यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 14
ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - विराट जगती,
स्वरः - निषादः
156
अच्छि॑न्नस्य ते देव सोम सु॒वीर्य॑स्य रा॒यस्पोष॑स्य ददि॒तारः॑ स्याम। सा प्र॑थ॒मा सँस्कृ॑तिर्वि॒श्ववा॑रा॒ स प्र॑थ॒मो वरु॑णो मि॒त्रोऽअ॒ग्निः॥१४॥
स्वर सहित पद पाठअच्छि॑न्नस्य। ते॒। दे॒व॒। सो॒म॒। सु॒वीर्य्य॒स्येति॑ सु॒ऽवीर्य्य॑स्य। रा॒यः। पोष॑स्य। द॒दि॒तारः॑। स्या॒म॒। सा। प्र॒थ॒मा। संस्कृ॑तिः। वि॒श्ववा॒रेति॑ वि॒श्वऽवा॑रा। सः। प्र॒थ॒मः। वरु॑णः। मि॒त्रः। अ॒ग्निः ॥१४॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम । सा प्रथमा सँस्कृतिर्विश्ववारा स प्रथमो वरुणो मित्रो अग्निः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अच्छिन्नस्य। ते। देव। सोम। सुवीर्य्यस्येति सुऽवीर्य्यस्य। रायः। पोषस्य। ददितारः। स्याम। सा। प्रथमा। संस्कृतिः। विश्ववारेति विश्वऽवारा। सः। प्रथमः। वरुणः। मित्रः। अग्निः॥१४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ शिष्यायाध्यापककृत्यमाह॥
अन्वयः
हे देव सोम! वयमध्यापकास्ते तुभ्यं सुवीर्य्यस्येवाच्छिन्नस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम, या प्रथमा विश्ववारा संस्कृतिरस्ति, सा तुभ्यं सुखदा भवतु। योऽस्माकं मध्ये वरुणोऽग्निरिवाध्यापकोऽस्ति, स प्रथमस्ते मित्रो भवतु॥१४॥
पदार्थः
(अच्छिन्नस्य) अखण्डितस्य (ते) तुभ्यं तव वा (देव) योगजिज्ञासो (सोम) प्रशस्तगुण शिष्य! (सुवीर्य्यस्य) शोभनानि वीर्य्यणि पराक्रमाणि यस्मात् तस्येव (रायः) सर्वविद्याजनितस्य बोधधनस्य (पोषस्य) पुष्टेः (ददितारः) (स्याम) (सा) (प्रथमा) आदिमा (संस्कृतिः) विद्यासु शिक्षाजनिता नीतिः (विश्ववारा) सर्वैरेव स्वीकर्तुं योग्या (सः) (प्रथमः) (वरुणः) श्रेष्ठः (मित्रः) सखा (अग्निः) पावक इव देदीप्यमानः॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। २। १। २२-२७) व्याख्यातः॥१४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। योगविद्यासम्पन्नमनसां योगिनां योग्यतास्ति जिज्ञासुभ्यो नित्यं योगविद्यां प्रदाय ते सुशरीरात्मबलाः सम्पादनीयाः॥१४॥
विषयः
अथ शिष्यायाध्यापककृत्यमाह ।।
सपदार्थान्वयः
हे देव! योगजिज्ञासो! सोम! प्रशस्तगुण शिष्य ! वयमध्यापकास्ते=तुभ्यं सुवीर्यस्य शोभनानि वीर्याणि= पराक्रमाणि यस्मात् तस्य इव अच्छिन्नस्य अखण्डितस्य रायः सर्वविद्याजनितस्य बोधधनस्य पोषस्य पुष्टे: ददितारःस्याम, या प्रथमा आदिमा विश्ववारा सर्वैरेव स्वीकर्त्तुं योग्या संस्कृतिः विद्यासुशिक्षाजनिता नीतिः अस्ति, सा तुभ्यं सुखदा भवतु। योऽस्माकं मध्ये वरुणः श्रेष्ठ: अग्निशिखि पावक इव देदीप्यमानः अध्यापकोऽस्ति, स प्रथमस्ते तव मित्रः सखा भवतु।। ७ । १४ ।। [हे देव! वयमध्यापकास्ते=तुभ्यं........रायस्पोषस्य ददितारः स्याम]
पदार्थः
(अच्छिन्नस्य) अखण्डितस्य (ते) तुभ्यं तव वा (देव) योगजिज्ञासो (सोम) प्रशस्तगुण शिष्य! (सुवीर्य्यस्य) शोभनानि वीर्य्याणि=पराक्रमाणि यस्मात् तस्येव (रायः) सर्वविद्याजनितस्य बोधधनस्य (पोषस्य) पुष्टे: (ददितारः) (स्याम) (सा) (प्रथमा) आदिमा (संस्कृतिः) विद्यासुशिक्षाजनितानीतिः (विश्ववारा:) सर्वैरेव स्वीकर्त्तुं योग्या (सः) (प्रथमः) ( वरुण:) श्रेष्ठ: (मित्रः) सखा (अग्निः) पावक इव देदीप्यमानः॥ अयं मन्त्रः शत० ४ । २ । १ । २२-२७ व्याख्यातः ॥ १४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः॥ योगविद्यासम्पन्नमनसां योगिनां योग्यतास्ति--जिज्ञासुभ्यो नित्यं योगविद्यां प्रदाय ते सुशरीरात्मबलाः सम्पादनीयाः ।। ७ । १४ ।।
विशेषः
वत्सारः काश्यपः। विश्वेदेवाः=विद्वांसः । विराड् जगती। निषादः॥
हिन्दी (4)
विषय
अब शिष्य के लिये पढ़ाने की युक्ति अगले मन्त्र में कही है॥
पदार्थ
हे (देव) योगविद्या चाहने वाले (सोम) प्रशंसनीय गुणयुक्त शिष्य! हम अध्यापक लोग (ते) तेरे लिये (सुवीर्य्यस्य) जिस पदार्थ से शुद्ध पराक्रम बढ़े उसके समान (अच्छिन्नस्य) अखण्ड (रायः) योगविद्या से उत्पन्न हुए धन की (पोषस्य) दृढ़पुष्टि के (ददितारः) देने वाले (स्याम) हों। जो यह (प्रथमा) पहिली (विश्ववारा) सब ही सुखों के स्वीकार कराने योग्य (संस्कृतिः) विद्यासुशिक्षाजनित नीति है, (सा) वह तेरे लिये इस जगत् में सुखदायक हो और हम लोगों में जो (वरुणः) श्रेष्ठ (अग्निः) अग्नि के समान सब विद्याओं से प्रकाशित अध्यापक है (सः) वह (प्रथमः) सब से प्रथम तेरा (मित्रः) मित्र हो॥१४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। योगविद्या में सम्पन्न शुद्धचित युक्त योगियों को योग्य है कि जिज्ञासुओं के लिये नित्य योगविद्या का दान देकर उन्हें शारीरिक और आत्मबल से युक्त किया करें॥१४॥
विषय
प्रथमा संस्कृति
पदार्थ
१. गत मन्त्र का शमादि गुणयुक्त पुरुष प्रार्थना करता हुआ कहता है कि हे ( देव सोम ) = दिव्य गुणों को उत्पन्न करनेवाले सोम! हम ( ते ) = तेरे ( अच्छिन्नस्य ) = कभी विच्छिन्न न होनेवाले ( सुवीर्यस्य ) = उत्तम वीरता से युक्त ( रायस्पोषस्य ) = धन के पोषण के ( ददितारः ) = [ दधितारः ] धारण करनेवाले ( स्याम ) = हों। हम सोम की रक्षा के द्वारा उत्तम शक्ति को प्राप्त करें, उत्तम धनों को धारण करनेवाले बनें।
३. [ क ] अविच्छिन्नरूप से हम वीर्य को धारण करनेवाले बनें, [ ख ] धनों को प्राप्त करके यज्ञादि उत्तम कार्यों के लिए दान करनेवाले हों। ( सा ) = इन दोनों बातों का पालन करना ही ( प्रथमा ) = प्रमुख अथवा हमारे जीवनों व शक्तियों का विस्तार करनेवाली ( संस्कृतिः ) = संस्कृति [ culture ] है। यह संस्कृति ( विश्ववारा ) = सबसे वरने के योग्य है। सभी को इस संस्कृति को अपनाना चाहिए, अथवा यह ( विश्ववारा ) = सब वरणीय वस्तुओंवाली है। इस संस्कृति से हमारे अन्दर सब इष्ट गुणों की उत्पत्ति होती है।
४. ( सः ) = वह—इस संस्कृति को अपनानेवाला व्यक्ति ( प्रथमः ) = अपनी सब शक्तियों का विस्तार करता है, अतएव समाज में मुख्य—प्रथम स्थान में स्थित होता है। ( वरुणः ) = यह सब द्वेषों व अन्य बुराइयों का निवारण करनेवाला होता है और इस प्रकार ‘वरुणो नाम वरः श्रेष्ठः’ श्रेष्ठ जीवनवाला होता है। ( मित्रः ) = यह सभी के साथ स्नेह करता है ‘प्रमीतेः त्रायते’ और अपने को पापरूप मृत्युओं से बचाता है, तथा ( अग्निः ) = निरन्तर आगे बढ़नेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ — सबसे स्वीकार करनेयोग्य संस्कृति यही है कि १. हम अविच्छिन्न वीर्य को धारण करनेवाले बनें, शक्ति की रक्षा करें। २. और दान दिये जानेवाले [ रा दाने ] धन के पोषक हों।
विषय
राजा की उच्च स्थिति, पक्षान्तर में ईश्वर और आचार्य का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( देव सोम ) प्रकाशमान सबके प्रेरक राजन् ! ( सुवीर्य- स्य ते) उत्तम वीर्यवान् तेरे ( अच्छिन्नस्य ) अच्छिन्न, अटूट, अक्षय रायः पोषस्य ) धनैश्वर्य की समृद्धि के हम प्रजाजन ( ददितार: ) देनेवाले ( स्याम ) हों । ( सा ) वह राजशक्ति ही ( विश्ववारा ) समस्त राष्ट्र की रक्षा करनेवाली ( प्रथमा संस्कृतिः ) सबसे उत्कृष्ट रचना है । ( सः ) इस प्रकार का बनाया हुआ राजा ( प्रथमः ) सबसे उत्तम, प्रजा का रक्षक, ( मित्रः ) सर्वोत्तम प्रजा का स्नेही और ( प्रथमः अग्निः ) सर्वोत्तम अग्रणी नेता है । शत० ४ । २ । १ । २१ ॥
शिष्याध्यापक पक्ष में- हे शिष्य ! उत्तम वीर्यवान् अखण्ड ब्रह्मचारी को हम ज्ञान ऐश्वर्य के देनेवाले हों। यह शिक्षा सर्व श्रेष्ठ सबको एवं स्वीकार करने योग्य हैं। हम में से तुझे पाप से वारक अग्नि आचार्य तेरे मित्र के समान स्न्नेही है ।
ईश्वर के पक्ष में- हे देव सोम ! परमेश्वर ! महान् वीर्यवान् (अच्छि नमस्य ) अखण्ड ऐश्वर्य के परिपोषक तेरे हम सदा ( ददितारः ) देनेवाले, देनदार, ऋणी रहें । वही परमेश्वरी शक्ति सबसे उत्तम संस्कृति है, जो सबकी रक्षा करती है । वह परमेश्वर ही सब से श्रेष्ठ प्रथम, आदि मूल वरुण मित्र और अग्नि है ।
टिप्पणी
१४ - सोमो देवता । सर्वा० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वेदेवाः देवताः । स्वराड् जगती । निषादः ॥
विषय
अब शिष्य के लिये अध्यापक के कर्त्तव्य का उपदेश किया है ॥
भाषार्थ
हे (देव) योग के जिज्ञासु ! (सोम) उत्तम गुण युक्त शिष्य ! हम अध्यापक लोग (ते) तेरे लिये (सुवीर्यस्य) उत्तम बल पराक्रम के समान (अच्छिन्नस्य) अखण्डित (रायः) सब विद्याओं से उत्पन्न बोध-धन की (पोषस्य) पुष्टि के (ददितारः) दाता (स्याम) हों, और जो (प्रथमा) आदिम (विश्ववारा) सब से स्वीकार करने योग्य (संस्कृतिः) विद्या और सुशिक्षा से उत्पन्न नीति है वह तेरे लिये सुखदायक हो । और--जो हमारे मध्य में (वरुणः) श्रेष्ठ (अग्निः) अग्नि के समान विद्या से देदीप्यमान अध्यापक है वह (प्रथम) पहला (ते) तेरा (मित्र) सखा हो ॥ ७ । १४ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है॥योगविद्या से युक्त मन वाले योगियों को योग्य है कि वे योगजिज्ञासुओं को योगविद्या प्रदान करके उन्हें उत्तम शरीर और आत्मा के बल से युक्त करें ।। ७ । १४ ।।
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।२।१।२२-२७ ) में की गई है ।। ७ । १४ ।।
भाष्यसार
१. शिष्य के लिये अध्यापक का कर्त्तव्य--योगविद्या के अध्यापक उत्तम गुण वाले योगविद्या के जिज्ञासु शिष्य को उत्तम बल पराक्रम के समान अखण्डित ज्ञान-धन की पुष्टि प्रदान करें। और उन्हें नित्य योग-विद्या प्रदान करके शारीरिक और आत्मिक बल से सम्पन्न बनावें। और जो प्रथम, सब से स्वीकार करने योग्य संस्कृति है उसे शिष्यों के लिये सुखद बनावें। और श्रेष्ठ, अग्नि के समान योगविद्या से देदीप्यमान अध्यापक शिष्यों के सखा हों ।। २. अलङ्कार– इस मन्त्र मेंउपमा अलङ्कार है॥ उपमा यह है कि जैसे अग्नि प्रकाश से देदीप्यमान है वैसे अध्यापक योगविद्या से देदीप्यमान हो ॥ ७ । १४ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. योगविद्येत प्रवीण शुद्ध चित्तयुक्त योग्यांनी जिज्ञासू लोकांना सदैव योग व विद्यादान करून त्यांना शारीरिक बलाने व आत्मबलाने युक्त करावे.
विषय
शिष्यासाठी विद्यादानाची रीती कशी असावी, याविषी अध्यापकास उपदेश कथन पढील मंत्रात केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (देव) योगविद्येचे इच्छुका (सोम) उत्तम गुणवान शिष्या, आम्ही तुझे अध्यापकगण (ते) तुझ्यासाठी (सुवीर्य्यस्य) ज्या रीतीने योगशिक्षणात तुझे बल-पराक्रम वाढेल, अशी (अच्छिन्नस्य) अखंडित रीती सांगत आहोत. आमच्या (राय:) वृद्धींगत योगधनाने तुझ्या योगधनाच्या (पोषस्थ) पुष्टीकरिता आम्ही (ददितार:) दाता (स्थान) होत आहोत (तुला आमचे पूर्ण योगज्ञान शिकवीत आहोत) या संसारात (प्रथमा) पहिली (विश्ववारा) सर्वसुखदायी अशी जी (संस्कृति:) विद्यासुशिक्षाजनित नीत आहे, (सा) ती तुझ्यासाठी या संसारात सुखदात्री होवो. आम्हा अध्यापकगणांपैकी जो कोणी (वरूण:) श्रेष्ठ (अग्नि:) अग्नीप्रमाणे तेजस्वी असा सर्वविद्या संपन्न अध्यापक आहे (स:) तो (प्रथम:) सर्वांहून आधी तुझा (मित्र:) मित्र होवो ॥14॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. जे योगाध्यापक योगविद्येत प्रवीण असून शुद्धचित आहेत, त्यांच्यासाठी हे उचित आहे की त्यानी जिज्ञासू लोकांना नित्य योगशास्त्र अध्यापन आणि विद्यादान करावे व त्याद्वारे शिष्यांना शारीरिक व आत्मिकशक्तीने समृद्ध बनवावे. ॥14॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O well mannered disciple desiring to learn yoga, we your teachers, are the givers for you of uninterrupted, chivalrous strength of the knowledge of yoga. May our preliminary method of teaching, acceptable to all, be accommodating to thee. May he, who is spiritually advanced and highly learned amongst us, be first of all friendly to thee.
Meaning
Seeker of yoga, cool and excellent, bright and brave, we are the generous source, givers of continuous undisturbed stream of the wealth of life and yoga to you. May that first original and universal culture of life bless you. May the teacher, bright as Agni, deep as the ocean, and benevolent as the sun be your foremost friend.
Translation
O blissful God, may we become the bestowers of your powerful and never exhausting wealth and nourishment. (1) That is the first culture appreciated by all and He is the first venerable, friendly and adorable. (2)
Notes
Visvavara,विश्वै: सर्वै: व्रियते स्वीकृयते या सा स्वीकर्तुम् योग्या वा , that which is chosen and accepted by all; which should be chosen by all.
बंगाली (1)
विषय
অথ শিষ্যায়াধ্যাপককৃত্যমাহ ॥
এখন শিষ্যের পড়াইবার যুক্তি পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (দেব) যোগবিদ্যা জিজ্ঞাসুগণ (সোম) প্রশংসনীয় গুণযুক্ত শিষ্য ! আমরা অধ্যাপকগণ (তে) তোমার জন্য (সুবীর্য়্যস্য) যে পদার্থ দ্বারা শুদ্ধ পরাক্রম বৃদ্ধি পায় তৎসমান (অচ্ছিন্নস্য) অখন্ড (রায়ঃ) যোগবিদ্যা দ্বারা উৎপন্ন ধনের (পোষস্য) দৃঢ়পুষ্টির (দদিতারঃ) প্রদানকারী (স্যাম) হই । এই যে (প্রথমা) প্রথম (বিশ্ববারা) সর্বসুখ স্বীকার করাইবার যোগ্য (সংস্কৃতিঃ) বিদ্যা সুশিক্ষা জনিত নীতি আছে (স) উহা তোমার জন্য এই জগতে সুখদায়ক হউক এবং আমাদিগের মধ্যে যাহা (বরুণঃ) শ্রেষ্ঠ (অগ্নিঃ) অগ্নি সমান সর্ব বিদ্যা দ্বারা প্রকাশিত অধ্যাপক (সঃ) তিনি (প্রথমঃ) সর্ব প্রথম তোমার (মিত্রঃ) মিত্র হউক ॥ ১৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যোগবিদ্যা সম্পন্ন শুদ্ধচিত্ত যুক্ত যোগীদের উচিত যে, জিজ্ঞাসুদিগের জন্য নিত্য যোগ ও বিদ্যাদান প্রদান করিয়া তাহাদিগকে শারীরিক ও আত্মবল দ্বারা যুক্ত করুক ॥ ১৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অচ্ছি॑ন্নস্য তে দেব সোম সু॒বীর্য়॑স্য রা॒য়স্পোষ॑স্য দদি॒তারঃ॑ স্যাম ।
সা প্র॑থ॒মা সঁস্কৃ॑তির্বি॒শ্ববা॑রা॒ স প্র॑থ॒মো বরু॑ণো মি॒ত্রোऽঅ॒গ্নিঃ ॥ ১৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অচ্ছিন্নস্য ত ইত্যস্য বৎসারঃ কাশ্যপ ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । বিরাড্ জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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