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यजुर्वेद अध्याय - 7

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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 21
    ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप्,याजुषी जगती स्वरः - धैवतः, निषादः
    80

    सोमः॑ पवते॒ सोमः॑ पवते॒ऽस्मै ब्रह्म॑णे॒ऽस्मै क्ष॒त्राया॒स्मै सु॑न्व॒ते यज॑मानाय पवतऽइ॒षऽऊ॒र्जे प॑वते॒ऽद्भ्यऽओष॑धीभ्यः पवते॒ द्यावा॑पृथि॒वाभ्यां॑ पवते सुभू॒ताय॑ पवते॒ विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्य॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒र्विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यः॑॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोमः॑। प॒व॒ते॒। सोमः॑। प॒व॒ते॒। अ॒स्मै। ब्रह्म॑णे। अ॒स्मै। क्ष॒त्राय॑। अ॒स्मै। सु॒न्व॒ते। यज॑मानाय। प॒व॒ते॒। इ॒षे। ऊ॒र्ज्जे। प॒व॒ते॒। अ॒द्भ्यऽइत्य॒त्ऽभ्यः। ओष॑धीभ्यः। प॒व॒ते॒। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। प॒व॒ते॒। सु॒भूतायेति॑ सुऽभू॒ताय॑। प॒व॒ते॒। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑ ॥२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमः पवते सोमः पवतेस्मै ब्रह्मणेस्मै क्षत्रायास्मै सुन्वते यजमानाय पवतऽइष ऊर्जे पवतेद्भ्य ओषधीभ्यः पवते द्यावापृथिवीभ्याम्पवते सुभूताय पवते विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यऽएष ते योनिर्विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सोमः। पवते। सोमः। पवते। अस्मै। ब्रह्मणे। अस्मै। क्षत्राय। अस्मै। सुन्वते। यजमानाय। पवते। इषे। ऊर्ज्जे। पवते। अद्भ्यऽइत्यत्ऽभ्यः। ओषधीभ्यः। पवते। द्यावापृथिवीभ्याम्। पवते। सुभूतायेति सुऽभूताय। पवते। विश्वेभ्यः। त्वा। देवेभ्यः। एषः। ते। योनिः। विश्वेभ्यः। त्वा। देवेभ्यः॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 21
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ राजकृत्यमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वांसः! यथाऽयं सोमोऽस्मै ब्रह्मणे पवतेऽस्मै क्षत्राय पवतेऽस्मै सुन्वते यजमानाय पवत इष ऊर्ज्जे पवतेऽद्भ्य ओषधीभ्यः पवते द्यावापृथिवीभ्यां पवते सुभूताय पवते, तद्वत् सोमः सभ्यजनः प्रजाजनोऽप्येतस्मै सर्वस्मै पवताम्। हे राजन्! यस्य ते तवैष योनिरस्ति, तं त्वां विश्वेभ्यो देवेभ्यो वयं स्वीकुर्म्मस्तथा विश्वेभ्यो गुणेभ्यश्च त्वा त्वामङ्गीकुर्महे॥२१॥

    पदार्थः

    (सोमः) सोम्यगुणसम्पन्नो राजा (पवते) विजानीयात्, लेट्प्रयोगः (सोमः) राजसभायाः सभासत् प्रजाजनो वा (पवते) पूतो भवेत् (अस्मै) प्रत्यक्षाय (ब्रह्मणे) परमेश्वराय वेदाय वा (अस्मै) (क्षत्राय) राज्याय क्षत्रियाय वा (अस्मै) (सुन्वते) सर्वविद्यासिद्धान्तं निष्पादयते (यजमानाय) संगच्छमानाय (पवते) (इषे) अन्नाय (ऊर्ज्जे) पराक्रमाय (पवते) (अद्भ्यः) जलेभ्यः प्राणेभ्यो वा (ओषधीभ्यः) सोमादिभ्यः (पवते) (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्य्यभूमिभ्याम् (पवते) (सुभूताय) सुष्ठु सत्याय व्यवहाराय (पवते) (विश्वेभ्यः) समस्तेभ्यः (त्वा) त्वाम् (देवेभ्यः) दिव्येभ्यो गुणेभ्यः (एषः) राजधर्म्मगुणग्रहणम् (ते) तव (योनिः) वसतिः (विश्वेभ्यः) अखिलेभ्यः (त्वा) त्वाम् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। २। २। १२-१६॥ तथा ब्रा॰ ३। १-९) व्याख्यातः॥२१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा चन्द्रलोकः सर्वस्मै जगते हितकारी वर्त्तते, यथा च राजा सभ्यजनप्रजाजनाभ्यां सह तदुपकाराय धर्म्मानुकूलं व्यवहारमाचरति, तथैव सभ्यजनप्रजाजनौ राज्ञा सह वर्त्तेताम्। य उत्तमव्यवहारगुणकर्म्मानुष्ठाता भवति, स एव राजा सभ्यजनश्च न्यायाधीशो भवितुमर्हति। यो धर्म्मात्मा जनः स एव प्रजायामग्र्यो गुणनीयोऽस्त्येवमेते त्रयः परस्परं प्रीत्या पुरुषार्थेन विद्यादिगुणेभ्यः पृथिव्यादिपदार्थेभ्यश्चाखिलं प्राप्तुं शक्नुवन्ति॥२१॥

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    विषयः

    अथ राजकृत्यमाह ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे विद्वांसः! यथाऽयं सोमः सोम्यगुणसम्पन्नो राजा अस्मै प्रत्यक्षाय ब्रह्मणे परमेश्वराय वेदाय वा पवते विजानीयात्, अस्मै क्षत्राय राज्याय क्षत्रियाय वा पवते पूतो भवेत्,अस्मै सुन्वते सर्वविद्यासिद्धान्तं निष्पादयते यजमानाय सङ्गच्छमानाय पवते, इषे अन्नाय ऊर्ज्जेपराक्रमाय पवते, अद्भ्यः जलेभ्य: प्राणेभ्यःओषधीभ्यः सोमादिभ्यः पवते, द्यावापृथिवीभ्यां सूर्य्यभूमिभ्यां पवते, सुभूताय सुष्ठुसत्याय व्यवहाराय पवते, तद्वत् सोमः सभ्यजनः प्रजाजनः राजसभायाः सभासत् प्रजाजनो वा अप्येतस्मै सर्वस्मै पवताम्। हे राजन् ! यस्य ते=तव एष: राजधर्मगुणग्रहणं योनिः वसतिः अस्ति, तं=[त्वा] त्वां विश्वेभ्यः समस्तेभ्यः देवेभ्यः विद्वद्भ्य वयं स्वीकुर्मः, तथा विश्वेभ्य: अखिलेभ्यः [देवेभ्यः] गुणेभ्यश्च दिव्येभ्यो गुणेभ्य: त्व=त्वामङ्गीकुर्महे ।। ७ । २१ ।। [हे विद्वांसः! यथाऽयं सोमोऽस्मै ब्रह्मणे पवते......सुभूताय पवते, तद्वत् सोमः=सभ्यजनः प्रजाजनोऽप्येतस्मै सर्वस्मै पवताम्]

    पदार्थः

    (सोमः) सोम्यगुणसम्पन्नो राजा (पवते) विजानीयात्। लेट्प्रयोग: (सोमः)राजसभायाः सभासत् प्रजाजनो वा (पवते) पूतो भवेत् (अस्मै) प्रत्यक्षाय (ब्रह्मणे) परमेश्वराय वेदाय वा (अस्मै) (क्षत्राय) राज्याय क्षत्रियाय वा (अस्मै) (सुन्वते) सर्वविद्यासिद्धान्तं निष्पादयते (यजमानाय) संगच्छमानाय (पवते) (इषे) अन्नाय (उर्ज्जे) पराक्रमाय (पवते) (अद्भ्यः) जलेभ्यः प्राणेभ्यो वा (ओषधीभ्यः) सोमादिभ्यः (पवते) (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्य्यभूमिभ्याम् (पवते) (सुभूताय) सुष्ठुसत्याय व्यवहाराय (पवते) (विश्वेभ्यः) समस्तेभ्यः (त्वा) त्वाम् (देवेभ्यः) दिव्येभ्यो गुणेभ्य: (एषः) राजधर्मगुणग्रहणम् (ते) तव (योनिः) वसतिः (विश्वेभ्यः) अखिलेभ्यः (त्वा) त्वाम् (देवेभ्यः) विद्वद्भयः।। अयं मन्त्रः श० ४ । २ । १२-१६ तथा ब्रा० ३ । १-९ व्याख्यातः॥ २१ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः।। यथा चन्द्रलोकः सर्वस्यै जगते हितकारी वर्त्तते, यथा च राजा सभ्यजनप्रजाजनाभ्यां सह तदुपकारायधर्मानुकूलं व्यवहारमाचरति तथैव सभ्यजनप्रजाजनौ राज्ञा सह वर्त्तेताम्। य उत्तमव्यवहारगुणकर्म्मानुष्ठाता भवति, स एव राजा सभ्यजनश्च न्यायाधीशो भवितुमर्हति, यो धर्मात्मा जनः स एव प्रजायामग्र्यो गणनीयोऽस्त्येवमेते त्रयः परस्परं प्रीत्या पुरुषार्थेन विद्यादिगुणेभ्यः पृथिव्यादिपदार्थेभ्यश्चाखिलं सुखं प्राप्तुं शक्नुवन्ति ।। ७ । २१।।

    भावार्थ पदार्थः

    सोमः=चन्द्रलोकः। पवते=हितकारी भवति। सुभूताय=धर्मानुकूल-व्यवहाराय ।।

    विशेषः

    वत्सारः काश्यपः। सोमो:=सोम्यगुणगसम्पन्नो राजा।। स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप्। धैवतः। एष त इत्यस्य याजुषी जगती । निषादः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब राजा का कर्म्म अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् लोगो! जैसे यह (सोमः) सोम्यगुण सम्पन्न राजा (अस्मै) इस (ब्रह्मणे) परमेश्वर वा वेद को जानने के लिये (पवते) पवित्र होता है, (अस्मै) इस (क्षत्राय) क्षत्रिय धर्म के लिये (पवते) ज्ञानवान् होता है, (अस्मै) इस (सुन्वते) समस्त विद्या के सिद्धान्त को निष्पादन (यजमानाय) और उत्तम संग करने हारे विद्वान् के लिये (पवते) निर्मल होता है, (इषे) अन्न के गुण और (ऊर्ज्जे) पराक्रम के लिये (पवते) शुद्ध होता है, (अद्भ्यः) जल और प्राण वा (ओषधीभ्यः) सोम आदि ओषधियों को (पवते) जानता है, (द्यावापृथिवाभ्यीम्) सूर्य्य और पृथिवी के लिये (पवते) शुद्ध होता है, (सुभूताय) अच्छे व्यवहार के लिये (पवते) बुरे कामों से बचता है, वैसे (सोमः) सभाजन वा प्रजाजन सबको यथोक्त जाने-माने और आप भी वैसा पवित्र रहे। हे राजन् सभ्यजन वा प्रजाजन! जिस (ते) आप का (एषः) यह राजधर्म्म (योनिः) घर है, उस (त्वा) आप को (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये तथा (त्वा) आप को (विश्वेभ्यः) सम्पूर्ण दिव्यगुणों के लिये हम लोग स्वीकार करते हैं॥२१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे इन्द्रलोक सब जगत् के लिये हितकारी होता है और जैसे राजा सभा के जन और प्रजाजनों के साथ उनके उपकार के लिये धर्म्म के अनुकूल व्यवहार का आचरण करता है, वैसे ही सभ्य पुरुष और प्रजाजन राजा के साथ वर्त्तें। जो उत्तम व्यवहार, गुण और कर्म का अनुष्ठान करने वाला होता है, वही राजा और सभा-पुरुष न्यायकारी हो सकता है तथा जो धर्मात्मा जन है, वही प्रजा में अग्रगण्य समझा जाता है। इस प्रकार ये तीनों परस्पर प्रीति के साथ पुरुषार्थ से विद्या आदि गुण और पृथिवी आदि पदार्थों से अखिल सुख को प्राप्त हो सकते हैं॥२१॥

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    विषय

    पवित्रता

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र की मुख्य भावना यह है कि प्रभु ही सब यज्ञों के पति हैं। वस्तुतः जीव से समय-समय पर किये जानेवाले सब यज्ञों को करने की शक्ति उसे प्रभु ही देते हैं। प्रभु ने हमारे शरीरों में सोम-निर्माण की व्यवस्था की है। यह ( सोमः ) = सोम ( पवते ) = हमारे जीवनों को पवित्र करता है। इस वीर्य के द्वारा शरीर नीरोग रहता है, मन बुराइयों से बचा रहता है और मस्तिष्क दीप्त ज्ञानाग्निवाला बनता है। एवं, सोम शरीर, मन व मस्तिष्क सभी को पवित्र बनाता है। 

    २. ( अस्मै ब्रह्मणे ) = इस ज्ञान के लिए ( सोमः ) = सोम ( पवते ) = हमें पवित्र करता है, ( अस्मै क्षत्राय ) = इन क्षतों से त्राण करनेवाले, रोगों के आघातों से बचानेवाले, बल के लिए यह सोम हमें पवित्र करता है तथा ( अस्मै सुन्वते यजमानाय ) = इस ऐश्वर्य का सम्पादन करनेवाले [ सुवानाय ] यजमान के लिए यह सोम हमें पवित्र करता है। इस सोम की रक्षा से जहाँ हम ऐश्वर्य कमाने की योग्यतावाले होते हैं, वहाँ उसका यज्ञों में विनियोग करने की रुचिवाले होते हैं। 

    ३. यह सोम ( पवते ) = हममें गति करता हुआ हमारे जीवनों को पवित्र बनाता है, जिससे ( इषे ) = हम प्रभु की प्रेरणा को सुननेवाले बनें और ( ऊर्जे ) = बल तथा प्राणशक्ति से युक्त होकर उस प्रेरणा को क्रियारूप में ला सकें।

    ४. यह सोम हमारे अन्दर ( अद्भ्यः ) = जलों से तथा ( ओषधीभ्यः ) = वनस्पतियों से ही ( पवते ) = पवित्रता का सञ्चार करता है। जलों व वनस्पतियों से उत्पन्न वीर्य ही सात्त्विक वीर्य है। वही हमारे जीवनों को पवित्र करता है। मांसाहार से उत्पन्न वीर्य इस पवित्रता का साधक नहीं होता। इसे वेद में उष्णं वाः = उष्ण वीर्य कहा गया है और इसका शरीर में सुरक्षित होना सुगम नहीं है। 

    ५. यह जलों व ओषधियों से उत्पन्न सोम ( द्यावापृथिवीभ्याम् ) = हमारे मस्तिष्करूप द्युलोक को ज्योतिर्मय तथा शरीररूप पृथिवी को दृढ़ बनाने के लिए ( पवते ) = हममें गति करता है। 

    ६. इस प्रकार ( सुभूताय ) = यह सोम उत्तम स्थिति के लिए अथवा उत्तम ऐश्वर्य के लिए ( पवते ) = हममें गति करता है। 

    ७. ठीक-ठीक बात यह है कि यह सोम ( विश्वेभ्यः देवेभ्यः ) = सब दिव्य गुणों के लिए ( त्वा ) = तुझे ( पवते ) = पवित्र कर देता है। 

    ८. ( एषः ते योनिः ) = यह सोम ही तेरी सब उन्नतियों का कारण है। यही ( त्वा ) = तुझे ( विश्वेभ्यः देवभ्यः ) = सब दिव्य गुण प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — शरीर के अन्दर जलों व ओषधियों से उत्पन्न वीर्य ‘ज्ञान-बल-ऐश्वर्य’ को बढ़ानेवाला होता है। यह शरीर व मस्तिष्क दोनों को सुन्दर बनाता हुआ सब दिव्य गुणों को प्राप्त कराता है।

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    विषय

    सोम राजा का वर्णन।

    भावार्थ

     ( सोमः ) सर्वप्रेरक राजा ( पवते ) अपने कार्य में और सूर्य के समान राष्ट्र के सब कार्यों में प्रवृत्त होता और अन्यों को भी प्रेरित करता है । ( सोमः पवते ) राजा, सोम अर्थात् चन्द्र के समान या वायु के समान सर्वत्र जाता है । ( अस्मै ब्रह्मणे ) महान् परमेश्वर के बनाये नियम, वेद और ब्रह्मचर्य के पालन कराने ब्रह्म अर्थात् ब्राह्मण, विद्वान प्रजा के लिये, ( अस्मै क्षत्राय ) इस क्षत्र वीर्यवान् क्षत्रिय, वीर प्रजा के लिये, और ( अस्मै सुन्वते यजमानाय ) इस समस्त विद्याओं के सिद्धान्तों को प्रकट करनेहारे विद्या आदि प्रदान करनेवाले, सर्वसम्मत विद्वान् या ब्रह्मोपासक पुरुष की रक्षा और वृद्धि के लिये ( पवते ) राज्य में उद्योग करता है । वह राजा और विद्वान् पुरुष अपने राष्ट्र में ( इषे ऊर्जे ) अन्न उत्पन्न करने और उससे बल प्राप्त करने के लिये ( पवते ) उद्योग करता है । वह ( अद्भ्यः ओषधीभ्यः पवते ) उत्तम जल और उत्तम औषधियों के संग्रह के लिये उद्योग करता है । ( द्यावापृथिवीभ्याम् पवते ) द्यौ, सूर्य के प्रकाश, एवं उत्तम वृष्टि और पृथिवी के उत्तम पदार्थों की उन्नति के लिये अथवा, आकाश और पृथिवी दोनों के बीच में विद्यमान समस्त ऐश्वयों के लिये उत्तम पिता और माता स्त्री और पुरुषों की उन्नति के लिये पवते ) चेष्टा करता है। वह ( सुभूताय पवते ) उत्तम भूति, ऐश्वर्य की प्राप्ति, सबके उत्तम उपकार और उत्तम सन्तान की उन्नति के लिये उद्योग करता है । हे राजन् ! (त्वा) तुझको हम ( विश्वेभ्यः देवेभ्यः ) समस्त देवों, राजाओं, विद्वानों, शासकों एवं वायु, विद्युत् अग्नि, सूर्य, चन्द्र आदि दिव्य पदार्थों के उपकार और सद् उपयोग के लिये स्थापित करता हूं । ( ते एपः योनिः ) तेरा यह आश्रय स्थान, पद या आसनहै ( विश्वेभ्यः देवेभ्यः त्वा ) समस्त देवों, उत्तम विद्वान्, सत्पुरुषों के लिये तुझे नियुक्त करता हूं ।श० ४ । २ । २ । ११-१६ ॥ 

    टिप्पणी

     १ सोमः पवते। २ एष ते योनिर्विश्र्वेभ्यस्त्वा।
    २१ अस्मै ब्रह्मणो  पवर्तेऽस्मै क्षत्राय पवतेऽस्मै सु० ० सुभूताय पवते ब्रह्मव-  र्चसाय पवते । इति काण्व ० ॥ 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोमो देवता । ( १ ) स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् धैवतः । ( २ ) जगती । निषादः ॥

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    विषय

    अब राजा के कर्म का उपदेश किया जाता है ।।

    भाषार्थ

    हे विद्वानो ! जैसे यह (सोमः) सौम्य गुण से भूषित राजा (अस्मै) इस (ब्रह्मणे) परमेश्वर वा वेद को (पवते) जाने, (अस्मै) इस (क्षत्राय) राज्य वा क्षत्रियों की रक्षा के लिये (पवते) पवित्र आचरण वाला हो, (अस्मै) इस (सुन्वते) सब विद्याओं के सिद्धान्त को जानने वाले (यजमानाय) एवं संगतिकारक विद्वान् को (पवते) यज्ञ से पवित्र करता है, (इषे) अन्न और (ऊर्जे) पराक्रम को (पवते) पवित्र करता है, (अद्भ्यः) जल वा प्राणों तथा (ओषधीभ्यः) सोम आदि औषधियों को (पवते) पवित्र करता है, (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्य और भूमि को (पवते) पवित्र करता है, (सुभूताय) उत्तम सत्य व्यवहार के लिये स्वयं (पवते) पवित्र रहता है, वैसे (सोमः) राजसभा के सभासद वा प्रजाजन भी इन सब को पवित्र करें तथा स्वयं पवित्र रहें। हे राजन् ! (ते) आपका (एषः) यह राजधर्म ही (योनिः) निवास है, इसलिए (त्वा) आपको (विश्वेभ्यः) सब (देवेभ्यः) विद्वानों के सत्कार के लिये हम स्वीकार करते हैं तथा (विश्वेभ्यः) सब (देवेभ्यः) दिव्य गुणों को ग्रहण करने के लिये (त्वा) आप को अङ्गीकार करते हैं ।। ७ । २१ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचक लुप्तोपमा अलङ्कार है॥जैसे चन्द्रलोक सब जगत् के लिये हितकारी है, और जैसे राजा सभा-जनों और प्रजाजनों के साथ उनके उपकार के लिये धर्मानुकूल व्यवहार करता है, वैसे ही सभाजन और प्रजाजन राजा के साथ व्यवहार करें ।
    जो उत्तम व्यवहार, गुण और कर्मों का आचरण करने वाला है, वही राजा, सभा का सदस्य और न्यायाधीश हो सकता है, जो धर्मात्मा पुरुष हो वही प्रजा में अग्रगण्य है, इस प्रकार ये तीनों परस्पर प्रीतिपूर्वक पुरुषार्थ से विद्या आदि गुण और पृथिवी आदि पदार्थों से सब सुख प्राप्त कर सकते हैं ।। ७ । २१ ।।
     

    प्रमाणार्थ

    (पवते) विजानीयात् । यह लेट् लकार का प्रयोग है। इस मन्त्र की व्याख्या शत०ब्रा० (४ । २ । २ । १२-१६ तथा ३ । १-९) में की गई है ।। ७ । २१ ।।

    भाष्यसार

    १. राजा के कर्म--सौम्य गुण से युक्त राजा परमेश्वर और वेद को जाने, राज्य और क्षत्रिय जनों की रक्षा के लिये पवित्र आचरण वाला हो, जैसे चन्द्रलोक सब जगत् के लिए हितकारी है, वैसे सब का हित करे, राजा राजसभा के सदस्य और प्रजाजनों के साथ उनके उपकार के लिये धर्मानुकूल आचरण करे तथा वे भी राजा के साथ ऐसा ही व्यवहार करें। सब विद्या के सिद्धान्तों के मर्मज्ञ यज्ञ करने वाले विद्वानों का हित करे, यज्ञ से अन्न, बल, जल, प्राण, औषधि, सूर्य, भूमि को पवित्र करे अपने सत्य व्यवहार से सबको पवित्र करे, राजा के समान सभा के सदस्य और प्रजाजन भी अपने आचरण से सब को पवित्र करें। प्रजाजन उसे ही राजा तथा न्यायाधीश मानें, जो उत्तम व्यवहार और उत्तम गुण कर्मों वाला हो, प्रजा में जो धर्मात्मा हो, उसे ही अग्रणी बनावें । राजा राजधर्म आदि गुणों को ही अपना घर समझे अर्थात् सदा उनमें निवास करे और उक्त दिव्य गुणों के कारण सभासद, प्रजाजन उसे राजा स्वीकार करें। सार यह है कि जब राजा, राजसभा के सदस्य और प्रजाजन ये तीनों परस्पर प्रीतिपूर्वक मिलकर चलते हैं, तभी अखिल सुख को प्राप्त करते हैं, अन्यथा नहीं । २.अलङ्कार - मन्त्र में उपमावाचक 'इव' आदि शब्द लुप्त होने से वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है।। उपमा यह है कि राजा के समान सभा के सदस्य और प्रजाजन भी सबको पवित्र करें, सबका हित सम्पादन करें ।। ७ । २१ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा चंद्र सर्व जगासाठी हितकारी असतो व राजा सभासद आणि प्रजा यांच्यावर उपकार करण्यासाठी धर्मानुकूल व्यवहार करतो तसाच व्यवहार सभ्य पुरुष व प्रजा यांनी राजाबरोबर करावा. जो उत्तम व्यवहार, गुणकर्माचे अनुष्ठान करणारा असतो. तोच राजा व सभा-पुरुष न्यायी असू शकतो. जो धर्मात्मा असतो तोच प्रजेमध्ये अग्रगण्य समजला जातो. याप्रमाणे परस्पर प्रेम व पुरुषार्थाने विद्या इत्यादी प्राप्त करून पृथ्वीपासून संपूर्ण सुख प्राप्त करू शकता येते.

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    विषय

    पुढील मंत्रात राजाच्या कर्त्तव्यांचे कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वज्जनहो, हा (सोम:) सौम्यगुणयुक्त राजा (अस्मै) या ब्रह्मणे) परमेश्वर वा वेदांच्या ज्ञानप्राप्तीसाठी यज्ञ करणार्‍या ज्ञानी मनुष्यासाठी (पवते) पवित्र होतो (विद्वानांसाठी अनुकुल होऊन त्यांच्या ज्ञानसंपादन कार्यात सहायकारी होतो.) हा राजा (अस्मै) या (क्षत्राय) क्षात्रधर्मासाठी (पवते) ज्ञानवान होतो (वा आहे) (अस्मै) या सुन्वते) विद्यासंपादन, आणि सिद्धांत-शोध करणार्‍या (यजमानाय) संगतीस योग्य अशा उत्तम विद्वानासाठी हा राजा (पवते) निर्मळ हृदय होतो वा आहे, (इषे) राज्यात अन्नाची वृद्धी आणि (ऊर्ज्जे) पराक्रमाच्या उन्नत्तीसाठी (पवते) पवित्रतेने कार्य करीत आहे. हा निपुण राजा (अद्भ्य:) जलाचा/प्राणाचा व (ओषधीभ्य:) सोम आदी औषधींचा (पवते) ज्ञाता आहे (जल व वनस्पतींच्या गुणांना ओळखून त्यांचा उपयोग करण्यात कुशल आहे) (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्य आणि पृथ्वीसाठी हा (पवते) शुद्ध आहे (त्यांचा यथोचित उपयोग घेत आहे) (सुभूताय) उत्तम आचरणासाठी झटणारा आणि (पवते) दुष्कर्मापासून दूर राहणारा आहे. सर्व सभासद आणि प्रजाजन यांच्यासाठीही हेच उचित आहे की त्यांनीही (सोम:) राजाला यथोचितरुपाने जाणावे व उचित मान-आदर द्यावा. हे राजन्, सभाअन आणि प्रजाजन, (स्व:) हा राजधर्म (ते) आपल्या सर्वांचे (योनि:) घर (वा कार्यक्षेत्र) आहे. (त्वा) आपणा सर्वांना आम्ही (नागरिकजन) (विश्वेभ्य:) संपूर्ण दिव्यगुणांच्या प्राप्तीसाठी आपला स्वीकार करतो. (राजा, सभासद आणि विद्वान यांना सर्व नागरिकांनी आदर्श नेता मानून त्यांच्या मार्गाने चालावे.) ॥21॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे चंद्र सर्व जगाकरिता हितकारी आहे आणि राजा हा सभाजन व प्रजाजनांकरिता उपकारक, धर्मानुकुल आचरण करणारा असतो, त्याचप्रमाणे सभाजनांनी व प्रजाजनांनी राजाशी त्याचरितीने वागावे उत्तम आचरण करणारा, उत्तम गुण ग्रहण करणारा आणि उत्तम कर्म करणारा सभासद तसेच राजा न्यायकारी असू शकतो. त्याचप्रमाणे जे धर्मात्मा पुरूष आहे तोच प्रजाजनांमध्ये अग्रगण्य व अनुकरणीय मानला जातो. तात्पर्य हे की या तिघांनी जर एकमेकांशी प्रेमपूर्ण आचरण व प्रामाणिक पुरुषार्थभाव ठेवला, तरच ते सर्व विद्येपासून सर्व गुणाची तसेच पृथ्वी आदी पदार्थांची प्राप्ती करू शकतात आणि अखिल सुख उपभोगू शकतात ॥21॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned people, just as the amiable ruler purifies himself for knowing God and the Veda, tries to acquire military knowledge, makes strenuous efforts for the advancement of scholars and friends of learning, is eager to produce foodstuffs which add to our vitality, exerts for the collection of medicines and canalizing waters, desires for the light of the sun and improvement of all material objects, avoids vice to acquire virtue, so should ye and other citizens do. O ruler, successful administration is thy aim. We honour thee for the betterment of the learned, and noble qualities of thine.

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    Meaning

    Soma flows. Soma flows and is purified. Soma is purified and is offered for sacrifice. So does the ruler flow, issues in action, and, through action, is purified, sanctified, self-sacrificed. The ruler is sanctified and dedicated to the Brahmana sub-system (learning, education and research), to the Kshatra sub-system (defence and governance), to the devoted yajamana, participant in the creative activities of the system, for food and energy, for waters, herbs and vegetation, for earth and heaven, for good life and conduct, for all the noble people of the land. Ruler of the nation, this life, this land, this socio¬ political system is your haven and your justification. You are accepted, sanctified and honoured for all the noble people.

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    Translation

    The blissful Lord purifies. The blissful Lord purifies for this intellectual's sake, for this administrator-solider’s sake, for sake of this sacrificer who presses out juices. He purifies for food, for vigour; purifies for waters and plants; purifies for earth and heaven; purifies for general well-being. (1) He purifies for you all the Nature's bounties. (2) This is your abode. You to all the bounties of Nature. (3)

    Notes

    Mahidhara while explaining this mantra, translates soma as 'Soma-juice' and pavate as ‘goes into cups’. Subhiitaya, for general well-being.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ রাজকৃত্যমাহ ।
    এখন রাজার কর্ম পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্বান্গণ ! যেমন এই (সোমঃ) সৌম্যগুণসম্পন্ন রাজা (অস্মৈ) এই (ব্রহ্মণে) পরমেশ্বর ও বেদজ্ঞাতা (পবতে) পবিত্র হয় (অস্মৈ) এই (ক্ষত্রায়) ক্ষত্রিয় ধর্ম হেতু (পবতে) জ্ঞানবান হয় (অস্মৈ) এই (সুন্বতে) সমস্ত বিদ্যার সিদ্ধান্তকে নিষ্পাদন (য়জমানায়) এবং উত্তম সঙ্গী বিদ্বান্দিগের জন্য (পবতে) নির্মল হয় (ইষে) অন্নের গুণ ও (ঊর্জ্জে) পরাক্রম হেতু (পবতে) শুদ্ধ হয় । (অদ্ভ্যঃ) জল ও প্রাণ অথবা (ওষধীভ্যঃ) সোমাদি ওষধিসকলকে (পবতে) জানে (দ্যাবাপৃথিবাভ্যাম্) সূর্য্য ও পৃথিবী হেতু (পবতে) শুদ্ধ হয় । (সুভূতায়) ভাল ব্যবহার হেতু (পবতে) মন্দ কর্ম্ম হইতে রক্ষা করে । সেইরূপ (সোমঃ) সভ্যগণ ও প্রজাগণও সকলকে যথোক্ত জানুক এবং আপনিও পবিত্র থাকুন । হে রাজন্, সভ্যগণ অথবা প্রজাগণ । (তে) আপনার (এষঃ) এই রাজধর্ম্ম (য়োণিঃ) গৃহ । সেই (ত্বা) আপনাকে (বিশ্বেভ্যঃ) সমস্ত (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্দিগের জন্য তথা (ত্বা) আপনাকে (বিশ্বেভ্যঃ) সম্পূর্ণ দিব্যগুণের জন্য আমরা স্বীকার করি ॥ ২১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন চন্দ্রলোক সকল জগতের জন্য হিতকারী হয় এবং যেমন রাজা সভ্যগণ ও প্রজাগণ সহ তাদের উপকার হেতু ধর্ম্মানুকূল ব্যবহারের আচরণ করেন সেইরূপই সভ্য পুরুষ ও প্রজাগণ রাজা সহ ব্যবহার করিবে । যিনি উত্তম ব্যবহার গুণ ও কর্মের অনুষ্ঠান করিয়া থাকেন তিনি রাজা ও সভ্যপুরুষ ন্যায়কারী হইতে পারিবেন এবং যিনি ধর্মাত্মা তিনি প্রজামধ্যে অগ্রগণ্য বলিয়া বিবেচিত হয় । এই ভাবে ইহারা তিনজন পরস্পর প্রীতি সহ পুরুষার্থ দ্বারা বিদ্যাদি গুণ ও পৃথিবী প্রভৃতি পদার্থ দ্বারা অখিল সুখ প্রাপ্ত হইতে পারেন ॥ ২১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সোমঃ॑ পবতে॒ সোমঃ॑ পবতে॒ऽস্মৈ ব্রহ্ম॑ণে॒ऽস্মৈ ক্ষ॒ত্রায়া॒স্মৈ সু॑ন্ব॒তে য়জ॑মানায় পবতऽই॒ষऽঊ॒র্জে প॑বতে॒ऽদ্ভ্যऽওষ॑ধীভ্যঃ পবতে॒ দ্যাবা॑পৃথি॒বীভ্যাং॑ পবতে সুভূ॒তায়॑ পবতে॒ বিশ্বে॑ভ্যস্ত্বা দে॒বেভ্য॑ऽএ॒ষ তে॒ য়োনি॒র্বিশ্বে॑ভ্যস্ত্বা দে॒বেভ্যঃ॑ ॥ ২১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সোমঃ পবত ইত্যস্য বৎসারঃ কাশ্যপ ঋষিঃ । সোমো দেবতা । স্বরাট্ ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ । এষ ত ইত্যস্য য়াজুষী জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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