यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 3
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - विद्वांसो देवता
छन्दः - विराट ब्राह्मी जगती,
स्वरः - निषादः
101
स्वाङ्कृ॑तोऽसि॒ विश्वे॑भ्यऽइन्द्रि॒येभ्यो॑ दि॒व्येभ्यः॒ पार्थि॑वेभ्यो॒ मन॑स्त्वाष्टु॒ स्वाहा॑ त्वा सुभव॒ सूर्या॑य दे॒वेभ्य॑स्त्वा मरीचि॒पेभ्यो॒ देवा॑शो॒ यस्मै॒ त्वेडे॒ तत्स॒त्यमु॑परि॒प्रुता॑ भ॒ङ्गेन॑ ह॒तोऽसौ फट् प्रा॒णाय॑ त्वा व्या॒नाय॑ त्वा॥३॥
स्वर सहित पद पाठस्वाङ्कृ॑त॒ इति॒ स्वाम्ऽकृ॑तः। अ॒सि॒। विश्वे॑भ्यः। इ॒न्द्रि॒येभ्यः॑। दि॒व्येभ्यः॑। पार्थि॑वेभ्यः। मनः॑। त्वा॒। अ॒ष्टु॒। स्वाहा॑। त्वा॒। सु॒भ॒वेति॑ सुऽभव। सूर्य्या॑य। दे॒वेभ्यः॑। त्वा॒। म॒री॒चि॒पेभ्य॒ इति॑ मरीचि॒ऽपेभ्यः॑। देव॑। अ॒शो॒ऽइत्य॑ऽशो॒। यस्मै॑। त्वा॒। ईडे॑। तत्। स॒त्यम्। उ॒प॒रि॒प्रुतेत्यु॑परि॒ऽप्रुता। भ॒ङ्गेन॑। ह॒तः। अ॒सौ। फट्। प्रा॒णाय॑। त्वा॒। व्या॒नायेति॑ विऽआ॒नाय॑। त्वा॒ ॥३॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वाङ्कृतोसि विश्वेभ्यऽइन्द्रियेभ्यो दिव्येभ्यः पार्थिवेभ्यो मनस्त्वाष्टु स्वाहा त्वा सुभव सूर्याय । देवेभ्यस्त्वा मरीचिपेभ्यो देवाँशो यस्मै त्वेडे तत्सत्यमुपरिप्रुता भङ्गेन हतोसौ फट्प्राणाय त्वा व्यानाय त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
स्वाङ्कृत इति स्वाम्ऽकृतः। असि। विश्वेभ्यः। इन्द्रियेभ्यः। दिव्येभ्यः। पार्थिवेभ्यः। मनः। त्वा। अष्टु। स्वाहा। त्वा। सुभवेति सुऽभव। सूर्य्याय। देवेभ्यः। त्वा। मरीचिपेभ्य इति मरीचिऽपेभ्यः। देव। अशोऽइत्यऽशो। यस्मै। त्वा। ईडे। तत्। सत्यम्। उपरिप्रुतेत्युपरिऽप्रुता। भङ्गेन। हतः। असौ। फट्। प्राणाय। त्वा। व्यानायेति विऽआनाय। त्वा॥३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनरात्मकृत्यमाह॥
अन्वयः
हे अंशो देव दिव्यात्मन्! यस्त्वं दिव्येभ्यो विश्वेभ्य इन्द्रियेभ्यः पार्थिवेभ्यो मरीचिपेभ्यो देवेभ्यस्स्वाङ्कृतोसि, तं त्वां मनः स्वाहा चाष्टु। हे सुभव! यस्मै सूर्य्याय चराचरात्मने परमेश्वराय त्वामहमीडे, तत्सत्यं परेशं गृहाणोपरिप्रुतेव येन त्वया भङ्गेनासौ शत्रुः फड्ढतस्तं त्वा त्वां प्राणायेडे व्यानाय त्वा त्वामीडे॥३॥
पदार्थः
(स्वाङ्कृतः) स्वयंकृत इव (असि) (विश्वेभ्यः) समस्तेभ्यः (इन्द्रियेभ्यः) श्रोत्रादिभ्यः (दिव्येभ्यः) दिवि भवेभ्यः (पार्थिवेभ्यः) पृथिव्यां विदितेभ्यः (मनः) शुद्धं विज्ञानम् (त्वा) त्वाम् (अष्टु) व्याप्नोतु (स्वाहा) वेदोक्ता वाक् (त्वा) त्वाम् (सुभव) भवतीति भवः, शोभनश्चासौ भवश्च सुभवस्तत्संबुद्धौ (सूर्य्याय) सवित्रे (देवेभ्यः) शोधकेभ्यो वाय्वादिभ्यः (त्वा) त्वाम् (मरीचिपेभ्यः) किरणरक्षितृभ्य इव (देव) दिव्यात्मन् (अंशो) सूर्य्यवत् प्रकाशमान (यस्मै) (त्वा) त्वाम् (ईडे) स्तौमि (तत्) (सत्यम्) (उपरिप्रुता) उपरि प्रवते यस्तेन (भङ्गेन) मर्दनेन (हतः) नष्टः (असौ) शत्रुः (फट्) विशीर्णः (प्राणाय) जीवनहेतवे (त्वा) (व्यानाय) विविधमानयति यस्मा इव (त्वा) त्वाम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। १। १। २२-२८) व्याख्यातः॥३॥
भावार्थः
स्वयंभूभिर्जीवैर्देहप्राणेन्द्रियान्तःकरणानि निर्मलीकृत्य धर्म्यव्यापारेषु प्रवर्त्त्य परमेश्वरोपासने च संस्थाय, पुरुषार्थेन दुष्टान् हत्वा श्रेष्ठान् रक्षित्वानन्दितव्यमिति॥३॥
विषयः
पुनरात्मकृत्यमाह ॥
सपदार्थान्वयः
हे अंशो! सूर्यवत् प्रकाशमान देव!=दिव्यात्मन् ! यस्त्वं दिव्येभ्यः दिवि भवेभ्यः विश्वेभ्यः समस्तेभ्यः इन्द्रियेभ्यः श्रोत्रादिभ्यः पार्थिवेभ्यः पृथिव्यां विदितेभ्यः मरीचिपेभ्यः किरणरक्षितृभ्य इव देवेभ्यः शोधकेभ्यो वाय्वादिभ्यः स्वाङ्कृतः स्वयंकृत इव असि,तं [त्वा]=त्वां मनः शुद्धं विज्ञानं स्वाहा वेदोक्ता वाक् चाष्टु व्याप्नोतु। हे सुभव! भवतीति भवः शोभनश्चासौ भवश्च सुभवस्तत्सम्बुद्धौ! यस्मै सूर्याय=चराचरात्मने परमेश्वराय सवित्रे [त्वा]= त्वामहमीडे स्तौमि, तत्सत्यं=परेशं गृहाण, उपरिप्रुतेव उपरि प्रवते यस्तेन येन त्वया भङ्गेन मर्दनेन असौ=शत्रुः फट् विशीर्णः हतः नष्टः तं त्वा=त्वां प्राणाय जीवनहेतवे ईडे स्तौमि, व्यानाय विविधमानयति यस्मा इव त्वा=त्वाम् ईडे स्तौमि ॥ ७ । ३॥ [हे अंशो देव=दिव्यात्मन्! यस्त्वं दिव्येभ्यो विश्वेभ्य इन्द्रियेभ्यः, पार्थिवेभ्यः......देवेभ्य: स्वाङ्कृतोऽसि, तं [त्वा]=त्वां मनः स्वाहा चाष्टु,......सूर्याय=चराचरात्मने परमेश्वराय [त्वा]=त्वामहमीडे, येन त्वया भङ्गेनासौ शत्रुः फड्ढतस्तं त्वा=त्वां प्राणायेडे]
पदार्थः
(स्वाङ्कृतः) स्वयंकृत इव (असि) (विश्वेभ्यः) समस्तेभ्यः (इन्द्रियेभ्यः) श्रोत्रादिभ्यः (दिव्येभ्यः) दिवि भवेभ्यः (पार्थिवेभ्यः) पृथिव्यां विदितेभ्यः (मनः) शुद्धं विज्ञानम् (त्वा) त्वाम् (अष्टु) व्याप्नोतु (स्वाहा) वेदोक्ता वाक् (त्वा) त्वाम् (सुभव) भवतीति भवः शोभनश्चासौ भवश्व सुभवस्तत्संबुद्धौ (सूर्य्याय) सवित्रे (देवेभ्यः) शोधकेभ्यो वाय्वादिभ्यः (त्वा) त्वाम् (मरीचिपेभ्यः) किरणरक्षितृभ्य इव (देव) दिव्यात्मन् (अंशो) सूर्य्यवत् प्रकाशमान (यस्मै) (त्वा) त्वाम् (ईडे) स्तौमि (तत्) (सत्यम्) (उपरिप्रुता) उपरि प्रवते यस्तेन (भंगेन) मर्दनेन (हतः) नष्टः (असौ) शत्रुः (फट्) विशीर्ण:(प्राणाय) जीवनहेतवे (त्वा) (व्यानाय) विविधमानयति यस्मा इव (त्वा) त्वाम्॥ अयम्मन्त्रः शत० ४।१।१ ।२२-२८ व्याख्यातः ॥ ३॥
भावार्थः
स्वयंभूमिर्जीवैर्देहप्राणेन्द्रियान्तःकरणानि निर्मलीकृत्य, धर्म्यव्यापारेषु प्रवर्त्त्य, परमेश्वरोपासने च संस्थाय, पुरुषार्थेन दुष्टान् हत्वा श्रेष्ठान् रक्षित्वानन्दितव्यमिति ॥ ७ । ३ ॥
विशेषः
गोतमः। विद्वांसः=स्पष्टम्॥ विराट् ब्राह्मी जगती । निषादः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर अगले मन्त्र में आत्मक्रिया का निरूपण किया है॥
पदार्थ
हे (अंशो) सूर्य्य के तुल्य प्रकाशमान! जो तू (दिव्येभ्यः) दिव्य (विश्वेभ्यः) समस्त (पार्थिवः) पृथिवी पर प्रसिद्ध (इन्द्रियेभ्यः) इन्द्रियों और (मरीचिपेभ्यः) किरणों के समान पवित्र करने वाले (देवेभ्यः) विद्वानों और वायु आदि पदार्थों के लिये (स्वाङ्कृत) स्वयंसिद्ध (असि) है, उस (त्वा) तुझ को (मनः) विज्ञान और (स्वाहा) वेद वाणी (अष्टु) प्राप्त हों। हे (सुभव) श्रेष्ठ गुणवान्! (यस्मै) जिस (सूर्य्याय) सर्वप्रेरक चराचरात्मा परमेश्वर के लिये (त्वा) तेरी (ईडे) प्रशंसा करता हूं, तू भी (तत्) उस प्रशंसा के योग्य (सत्यम्) सत्य परमात्मा को प्रीति से ग्रहण कर (उपरिप्रुता) सबसे उत्तम उत्कर्ष पाने हारे तूने (भङ्गेन) मर्दन से (असौ) यह अज्ञानरूप शत्रु (फट्) झट (हतः) मारा उस (त्वा) तुझे (प्राणाय) जीवन के लिये प्रशंसित करता और (व्यानाय) विविध प्रकार के सुख प्राप्त करने के लिये (त्वा) तुझे प्रशंसा देता हूं॥३॥
भावार्थ
जीव आप ही स्वयंसिद्ध अनादिरूप है, इनसे इनको चाहिये कि देह, प्राण, इन्द्रियों और अन्तःकरण को निर्मल धर्म्मयुक्त व्यवहारों में प्रवृत्त होकर, परमेश्वर की उपासना में स्थिर हों तथा पुरुषार्थ से दुष्टों को झट-पट मार और भलों की रक्षा करके आनन्दित रहें॥३॥
विषय
सोम
पदार्थ
गत मन्त्र में वर्णित ( सोम ) = उस शान्तात्मा प्रभु को पाने के लिए शरीर में सोम [ वीर्य ] की रक्षा आवश्यक है, अतः प्रस्तुत मन्त्र में उसी का वर्णन करते हैं— १. ( स्वाङ्कृतोऽसि ) = तू स्वयंकृत है, अर्थात् प्रभु-निर्मित व्यवस्था के अनुसार हमारे किसी प्रयत्न के बिना तू शरीर में स्वयं उत्पन्न होता है। तू ( विश्वेभ्यः इन्द्रियेभ्यः ) = इन्द्र की सब शक्तियों के लिए उत्पन्न किया गया है [ इन्द्रिय = इन्द्र की शक्ति ]। चाहे वे शक्तियाँ ( दिव्येभ्यः ) = द्युलोक अर्थात् मस्तिष्क-सम्बन्धी हों और चाहे ( पार्थिवेभ्यः ) = वे शक्तियाँ पृथिवी अर्थात् शरीर-सम्बन्धी हों, अर्थात् इस सोम के द्वारा मस्तिष्क व शरीर दोनों का ही विकास होता है। ज्ञानाग्नि दीप्त होती है, शरीर स्वस्थ होता है।
२. इस सोम की रक्षा से ( मनः ) = ज्ञान ( त्वा ) = तुझे ( अष्टु ) = व्याप्त करे। ( स्वाहा ) = अतः इस सोम की रक्षा के लिए तू सुन्दरता से उस प्रभु के नाम का उच्चारण कर [ सु आह ]।
३. हे ( सुभव ) = उत्तम सात्त्विक अन्नों से उत्पन्न होनेवाले सोम! मैं ( सूर्याय ) = अपने मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञानसूर्य के उदय के लिए ( त्वा ) = तुझे सुरक्षित करता हूँ। ( मरीचिपेभ्यः ) = ज्ञान की किरणों का पान करने के लिए मैं तुझे अपने में धारण करता हूँ।
४. हे ( देव ) = सब दिव्य गुणों को जन्म देनेवाले ( अंशो ) = शत्रुओं का भेदन करनेवाले सोम! ( यस्मै ) = जिस उद्देश्य से ( त्वा ईडे ) = मैं तेरी [ प्रशंसा = स्तुति ] करता हूँ ( तत् सत्यम् ) = वह मेरा उद्देश्य सत्य हो, अर्थात् मेरी वह कामना पूर्ण हो। मेरी वह कामना यह है कि तेरे ( उपरिप्रुता ) = [ उपरि प्रवते ] ऊर्ध्व गतिवाले ( भङ्गेन ) = शत्रुमर्दक बल से ( असौ ) = वह अज्ञानरूप शत्रु ( फट् ) = झट ( हतः ) = मारा जाए, अर्थात् सोम की ऊर्ध्वगति से मुझमें वह शक्ति उत्पन्न हो कि मैं ज्ञान पर पर्दा डाल देनेवाली सब वासनाओं को नष्ट कर डालूँ।
५. हे सोम! ( प्राणाय ) = मैं शरीर में प्राणशक्ति की वृद्धि के लिए ( त्वा ) = तुझे स्वीकार करता हूँ। ( व्यानाय त्वा ) = मैं तुझे व्यानशक्ति की वृद्धि के लिए स्वीकार करता हूँ। प्राणशक्ति की वृद्धि से मैं नीरोग बनूँगा, और व्यानशक्ति की वृद्धि से मैं शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग पर काबू पाऊँगा। ऐसा होने पर मैं वस्तुतः ‘गोतम’ प्रशस्तेन्द्रिय बनता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ — सोम की रक्षा से मेरे मस्तिष्क व शरीर दोनों का विकास होता है, वासना का विनाश होकर प्राण व व्यानशक्ति बढ़ती है।
विषय
राजा का सूर्य के समान पद।
भावार्थ
हे राजन् ! ( इन्द्रियेभ्यः ) इन्द्रियों के हित के लिये जिस प्रकार आत्मा ( दिव्येभ्यः ) आकाश या प्रकाशमान कोकों के लिये जिस प्रकार सूर्य स्वयं अपने तेज से प्रकाशमान है उसी प्रकार ( पार्थिवेभ्यः ) पृथिवी के निवासी राजागण या प्रजा लोगों के हित के लिये तू (स्वाङ्कृतः ) स्वयं अपने सामर्थ्य से राजा बनाया गया ( असि ) है । (त्वा मनः अष्टु) तुझे मन अर्थात् शुद्धविज्ञान प्राप्त हो । अथवा तुझे मननशील मन्त्री प्राप्त हो । अथवा जिस प्रकार समस्त चक्षु आदि इन्द्रियों पर मन अधिष्ठाता है उसी प्रकार समस्त लोकों पर सनके समान, सर्वविचारक और प्रेरक पद तुझे प्राप्त हो । हे ( सुभव ) उत्तम सामर्थ्य से युत्क उत्तम कुलजात ! उत्तम पद पर विराजमान! हे सुजात ! मैं विद्वान् पुरुष (त्वा ) तुझको ( सूर्याय ) सूर्य के पद के लिये नियुक्त करता हूँ। अर्थात् सूर्य जिस प्रकार तेजस्वी और आकर्षक होकर सब ग्रहों को प्रकाशित और व्यवस्थित करता है उसी प्रकार समस्त प्रजा और शासकों को व्यवस्थित करने के लिये तुझे वरता हूं। और ( मरीचिपेन्यः देवेभ्यः ) मरीचि, किरणों से जिस प्रकार सूर्य पृथिवी के जलों को चूस लेता है उसी प्रकार अपने मरीचि मृत्युदायक, त्रासकारी साधनों से प्रजा के अन्न धनों को चूसनेवाले 'देव' विजुगीष राजाओं के लिये, उन पर वश करने के लिये भी ( त्वा ) तुझे नियुक्त करता हूं । हे ( देव ) देव ! राजन् ! हे ( अंशो ) अंशो ! हे प्रजापते ! (यस्मै ) जिस कारण से ( त्वा ईडे ) मैं तेरी स्तुति करता हूं या तेरी मैं इतनी प्रतिष्ठा करता हूं ( तत् ) वह तेरा ( सत्यम् ) सत्य है, सत्य का पालन न्यायस्थापन तेरा धर्म या व्रताचरण ही है । अर्थात् राजा राष्ट्र के सत्यधर्म या कानून का पालन करता है, उसका यह सत्यपालन का कर्त्तव्य ही उसकी स्तुति और पूजा का कारण है । और ( उपरिप्रुता ) सत्य की मर्यादा को लांघजाने वाले ( भङ्गो न ) नियमोलङ्नन व सत्य के रोद डालने से ( हतः ) ताड़ित होकर (असो) अमुक असत्य मार्गगामी, विपरीत राजा ( फट् ) विघ्वंस होने योग्य है, उसे मार दिया जाय । हे राजन् ( त्वा ) तुझको ( प्राणाय ) शरीर में प्राण के समान राष्ट्र में समस्त कार्यों के सचालन के लिये और (त्वा) तुझको ( व्यानाय ) शरीर में विभक्त होकर नाना कर्मेन्द्रियों के चालक व्यान के समान राष्ट्र में विविध कार्यों के चलने के लिये नियुक्त करता हूँ ।। शत० ४।१। १ । २२-२८ ॥
मरीचिपेभ्यः -- मृड़ प्राण त्यागे ( तुदादिः ) अस्मादीचिः ( उणा० ) 'अंशो'---प्राण एवांशुरुदानोऽदाभ्यः । चक्षुः एवाशुः श्रोत्रमदाभ्यः प्रजापांतिर्वा
एप यदंशुः । श० ४ । ६ । १। १ ॥ अंशुवैं नामग्रह स प्रजापतिः८।१।१ ।२॥ सोऽस्य एष आत्मैय ४।६।२।१ ॥ सत्यम्' त्रयी सा विद्या तत्सत्यम् श०८।५।१।१८ ॥स्त्यं वा ऋतम् । श० ७ । ३ । १ । २३ ॥ यौ वै धर्मः सत्यं वै तत् । सत्यं वदन्तमाहुर्धर्म वदतीति । धर्म वा वदन्तं सत्यं वदतीति । श० १४ । ४ । २ । २६ ॥ समूलो ह वा एष परिशुष्यति य एवानृतं वदति ॥ बृहदा० उप० ॥
टिप्पणी
३- 'स्वां० सूर्याय ' अस्य उपांशुर्देवता । 'देवे अभ्यः इत्यस्य देवाः, फडन्तस्य सोमांशुः । प्राणाय त्वेत्यस्य ग्रहः । त्र्यानापत्वे त्यभ्योपांशुर्देवता । सर्वा० । '० स्वभवस्सुर्णाय ' ० यस्मै त्वेळे० ॥ परिप्लुता ० इति काण्व० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विद्वांसो देवता: । विराड् ब्राह्मी जगती । निपादः ॥
विषय
फिर इस मंत्र में आत्मक्रिया का निरूपण किया है॥
भाषार्थ
हे (अंशो) सूर्य के समान प्रकाशमान (देव) दिव्य गुणों से युक्त जीवात्मन् ! जो आप (दिव्येभ्यः) दिव्य (विश्वेभ्यः) सब (इन्द्रियेभ्यः) श्रोत्र आदि इन्द्रियों से तथा (पार्थिवेभ्यः) पृथिवी लोक में प्रसिद्ध (मरीचिपेभ्यः) किरणों के रक्षक (देवेभ्यः) शोधक वायु आदि से (स्वाङ्कृतः) स्वयं बनाये हुये से (असि) हो, उक्त गुणों से युक्त [त्वा] आप को (मनः) शुद्ध विज्ञान और (स्वाहा) वेदोक्त वाणी (अष्टु) प्राप्त हो। हे (सुभव) श्रेष्ठ गुणों से विभूषित विद्वन् ! (यस्मै) जिससे (सूर्याय) चराचर के आत्मा, सकल जगत् के उत्पादक परमेश्वर को जानने के लिये [त्वा] आपकी मैं (ईडे) स्तुति करता हूँ (तत्) उस (सत्यम्) सत्य-स्वरूप परमेश्वर को ग्रहण कराओ, (उपरिप्रुतेव) सबके ऊपर विराजमान आपके (भङ्गेन) मर्दन से (असौ) वह शत्रु (फट्) निर्बल होकर (हतः) नष्ट होता है। इसलिये (त्वा) आपकी (प्राणाय) जीवन प्राप्ति के लिये (ईडे) स्तुति करता हूँ, (व्यानाय) विविध गुणों की प्राप्ति के लिये (त्वा) आपकी (ईडे) स्तुति करता हूँ॥ ७।३।।
भावार्थ
स्वयंभू जीव, देह, प्राण, इन्द्रिय और अन्तःकरण को निर्मल करके, उन्हें धर्म-कार्यों में लगाकर और परमेश्वर की उपासना में स्थित होकर, पुरुषार्थ से दुष्टों का नाश और श्रेष्ठों की रक्षा करके सदा आनन्द में रहें ।। ७ । ३ ।।
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।१।१।२२–२८) में की गई है। ७।३॥
भाष्यसार
जीवात्मा के कर्म--दिव्य गुणों से युक्त जीवात्मा सूर्य के समान प्रकाशमान है। यह दिव्य गुणों से युक्त सब श्रोत्र आदि इन्द्रियों से तथा पृथिवी लोक में प्रसिद्ध, किरणों के रक्षक,शुद्धिकारक वायु आदि पदार्थों से बना हुआ-सा दिखाई देता है, वास्तव में वह इन्द्रियों से पृथक् वायु आदि पदार्थों से भी नहीं बना हुआ है। वह स्वयंभू है। मन अर्थात् शुद्ध विज्ञान और देववाणी को जीवात्मा प्राप्त करता है। वह स्वयंभू जीवात्मा देह, प्राण, इन्द्रिय और अन्तःकरण को निर्मल करके तथा उन्हें धर्म-कार्यों में लगाकर, चराचर के आत्मा, सकल जगत् के उत्पादक परमेश्वर की उपासना में स्वयं स्थित होकर उस सत्यस्वरूप परब्रह्म को प्राप्त करता है। यह जीवात्मा सब जड़ पदार्थों के ऊपर विराजमान होकर अपने पुरुषार्थ से दुष्टों की हिंसा और श्रेष्ठों की रक्षा करके सदा आनन्द में रहता है। जीवन के हेतु, विविध गुणों के धाम इस जीवात्मा की स्तुति करें अर्थात् इसके गुणों को जानें ॥ ७ । ३ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
जीव हा स्वतः स्वयंसिद्ध अनादिरूप आहे. त्यासाठी देह, प्राण, इंद्रिये व अंतःकरण पवित्र करून धर्मयुक्त व्यवहार करावा व परमेश्वराच्या उपासनेत स्थिर व्हावे. पुरुषार्थाने दुष्टांचा ताबडतोब नाश करून सज्जनांचे रक्षण करावे व आनंदात राहावे.
विषय
पुढील मंत्रात आत्म्याच्या क्रियेविषयी निरूपण केले आहे -
शब्दार्थ
(उपासक स्वत: आपल्या आत्मशक्तीला उद्दीप्त करीत म्हणत आहे) (अंशो) सूर्याप्रमाणे कांतिमान हे माझी आत्मशक्ती वा हे माझ्या आत्मन्ः तू (विश्वेभ्य:) समस्त (दिव्यंभ्य:) दिव्य पदार्थाना (पार्थिव:) पृथ्वीवर प्रख्यात (पंचभूतांनी निर्मित) अशा (इन्द्रियेभ्य:) इंदियांनां पवित्र करणारी आहेस (मरीचिपेभ्य:) सूर्याची किरणे ज्याप्रमाणे पवित्र करणार्या आहेत, त्याप्रमाणे तुझ्यातील आत्मशक्ती वा तू विद्वजनांसाठी आणि वायू आदी पदार्थांसाठी (स्वाह्कृत:) स्वयसिद्ध (असि) आहेस. (जगात आत्मबल हे श्रेष्ठ बल आहे) (त्वा) तुला (मन:) विज्ञान आणि स्नाहा) वेदवाणीचं ज्ञान (अष्टु) प्राप्त होवो. हे (सुभव) श्रेष्ठ गुणवान आत्मन्, मी (सूर्याय) सर्वप्रेरक चराचरात्मा परमेश्वराची (ईडे) प्रशंसा करण्यासाठी (त्वा) तुला सांगत आहे. (हे आत्मन्, तू ईश्वरोपासना करीत जा) (तत्) परमेश्वराच्या त्या प्रशंसनीय अशा (सत्यम्) सत्यरूपाचे प्रेमाने ध्यान करीत जा. (उपरिप्रुता) उत्कर्षाचे सर्वांहून श्रेष्ठ साधन असा तू आहेस. तू आपल्या (भंगेन) शक्तीने (असो) या अज्ञानरुप शत्रूला (फट्) झटपट (हृत:) मारून टाकले आहे. यासाठी मी (त्वा) तुला (प्राणाय) जीवनासाठी उद्दीप्त वा जागृत करीत आहे आणि (व्यानाथ) विविध सुखांच्या प्राप्तीसाठी (त्वा) तुला आग्रहाने सांगत आहे.
भावार्थ
भावार्थ - जीवात्मा स्वयेम स्वयंसिद्ध व अनादीरुप आहे. त्यामुळे सर्व जीवांनी (आत्म्यांनी) शरीर, प्राण इंद्रियें आणि अंत:करण यांना निर्मळ व धर्मयुक्त व्यवहारांनी पवित्र करावे. परमेश्वराची उपासना सतत निरंतर करावी. आपल्या पुरुषार्थ व पराक्रमाने दुर्जनांचा विनाश आणि सज्जनांचे रक्षण करीत आनंदित असावे. ॥3॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O brilliant soul, self-made art thou, for all subtle and gross bodily organs, and for the learned that purify us like the beams of the sun. May knowledge and vedic lore be acquired by thee. O virtuous soul, I praise thee for thy nearness to God. Attain to that Adorable, Truthful God. Thou hast promptly crushed and killed the demon of ignorance. I extol thee for longevity and the acquisition of happiness.
Meaning
Man, bright and virtuous, with all your earthly but excellent and celestial senses, you are self-made, self-existent and autonomous. Bless you with a pious mind and the voice of divinity, the Veda. Light of the Spirit, of auspicious birth, your life is dedicated to the Lord of Light, mother-powers of nature, and all the noble servants of the life-divine. This is why I praise you. May this praise come true. With one blow of truth from above, the evil is destroyed. You are for the breath of life, for vitality, joy and virtue.
Translation
Assimilated you are with all the senses, divine and physical both. May the mind pervade you. Svaha. О nobly-born, you to the sun. (1) You to the bounties of Nature, the enjoyers of the light quanta. (2) O bliss divine, may you truly become that for which I adore you. From the destruction coming from above, may that (evil to be named) perish. (3) You to the out-breath; you to the diffused breath. (4)
Notes
Svankrtosi, assimilated; accepted. Parthivebhyah, physical, terrestrial. Astu, व्याप्नोतु, may pervade. Subhava, nobly-born. Ати, Soma-juice; bliss divine. Upariprta bhangena, from the destruction coming from above, Phat, may he perish. From त्रिफला विशरणे to be torn o pieces.
बंगाली (1)
विषय
পুনরাত্মকৃত্যমাহ ॥
পুনরায় পরবর্ত্তী মন্ত্রে আত্মক্রিয়ার নিরূপণ করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অংশো) সূর্য্যতুল্য প্রকাশমান্ ! তুমি (দিব্যেভ্য) দিব্য (বিশ্বেভ্যঃ) সমস্ত (পার্থিবঃ) পৃথিবীতে প্রসিদ্ধ (ইন্দ্রিয়েভ্যঃ) ইন্দ্রিয় সকল এবং (মরীচিপেভ্যঃ) কিরণগুলির সমান পবিত্রকারী (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্ ও বায়ু ইত্যাদি পদার্থ হেতু (স্বাঙ্কৃতঃ) স্বয়ংসিদ্ধ (অসি) আছো, সেই (ত্বা) তোমাকে (মনঃ) বিজ্ঞান ও (স্বাহা) বেদবাণী (অষ্টু) প্রাপ্ত হউক । হে (সুভব) শ্রেষ্ঠ গুণবান্ হওয়া আমি (সূর্য়্যায়) সর্বপ্রেরক চরাচরাত্মা পরমেশ্বরের জন্য (ত্বাম্) তোমার (ঈডে) প্রশংসা করি । তুমিও (তৎ) সেই প্রশংসার যোগ্য (সত্যম্) সত্য পরমাত্মাকে প্রীতিপূর্বক গ্রহণ কর, (উপরিপ্রুতা) সর্বাপেক্ষা উত্তম উৎকর্ষ প্রাপ্তকারী তুমি (ভঙ্গেন) মর্দনপূর্বক (অসৌ) এই অজ্ঞানরূপ শত্রু (ফট্) শীঘ্র (হতঃ) নিহত কর, সেই (ত্বাম্) তোমাকে (প্রাণায়) জীবনের জন্য প্রশংসিত করি এবং (ব্যানায়) বিবিধ প্রকারের সুখ প্রাপ্ত করিবার জন্য (ত্বা) তোমাকে প্রশংসা করি ॥ ৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- জীব স্বয়ংসিদ্ধ অনাদিরূপ । অতএব ইহার উচিত যে, দেহ, প্রাণ, ইন্দ্রিয় সকল ও অন্তঃকরণকে নির্মল ধর্মযুক্ত ব্যবহারে প্রবৃত্ত করিয়া পরমেশ্বরের উপাসনায় স্থির হউক তথা পুরুষকার দ্বারা দুষ্টদিগকে শীঘ্র হত্যা করুক এবং শ্রেষ্ঠদের রক্ষা করিয়া আনন্দে থাকুক ॥ ৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স্বাঙ্কৃ॑তোऽসি॒ বিশ্বে॑ভ্যऽইন্দ্রি॒য়েভ্যো॑ দি॒ব্যেভ্যঃ॒ পার্থি॑বেভ্যো॒ মন॑স্ত্বাষ্টু॒ স্বাহা॑ ত্বা সুভব॒ সূর্য়া॑য় দে॒বেভ্য॑স্ত্বা মরীচি॒পেভ্যো॒ দেবা॑ᳬंশো॒ য়স্মৈ॒ ত্বেডে॒ তৎস॒ত্যমু॑পরি॒প্রুতা॑ ভ॒ঙ্গেন॑ হ॒তো᳕ऽসৌ ফট্ প্রা॒ণায়॑ ত্বা ব্যা॒নায়॑ ত্বা ॥ ৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
স্বাঙ্কৃত ইত্যস্য গোতম ঋষিঃ । বিদ্বাংসো দেবতাঃ । বিরাড্ ব্রাহ্মী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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