिये॥२५॥
भावार्थ
जो नित्य पदार्थों में नित्य और स्थिरों में भी स्थिर परमेश्वर है, उस समस्त जगत् के उत्पन्न करने वाले परमेश्वर की प्राप्ति और योगाभ्यास के अनुष्ठान से ही ठीक-ठीक ज्ञान हो सकता है, अन्यथा नहीं॥२५॥
विषय
भरद्वाज का प्रभुभजन [ उपासना व प्रेम ]
पदार्थ
गत मन्त्र का ‘भरद्वाज’ प्रस्तुत मन्त्र में निम्न शब्दों में प्रभु का उपासन करता है— १. हे प्रभो! ( उपयामगृहीतः असि ) = उपासना के द्वारा यम-नियमों के धारण से आप गृहीत होते हो, अर्थात् वही व्यक्ति आपका ग्रहण कर पाता है जो प्रातः-सायं आपके चरणों में बैठकर यम-नियमों को अपनाने का प्रयत्न करता है।
२. ( ध्रुवः असि ) = हे प्रभो। आप ध्रुव हो! ( ध्रुवक्षितिः ) = [ ध्रुवाः क्षितयो यस्मिन् ] आपमें ही ये सब लोक-लोकान्तर ध्रुव हैं, स्थिर हैं। ( ध्रुवाणां ध्रुवतमः ) = हे प्रभो! आप ध्रुवों में भी ध्रुव हो। ( अच्युतानाम् ) = [ च्युतिर क्षरणे ] न नष्ट होनेवालों में ( अच्युतक्षित्तमः ) = आप अत्यन्त अविनश्वर निवासवाले हो। प्रकृति अविनश्वर है, परन्तु यह सदा विकृत होती रहती है। ‘प्रकृति-विकृति’ यह इसका क्रम ही हो गया है। जीव भी अविनश्वर है, परन्तु यह भी विविध भूमिकाओं में जाता रहता है। कभी गौ है तो कभी घोड़ा, कभी कोई पशु-पक्षी और कभी मनुष्य। प्रभु सदा ‘एकरस’ हैं, स्थाणु हैं, अचल हैं। उस अचल प्रभु में ही ये चलाचल लोक ध्रुव-से होकर रह रहे हैं। ‘अच्युतानाम्’—इस मन्त्रभाग में यह भावना भी निहित है कि वे प्रभु न डिगनेवाले हैं। किसी के बहकाने से वे बहक जाएँगे ऐसी बात नहीं है। मनुष्यों की भाँति वे कान के कच्चे नहीं हैं। वे अपनी व्यवस्था के अनुसार चलते हैं, सभी का भला चाहते हैं।
२. भरद्वाज प्रभु से कहते हैं कि ( एषः ते योनिः ) = यह मेरा हृदय तेरा घर है। मैं चाहता हूँ कि मेरा हृदय आपका मन्दिर हो। मैं उसे निर्मल व प्रकाशमय करने का प्रयत्न करूँ। ( वैश्वानराय त्वा ) = हे प्रभो! मैं आपको अपने हृदय-मन्दिर में इसलिए बिठाता हूँ कि मुझमें सब मनुष्यों के हित की भावना प्रबल हो।
३. ( ध्रुवम् ) = अत्यन्त स्थिर ( सोमम् ) = अत्यन्त शान्त आपको ( ध्रुवेण मनसा ) = स्थिर मन से, निरुद्ध चित्तवृत्तिवाले चित्त से तथा ( वाचा ) = ज्ञानपरिपूर्ण वेदवाणी से ( अवनयामि ) = अपने में अवतरित करने का प्रयत्न करता हूँ।
४. ( अथ ) = अब, जब मैं निरुद्धवृत्तिवाले मन से और ज्ञान की वाणियों से प्रभु को अपने हृदय-मन्दिर में अवतीर्ण करता हूँ, तब ( इन्द्रः ) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु ( नः विशः ) = हम प्रजाओं को ( इत् ) = निश्चय से ( असपत्नाः ) = सपत्नशून्य, शत्रुरहित और ( समनसः ) = समान मनवाला ( करत् ) = करे। वस्तुतः जब हमारे हृदयों में प्रभु का निवास होता है, उस समय परस्पर विरोध सम्भव ही नहीं। प्रभु-स्मरण करनेवाले लोग परस्पर मैत्री से चलते हैं, उनमें वैरभाव नहीं होता।
भावार्थ
भावार्थ — प्रभु यम-नियमों के पालन से गृहीत होते हैं। उस ध्रुवों में ध्रुव प्रभु को हम ध्रुव मन से ही प्राप्त कर सकते हैं। उस प्रभु का हृदय में प्रकाश होने पर सब वैरभाव समाप्त हो जाते हैं और प्रेम का प्रसार होता है। एवं, प्रस्तुत मन्त्र में १. प्रभु के स्वरूप का प्रतिपादन है, २. प्रभु-प्राप्ति के उपाय का वर्णन है, ३. और प्रभु-प्राप्ति के लाभों का उल्लेख है।
विषय
सम्राट् का अभिषेक।
भावार्थ
हे सम्राट् ! पूर्व मन्त्र में कहे सर्वोपरि विराजमान पुरुष ! तु भी ( उपयानगृहीतः असि ) समस्त राज्यव्यवस्था के नियमों में बद्ध है । तू ( ध्रुवः असि ) तू ध्रुव, स्थिर है, तुझे शत्रुगण उखाड़ नहीं सकते । तू ( ध्रुवक्षिति:) ध्रुव, स्थिर निवासवाला हो अथवा तेरे अधीन यह भूमि सदा स्थिररूप से रहे । तू ( ध्रुवाणां ध्रुवतमः ) समस्त स्थिर, अचलरूप से रहनेवालों में सबसे अधिक स्थिर, प्रतिष्टित, है । तू ( अच्युतक्षित् तमः ) शत्रुओं के आक्रमणों से भी अपने आसन से च्युत न होनेवाले, न विनष्ट होनेवाले राजाओं में से भी सबसे अधिक दृढ़ है । (एषः ते योनिः ) यह तेरा पद या प्रतिष्ठा स्थान है। हे उत्तम पुरुष ! (त्वा) तुझको मैं (वैश्वानराय ) समस्त प्रजाओं के नेतृ पद पर नियुक्त करता हूँ । ( ध्रुवेण मनसा ) मैं ध्रुव, स्थिर चित्त से और ( वाचा ) वाणी से ( सोमम् ) सबके प्रेरक, प्रर्वतक राजा को ( अवनयामि ) अभिषिक्त करता हूं, पद पर प्रतिष्टित करता हूं । ( अथ ) अब इसके पश्चात् ( नः इन्द्रः ) तू हमारा इन्द्र, ऐश्वर्यवान् राजा होकर ( इत् ) ही ( विशः ) समस्त प्रजाओं को (असपत्नाः ) शत्रुरहित, ( समनसः ) समान चित्त वाला, प्रेमयुक्त ( करतू ) करे, बनावे || शत० ४ । २ । ३ । २४ ॥
ईश्वर पक्ष में- हे ईश्वर ! तू यम नियमों से, शास्त्र सिद्धान्तों से स्वीकृत । ध्रुव, स्थिर अविनाशी है । आकाश, काल, आत्मा आदि अविनाशी पदार्थों में स्वयं अविनाशी होकर उनमें व्यापक है । उसको मैं एकाग्रचित्त से सबके सोम, सर्व उत्पादक और प्रेरक आनन्दरस रूप से ध्यान करूं । वह हम सबको प्रेममय एक चित्त बनावे।
टिप्पणी
१ उपयामगृहीतोऽसि २ ध्रुवोऽसि ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वैश्वानरो देवता । ( १ ) याजुषी अनुष्टुप् । गान्धारः । ( २ ) विराड् आर्षी बृहती मध्यमः ॥
विषय
अब ईश्वर के गुणों का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ
हे परमेश्वर ! आप (उपयामगृहीतः) यम और नियमों से ग्रहण करने के योग्य (असि) हो, (ध्रुव:) स्थिर (असि) हो, (ध्रुवक्षितिः) सब भूमियाँ आप में स्थिर हैं, (ध्रुवाणाम्) आकाश आदि स्थिर पदार्थों में (ध्रुवतमः) अत्यन्त स्थिर आप ही हो, और (अच्युतानाम्) कारण द्रव्य और जीवों के (अच्युतक्षित्तमः) सर्वथा निवास स्थान (असि) आप ही हो । और— (एषः) यह सत्य मार्ग का प्रकाश (ते) आपके (योनिः) स्थान के समान है, इस (वैश्वानराय)सब नरों के नायक सत्यप्रकाश की प्राप्ति के लिये (ध्रुवेण) स्थिर (मनसा) अन्तःकरण से तथा स्थिर (वाचा) वाणी से (सोमम्) सकल जगत् के उत्पादक आपको मैं (ध्रुवम्) निश्चयपूर्वक (अवनयामि) स्वीकार करता हूँ। (अथ) और (इन्द्रः) सब दुःखों का विदारक करने वाले आप (नः) हमारी (विशः) प्रजा को (असपत्नाः) शत्रुरहित तथा (समनसः) समान मन वाली (इद्) ही (करत्) कीजिये ॥ ७ । २५ ।।
भावार्थ
जो नित्य पदार्थों में नित्य और स्थिर पदार्थों में सब से अधिक स्थिर परमेश्वर है, उस सब जगत् के उत्पादक ईश्वर की प्राप्ति और योगाभ्यास के अनुष्ठान से ही विज्ञान की उत्पत्ति होता है, अन्यथा नहीं ।। ७ । २५ ।।
प्रमाणार्थ
(करत्) यह लेट् लकार का प्रयोग है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( ४ । २ । ४ । २४) में की गई है ।। ७ । २५ ।।
भाष्यसार
ईश्वर के गुण--परमेश्वर यम-नियमों से ग्रहण करने के योग्य है, स्थिर है, पृथिवी आदि स्थिर पदार्थ उसी में स्थिर हैं, आकाश आदि स्थिर पदार्थों में सबसे अधिक स्थिर है, कारण अर्थात् प्रकृति और जीव जो नित्य पदार्थ हैं उन सबसे अधिक नित्य है, अर्थात् कभी विकारभाव को प्राप्त नहीं होता और कभी शरीर धारण नहीं करता। कारण (प्रकृति) और जीवों का निवास-स्थान है। सत्य मार्ग का प्रकाश उसका स्थान है। सब नरों के नायक एवं सत्य के प्रकाशक परमेश्वर को अचल अन्तःकरण से तथा अचल (स्थिर) वाणी से सकल जगत् के उत्पादक परमेश्वर को निश्चय से प्राप्त करें। सब दुःखों का विदारण करने वाला परमेश्वर प्रजा को शत्रु-रहित तथा एक मन (विचार) वाली करे ।। ७ । २५ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
जो नित्य पदार्थात नित्य आहे व स्थिर पदार्थामध्ये स्थिर आहे व ज्याने जगाला उत्पन्न केले आहे अशा परमेश्वराची प्राप्ती व योगाभ्यासाच्या अनुष्ठानाने खरे खरे ज्ञान होऊ शकते. अन्यथा ज्ञानप्राप्ती होऊ शकत नाही.
विषय
पुढील मंत्रात ईश्वराच्या गुणांचे वर्णन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे परमेश्वरा, तू (उपयामगृहीत:) शास्त्रामध्ये वर्णित नियमांनी युक्त (असिम) आहेस. तू (ध्रुव:) स्थिर (असि) आहेस. (तूच सर्वत्र व्यापक असल्यामुळे तुझ्यात गती, हालचाल संभवत नाही) तू इतका व असा स्थिर आहेस की (ध्रुवक्षिति:) ही भूमी तुझ्यातच स्थिर आहे (तुझ्यामुळे अवकाशात अधरात स्थित आहे) तूच (ध्रुवाणाम्) स्थिर आकाश आदी पदार्थांमध्ये (ध्रुवतमा:) अत्यन्त स्थिर (असि) आहेस. तूच (अच्युतानाम्) अविनाशी जगताचे कारण असून अनादीसिद्ध जीवांना (अच्युतक्षितम:) अतिनशित्व देणारा आहेस. (एषु:) हा सत्यमार्गाचा प्रकाश (ते) तुझ्या (योनि:) निवासस्थानाप्रमाणे आहे. (तू सत्य असून संसारातील सर्व सत्य पदार्थांचा तूच एक आधार आहेस) (वैश्वानराय) सर्व मनुष्यांना सत्यमार्गावर नेणार्या तुला या सत्याच्या प्रकाश-विस्तारासाठी मी (तुझा उपासक) (भुंवण) दृढ (मनसा) मनाने आणि (वाचा) वाणीने ग्रहण करतो (तुला उपासनीय व वर्णनीय मानतो) तसेच (सोमम्) सकल जगदुत्पादक अशा (त्वा) तुला (ध्रुवम्) निश्चम् निश्चयपूर्वक तसाच (अर्थात् सत्य, सत्यप्रेरक, उपास्थ व जगत्-उत्पादक) (अवनयामि) मानतो व स्वीकार करतो. (अथ) यानंतर प्रार्थना अशी की (इन्द्र:) हे इन्द्र, दु:खविनाशका, (न:) आमच्या (विश:) प्रजाजनांना (असपन्ना:) शत्रुविरहित कर. (प्रजाजनांतील, माणसामाणसातील शत्रुत्व दूर कर) आणि सर्वांना (समनस:) एकमन अर्थात एकमेकास सुख देणारे वा एकमेकासाठी सुख इच्छिणारें (इत्) (करत्) कर. ॥25॥
भावार्थ
भावार्थ - जो परमेश्वर नित्य पदार्थांत नित्य आणि स्थिर पदार्थात स्थिर आहे, त्या सर्व जग उत्पन्न करणार्या ईश्वराचे सत्य ज्ञान योगाभ्यासाच्या अनुष्ठानानेच शक्य आहे, अन्य मार्गाने कदापि नव्हे ॥25॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O God, Thou art realised through spiritual knowledge, Thou art unchangeable, the earth rests in thee, Thou art firmest amongst the firm substances like sound and space, Thou art most immortal amongst the immortal, Thou art the fountain of the light of truth. I constantly, with a determined mind and voice accept Thee, as leader of humanity on the path of righteousness, and Creator of the universe. So now may Thou, the dispeller of all miseries, make our people all of one heart and mind, and free from foes.
Meaning
Vaishwanara, Lord Supreme of the world, Indra, Lord of power and glory, Soma, Lord Creator and giver of peace and joy, you can be reached through the discipline of ‘yams’ and ‘niyamas’, rules of social and personal ethics ranging from love and non-violence to total surrender to you. You are firm, inviolable base of the stability of the stars and planets, firmest of the firm, most imperishable of the imperishables (i. e. , above the original prakrti and the souls). This universe and the laws of existence are pervaded by you — they are like your universal home. Life and light of the world, Lord of peace and joy, firm and eternal, to you, with a mind of inviolable faith, in words of sincerity, we surrender in obedience and homage. Lord of power and glory, let our people be free of all enemies, let our nation be of one and equal mind.
Translation
You have been duly accepted. You are firm, having a firm base, firmest among the firm, most securely set even among those who are never shaken. (1) This is your abode. You to the benefactor of all реорlе. (2) I accept with unshaken mind and speech the everunshaken blissful Lord. (3) Now may the resplendent Lord make our all people of one mind and heart, and free from enemies. (4)
Notes
Acyutaksittama, best among those who are set firm and can never be shaken. Asapatnah, free from rivals or enemies.
बंगाली (1)
विषय
অথেশ্বরগুণা উপদিশ্যন্তে ॥
এখন পরবর্ত্তী মন্ত্রে ঈশ্বরের গুণের উপদেশ করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে পরমেশ্বর ! আপনি (উপয়ামগৃহীতঃ) শাস্ত্রপ্রাপ্ত নিয়ম পূর্বক স্বীকৃত (অসি) আছেন, এইরকম (ধ্রুবঃ) স্থির (অসি) আছেন যে, (ধ্রুবক্ষিতিঃ) যে আপনাতে ভূমি স্থির হইতেছে এবং (ধ্রুবাণাম্) স্থির আকাশাদি পদার্থে (ধ্রুবতমাঃ) অত্যন্ত স্থির (অসি) আছেন তথা (অচ্যুতানাম্) অবিনাশী জগতের কারণ এবং অনাদি সিদ্ধ জীবে (অচ্যুতক্ষিত্তমঃ) অতিশয় করিয়া অবিনাশিত্ব নিবাস করাইয়াছেন (এষঃ) এই সত্য মার্গের প্রকাশ (তে) আপনার (য়োণিঃ) নিবাস-স্থানের সমান (বৈশ্বানরায়) সমস্ত মনুষ্যদিগকে সত্য মার্গে প্রাপ্ত করাইবার অথবা এই রাজ্যপ্রকাশ হেতু (ধ্রুবেণ) দৃঢ় (মনসা) মন ও (বাচা) বাণী দ্বারা (সোমম্) সমস্ত জগৎ উৎপন্নকারী (ত্বা) আপনাকে (ধ্রুবম্) নিশ্চয়পূর্বক যেমন, তেমনই (অবনয়মি) স্বীকার করি (অথ) ইহার পরে (ইন্দ্রঃ) সকল দুঃখের বিনাশকারী আপনি (নঃ) আমাদের (বিশঃ) প্রজাগণকে (অসপত্নাঃ) শত্রুদের হইতে রহিত এবং (সমনসঃ) এক মন অর্থাৎ একে অন্যের কামনাকারী (ইৎ) ই (করৎ) করুন ॥ ২৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যিনি নিত্য পদার্থে নিত্য এবং স্থিরদিগের মধ্যে স্থির পরমেশ্বর, সেই সমস্ত জগৎ উৎপন্নকারী পরমেশ্বরের প্রাপ্তি এবং যোগাভ্যাসের অনুষ্ঠান দ্বারাই সঠিক জ্ঞান হইতে পারে, অন্যথা নহে ॥ ২৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতোऽসি ধ্রু॒বো᳖ऽসি ধ্রু॒বক্ষি॑তির্ধ্রু॒বাণাং॑ ধ্রু॒বত॒মোऽচ্যু॑তানামচ্যুত॒ক্ষিত্ত॑মऽএ॒ষ তে॒ য়োনি॑র্বৈশ্বান॒রায়॑ ত্বা । ধ্রু॒বং ধ্রু॒বেণ॒ মন॑সা বা॒চা সোম॒মব॑ নয়ামি । অথা॑ ন॒ऽইন্দ্র॒ऽইদ্বিশো॑ऽসপ॒ত্নাঃ সম॑নস॒স্কর॑ৎ ॥ ২৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
উপয়ামগৃহীত ইত্যস্য ভরদ্বাজ ঋষিঃ । বৈশ্বানরো দেবতো । য়াজুষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ । ধ্রুবোऽসীত্যস্য ধ্রুবমিত্যস্য চ বিরাডার্ষী বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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