यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 48
ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - आर्षी उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
611
को॑ऽदा॒त् कस्मा॑ऽअदा॒त् कामो॑ऽदा॒त् कामा॑यादात्। कामो॑ दा॒ता कामः॑ प्रतिग्रही॒ता कामै॒तत्ते॑॥४८॥
स्वर सहित पद पाठकः। अ॒दा॒त्। कस्मै॑। अ॒दा॒त्। कामः॑। अ॒दा॒त्। कामा॑य। अ॒दा॒त्। कामः॑। दा॒ता। कामः॑। प्र॒ति॒ग्र॒ही॒तेति॑ प्रतिऽग्रही॒ता। काम॑। ए॑तत्। ते॒ ॥४८॥
स्वर रहित मन्त्र
को दात्कस्मा ऽअदात्कामो दात्कामायादात् । कामो दाता कामः प्रतिग्रहीता कामैतत्ते ॥
स्वर रहित पद पाठ
कः। अदात्। कस्मै। अदात्। कामः। अदात्। कामाय। अदात्। कामः। दाता। कामः। प्रतिग्रहीतेति प्रतिऽग्रहीता। काम। एतत्। ते॥४८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथेश्वरो जीवानुपदिशति॥
अन्वयः
कोऽदात्, कस्मा अदात्, कामोऽदात्, कामयादात्, कामो दाता, कामः प्रतिग्रहीता। हे काम जीव! ते त्वदर्थमेतत् सर्वं मयाज्ञप्तमिति त्वं निश्चिनुहि॥४८॥
पदार्थः
(कः) (अदात्) कर्म्मफलानि ददाति (कस्मै) (अदात्) (कामः) काम्यते यः परमेश्वरः (अदात्) ददाति (कामाय) कामयमानाय जीवाय (अदात्) ददाति (कामः) यः काम्यते सर्वैर्योगिभिः स परमेश्वरः (दाता) सर्वपदार्थप्रदायकः (कामः) जीवः (प्रतिग्रहीता) (काम) कामयते असौ तत्सम्बुद्धौ (एतत्) आज्ञापनम् (ते) त्वदर्थम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। ३। ४। ३२) व्याख्यातः॥४८॥
भावार्थः
अस्मिञ्जगति कर्मकर्त्तारो जीवाः फलप्रदातेश्वरोऽस्तीति विज्ञेयम्। नहि कामनया विना केनचित् चक्षुषो निमेषोन्मेषनङ्कर्तुं शक्यते, तत्सर्वैर्मनुष्यैर्विचारेण धर्मस्यैव कामना कार्य्या, नेतरस्य चेतीश्वराज्ञास्ति। अत्राह मनुः—कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्त्यकामता। काम्यो हि वेदाधिगमः कर्म्मयोगश्च वैदिकः॥ अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते नेह कर्हिचित्। यद्यद्धि कुरुते किञ्चित् तत्तत् कामस्य चेष्टितम्॥४८॥
विषयः
अथेश्वरो जीवानुपदिशति ॥
सपदार्थान्वयः
कोऽदात् कर्मफलानि ददाति, कस्मा अदात्, कामः कामयते यः परमेश्वरः अदात् ददाति, कामाय कामयमानाय जीवाय अदात् ददाति, कामः यः काम्यते सर्वैर्योगिभिः स परमेश्वर: दाता सर्वपदार्थदायकः कामः जीवः प्रतिग्रहीता। हे काम=जीव! कामयतेऽसौ तत्सम्बुद्धौ ते त्वदर्थमेतद्आज्ञापनं सर्वं मयाऽऽज्ञप्तमिति त्वं निश्चिनुहि ॥ ७ । ४८ ॥ [कोऽदात्, कस्या अदात्, कामोऽदात्, कामायादात्, कामो दाता, कामः प्रतिग्रहीता]
पदार्थः
(कः) (अदात्) कर्मफलानि ददाति (कस्मै) (अदात्) (कामः) कामयते यः परमेश्वरः (अदात्) ददाति (कामाय) कामयमानाय जीवाय (अदात्) ददाति (कामः) यः काम्यते सर्वैर्योगिभिः स परमेश्वरः (दाता) सर्वपदार्थप्रदायकः (कामः) जीव: (प्रतिग्रहीता) (काम) कामयते असौ तत्सम्बुद्धौ (एतत्) आज्ञापनम् (ते) त्वदर्थम् ॥ अयं मन्त्रः शत० ४ । ३ । ४ । ३२ व्याख्यातः ॥ ४८॥
भावार्थः
अस्मिञ्जगति कर्मकर्त्तारो जीवः फलप्रदातेश्वरोऽस्तीति विज्ञेयम्। [हे काम=जीव ! ते=त्वदर्थमेतत्सर्वं मयाऽऽज्ञप्तमिति त्वं निश्चिनुहि] न हि कामनया विना केनचित् चक्षुषो निमेषोन्मेषनङ्कर्त्तुं शक्यते, तत्सर्वैर्मनुष्यैर्विचारेण धर्मस्यैव कामना कार्या; नेतरस्य चेतीश्वराज्ञाऽस्ति। अत्राहमनु:-- कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्त्यकामता। काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः॥ अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते नेह कर्हिचित् । यद्यद्धि कुरुते किञ्चित्तेत्तत्कामस्य चेष्टितम् ।। पूर्वापराध्यायसंगतिमाह-- अस्मिन्नध्याये--बाह्याभ्यन्तरव्यवहारो, मनुष्याणां परस्परं वर्तमानमात्मकर्मात्मनि मनसः प्रवर्त्तनं प्रथमकल्पाय योगिन ईश्वरोपदेशो जिज्ञासुं प्रति च, योगिकृत्यं, तल्लक्षणमध्यापकशिष्यकर्म, योगविद्याभ्यासिनां कृत्यं, योगेनान्तःकरणशोधनं,योगाभ्यासिलक्षणं, शिष्याध्यापकव्यवहारः, स्वामिसेवककृत्यं, न्यायाधीशेन प्रजारक्षणप्रकारो, राजसभ्यजनकृत्यं, राजोपदेशकरणं, राजभिः कार्यं, परीक्ष्य सेनापतिकरणं, पूर्णविद्यस्य सभापतित्वाधिकारो, विद्वत्कृत्यमीश्वरोपासकोपदेशो, यज्ञानुष्ठातुर्विषयः, प्रजादीन् प्रति सभापतेर्वर्त्तनं, राजप्रजाजनसत्कारोऽध्यापकाध्येतॄणां परस्परं प्रवृत्तिः, प्रतिदिनं पठनविषयो विद्यावृद्धिकरणं राज्ञः कर्त्तव्यं कर्म सेनापतिकृत्यं, सभाध्यक्षादिक्रियेश्वरगुणवर्णनं, तत्प्रार्थना, शूरवीरैर्युद्धानुष्ठानं, सेनास्थपुरुषकृत्यं ब्रह्मचर्यसेवनप्रकारः, ईश्वरस्य जीवान् प्रत्युपदेशश्चोक्तोऽतएतदध्यायार्थस्योक्तषष्ठाध्यायार्थेन सह सङ्गतिरिति बोध्यम् ॥ ७ ॥
विशेषः
आङ्गिरसः। आत्मा=परमेश्वरः। आर्ष्युष्णिक्। ऋषभः।।
हिन्दी (5)
विषय
अब अगले मन्त्र में ईश्वर जीवों को उपदेश करता है॥
पदार्थ
(कः) कौन कर्म्म-फल को (अदात्) देता और (कस्मै) किसके लिये (अदात्) देता है। इन दो प्रश्नों के उत्तर (कामः) जिसकी कामना सब करते हैं, वह परमेश्वर (अदात्) देता और (कामाय) कामना करने वाले जीव को (अदात्) देता है। अब विवेक करते हैं कि (कामः) जिसकी योगीजन कामना करते हैं, वह परमेश्वर (दाता) देने वाला है, (कामः) कामना करने वाला जीव (प्रतिग्रहीता) लेनेवाला है। हे (काम) कामना करने वाले जीव! (ते) तेरे लिये मैंने वेदों के द्वारा (एतत्) यह समस्त आज्ञा की है, ऐसा तू निश्चय करके जान॥४८॥
भावार्थ
इस संसार में कर्म्म करने वाले जीव और फल देने वाला ईश्वर है। यहां यह जानना चाहिये कि कामना के विना कोई आंख का पलक भी नहीं हिला सकता। इस कारण जीव कामना करे, परन्तु धर्म्म सम्बन्धी कामना करे, अधर्म्म की नहीं। यह निश्चय कर जानना चाहिये कि जो इस विषय में मनुजी ने कहा है, वह वेदानुकूल है, जैसे- ‘इस संसार में अति कामना प्रशंसनीय नहीं और कामना के विना कोई कार्य्य सिद्ध नहीं हो सकता, इसलिये धर्म्म की कामना करनी और अधर्म्म की नहीं, क्योंकि वेदों का पढ़ना-पढ़ाना और वेदोक्त धर्म का आचरण करना आदि कामना इच्छा के विना कभी सिद्ध नहीं हो सकती॥१॥ इस संसार में तीनों काल में इच्छा के विना कोई क्रिया नहीं देख पड़ती, जो-जो कुछ किया जाता है, सो-सो सब इच्छा ही का व्यापार है, इसलिये श्रेष्ठ वेदोक्त कामों की इच्छी करनी, इतर दुष्ट कामों की नहीं॥४८॥
विषय
दाता-प्रतिग्रहीता ?
पदार्थ
१. गत मन्त्र में दान का महत्त्व सुव्यक्त है। ‘जुहोत प्र च तिष्ठत’ इस वेदवाक्य के अनुसार मनुष्य देता है और प्रतिष्ठा को पाता है। ‘न दुष्टुतिर्द्रविणोदेषु शस्यते’ = देनेवालों की कभी निन्दा नहीं होती। ‘दान देने पर यह प्रतिष्ठा कहीं दाता को गर्वयुक्त न कर दे’, इसलिए समाप्ति पर कहते हैं कि हे मनुष्य! तू कभी यह मत सोचना कि तू देनेवाला है, देनेवाला तो वह सुखस्वरूप परमेश्वर ही है। ( कः अदात् ) = सुखस्वरूप परमेश्वर देता है। ( कस्मै अदात् ) = सुख के लिए ही देता है। प्रभु देते इसलिए हैं कि हमारा जीवन सुखी हो सके। जीवन के लिए आवश्यक सब वस्तुओं के प्राप्त हो जाने से सु-ख = सब इन्द्रियाँ स्वस्थ बनी रहें।
२. ( कामः ) = [ Supreme Being ] सभी से कामना किया जानेवाला वह प्रभु ही [ काम्यते ] ( अदात् ) = देता है। ( कामाय अदात् ) = प्रभु इसलिए देते हैं कि हम उस प्रभु को पा सकें। यह पंक्ति विचित्र अवश्य प्रतीत होती है, परन्तु इसमें वह मौलिक सत्य निहित है जो ‘भूखे भजन न होई’ इन शब्दों में कवियों से व्यक्त किया गया है। अधिक धन मनुष्य को मूढ़ बनानेवाला हो सकता है, पर धनाभाव तो अवश्य मूढ़ बना ही देता है।
३. ( कामः दाता ) = वे प्रभु ही दाता हैं। ( कामः ) = प्रभु की कामना करनेवाला जीव ( प्रतिग्रहीता ) = लेनेवाला है।
४. ( काम ) = हे संसार की सर्वोच्च सत्तारूप प्रभो! ( एतत् ते ) = यह सब दान आपका ही है। यह मेरा नहीं। मैं सदा लेनेवाला ही हूँ, अतः मैं क्या दान का गर्व करूँ। यह तो मेरे माध्यम से आप ही के द्वारा हो रहा है।
भावार्थ
भावार्थ — हम दान दें, परन्तु उस दान का हमें गर्व न हो, क्योंकि वस्तुतः यह दानादि उत्तम कार्य हमारे माध्यम से उस प्रभु द्वारा ही किये जा रहे होते हैं।
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज-संसार एक कल्प वृक्ष
देखो, विवेकी पुरुषों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि यह सब कुछ विज्ञानशालाएं नाना प्रकार के मण्डल वायु प्रधानता वाले, अग्नि प्रधानता वाले, पार्थिव तत्त्व प्रधान है जब आगे विचार विनिमय होने लगा तो ऋषियों ने कहा कि भाई! यह क्या है? यह कुछ नहीं। केवल एक प्रकार का कल्पवृक्ष है। यहाँ जो मानव परमात्मा का आस्तिक बन करके ऊर्ध्वगति बना करके सङ्कल्प करता है अपने मन में उदारता से विचारता है कि यह परमपिता परमात्मा का वह स्थान है जहाँ मानव को वहीं वस्तु प्राप्त हो जाती है जिसकी वह कल्पना करता है। इसलिए यह एक कल्पना वृक्ष है। योगी की कल्पना करोगे, तो योगी बनते चले जाओगे, ऋषि की कल्पना करोगे, ऋषि बनते चले जाओगे। गृहस्थी की कल्पना करोगे, तो गृहस्थी बन जाओगे। विष्णु की कल्पना करोगे, तो विष्णु बन जाओगे। मुक्ति की कल्पना करोगे, तो तुम्हें मोक्ष पाप्त हो जावेगा। दुराचारी बनना चाहते हो, तो दुराचारी भी बन जाओगे। यहाँ जो भी कल्पना, आस्था सहित करोगे, वहीं तुम्हारी पूर्ण होगी। यह सब संसार, जो प्रभु ने रचा है ऋषि मुनियों ने इसका विचार करके कहा, कि यह एक प्रकार का कल्पवृक्ष है।
मुनिवरों! इस सम्बन्ध में मैं एक वार्ता प्रकट किया करता हूँ, जो पूर्व भी प्रकट कर चुका हूँ, आज भी स्मरण आती चली जा रही है। एक समय देव ऋषि नारद मुनि इस मृत मण्डल में विचर रहे थे। उन्होंने देखा, कि मनुष्य बड़ा दुःखित है क्योंकि उसकी पत्नी नित्यप्रति दण्ड दिया करती थी। उन दिन भी उसकी पत्नी ने उसे दण्ड दिया था और वह प्रभु से याचना कर रहा था, कि हे प्रभु! मुझे यहाँ से ले जाइए, मैं अब अपना जीवन नहीं चाहता। अगले जन्म में मुझे कुछ भी प्राप्त हो जाएं। जब अपनी हृदय की वेदना प्रकट कर रहा था, उस समय नारद मुनि जी वहाँ पहुँचे और उसमें कहा कि आओ, मैं स्वर्ग में ले चलूं। वह मनुष्य बड़ा प्रसन्न हुआ और नारद मुनि के साथ चल दिया। चलते चलते, स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे। वहाँ एक कल्प वृक्ष था। नारद ने उस मनुष्य से कहा कि तुम इस कल्पवृक्ष के नीचे विराजमान हो जाओ और मैं भगवान विष्णु से आज्ञा ने आऊं, कि तुम स्वर्ग में जाने योग्य हो या नहीं। वह मनुष्य उस वृक्ष के नीचे विराजमान हो गया और नारद जी विष्णु के द्वारा जा पहुँचे।
कल्पवृक्ष के नीचे मन्द सुगन्ध शीतल वायु चल रही थी, उस मनुष्य के मन में कल्पना जाग्रत हुई कि यहाँ तेरे लिए एक सुन्दर सा आसन होना चाहिए था। कल्पवृक्ष था, कल्पना की, कि एक सुन्दर आसन लग गया। आसन पर विराजमान होकर मन में और चञ्चलता जाग्रत हुई और कल्पना करने लगा कि अरे, यहाँ तो तेरे लिए विश्राम करने वाला भी एक आसन होना चाहिए था। अब विश्राम करने वाला आसन भी लग गया। अब ऐश्वर्य में अधिक आया, तो कल्पना जाग्रत हुई कि यहाँ तो नाना प्रकार की अप्सराएं, सेवा करने के लिए होनी चाहिए थी। बेटा! कल्पना करते ही वहाँ नाना प्रकार की अप्सराएं भी आ पहुँची। आनन्द पूर्वक सेवा होने लगी, तो मनुष्य के मन में विचार आया कि अरे, अब यहाँ तेरी मृत लोक वाली पत्नी होती तो तेरे ऊपर डण्डा भी होता। अब तो बेटा! वह मृत लोक वाली पत्नी भी आ पहुँची। आगे आगे, मनुष्य है पत्नी उसके पश्चात डंड़े सहित है। इतने में देव ऋषि नारद मुनि स्वर्ग से वहाँ आ पहुँचे। और जब उन्होंने वह दृष्टिगत किया, तो दीर्घ वाणी से कहा कि अरे, धूर्त! कहाँ चले जा रहे हो? अरे, कल्पना को त्याग, उस मनुष्य ने कल्पना को त्यागा, तो न तो पत्नी है और न अप्सराएं हैं, न आसन है। नारद मुनि ने कहा कि अरे, महा मूर्ख! कल्प वृक्ष के नीचे भी आकर तूने भोग विलासों की कल्पना की। अरे, यदि यहाँ तू स्वर्ग की कल्पना करता, तो तुझे स्वर्ग प्राप्त हो जाता। आज तुमने यह क्या कल्पना की? केवल भोग विलास वाली कल्पना पत्नी की कल्पना की।
मुनिवरों! ऋषि मुनियों ने इसलिए कहा है, कि यह भी कुछ प्रभु ने रचा है, यह एक प्रकार का कल्प वृक्ष है। हम सब प्राणी उस परमात्मा के कल्प वृक्ष के नीचे विराजमान हैं। स्वर्ग की कामना है, तो स्वर्ग की कल्पना करते रहो। देवता बनने की इच्छा है, तो देवता बनने की कल्पना करते रहो, तुम अवश्य बनते चले जाओगे। इस संसार रुपी कल्पवृक्ष के नीचे आकर, हमें भोग विलासों की कल्पना नहीं करनी है, देवता बनने की कल्पना करनी है, मोक्ष की कल्पना करनी है। प्रभु के समीप जाने की कल्पना करनी है। तो यह है बेटा! आज का हमारा आदेश।
पूज्य महानन्द जीः धन्य हो भगवान!।
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! आज के हमारे आदेशों का अभिप्राय क्या था? प्रथम के वाक्यों में यौगिक प्रक्रियाओं का वर्णन किया कि योगी संसार में क्या क्या करता है। योगी की ऊर्ध्वगति किस प्रकार होती है। परमात्मा का रचा हुआ, जो यह संसार है, यह एक प्रकार का कल्पवृक्ष है। इसमें मानव को शुद्ध और पवित्र कल्पना करनी चाहिए, जिससे वह संसार ऊँचा बनता चला जाएं। अब समय मिलेगा, तो शेष वार्त्तायें कल उच्चारण कर सकूंगा।
पूज्य महानन्द जीः धन्य हो भगवन्! गुरुदेव! आज का आदेश तो हमें बहुत प्रिय लगा, परन्तु समय बड़ा सूक्ष्म।
विषय
देने का प्रयोजन ।
भावार्थ
प्रश्न ] ( कः अदात् ) कौन देता है ? और ( कस्मै अदात् ) किसको देता है ? [ उत्तर ] ( कामः अदात् ) कामना करनेवाला, अपने मनोरथ पूर्ण करने का इच्छुक स्वामी ( अदात् ) अपने अधीन पुरुषों को द्रव्य,अन्न आदि प्रदान करता है। और ( कामाय ) उस नियत द्रव्य को लेने के अभिलाषी पुरुष को ही वह प्रदान करता है । वस्तुतः ( कामः दाता ) मनोरथ या आवश्यकता वाला पुरुष ही प्रदान करता है। ( कामः ) इच्छुक या आवश्यकता वाला ही ( प्रतिग्रहीता ) उस दिये धनको लेता है । ( एतत् ) यह सब लेन देन का कार्य हे (काम) अभिलाषी ! हे संकल्प ! हे इच्छा ! ( ते ) तेरा ही है॥ शत० ४ । ३ । ४ । ३२-३३ ॥
ईश्वर पक्ष में - ( कः अदात् कस्मै अदात् ) कौन ? किसको देता है ? ( कामः कामाय अदात् ) महान् कमनीमय, संकल्पमय परमेश्वर संकल्पकारी इच्छावान् जीव को कर्मफल देता है । सबकी कामना का विषय परमेश्वर भी 'काम' है वही दाता है। और कामनावान् 'काम' जीव प्रतिग्रहीता लेनदार है । हे काम ! जीव ! ( एतत् ) यह वेदाज्ञा तभी तुझ जीव के लिये ही देता हूं । विवाहादि में स्त्री पुरुष एक दूसरे को अपने आप समर्पण करते हैं। वहां भी लेने कीइच्छावाला लेता, देने की इच्छा वाला अभिलाषुक प्रेमी देता है । इत्यादि स्पष्ट है । समस्त लेन देन पारस्परिक लेन देन की इच्छा या कामना से ही है । अन्यथा नहीं ||
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काम: आत्मा देवता । आर्ष्युष्णिक् । ऋषभः ॥
विषय
अब ईश्वर जीवों को उपदेश करता है ।।
भाषार्थ
[प्रश्न] (कः) कौन (अदात्) कर्म-फल देता है ? (कस्मै) किसको (अदात्) कर्मफल देता है? (कामः) कामना करने वाला परमेश्वर (अदात्) कर्म-फल देता है । (कामाय) कामना करने वाले जीव को (अदात्) कर्म-फल देता है। (कामः) सब योगी जनों से कामना करने योग्यपरमेश्वर (दाता) सब पदार्थों का दाता है और (कामः) जीव (प्रतिग्रहीता) उन्हें ग्रहण करने वाला है।हे (काम) कामना करने वाले जीव ! (ते) तेरे लिये (एतद्) यह सब आज्ञा मैंने दी है, ऐसा तू निश्चय जान ॥ ७ । ४८ ।।
भावार्थ
अत्यन्त कामातुरता और निष्कामता किसी के लिये भी श्रेष्ठ नहीं, क्योंकि जो कामना न करे तो वेदों का ज्ञान और वेदविहित उत्तम कर्म किसी से न हो सकें ।। मनुष्यों को निश्चय करना चाहिये कि निष्काम पुरुष में नेत्र का संकोच-विकास का होना भी सर्वथा असम्भव है। इससे यह सिद्ध होता है कि जो-जो कुछ भी करता है वह-वह चेष्टा कामना के बिनानहीं है ।" (सत्यार्थ०समु० ३) ॥ ७ । ४८ ॥
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत. (४।३।४।३२) में की गई है।।
भाष्यसार
ईश्वर का जीवों को उपदेश--कर्मों का फल कौन देता है? ईश्वर। किस को देता है? जीव को। ईश्वर कैसा है ? जिसकी सब योगी लोग कामना करते हैं।सब पदार्थों को देने वाला कौन है ? ईश्वर । ग्रहण करने वाला कौन है ? जीव । इस प्रकार प्रश्न-उत्तर रूप में ईश्वर ने जीवों को उपदेश किया है कि कामना के बिना कोई चक्षु का निमेष-उन्मेष भी नहीं कर सकता । अतः मनुष्य विचारपूर्वक धर्म की ही कामना करे; अधर्म की नहीं । यह ईश्वर की आज्ञा है ॥ ७ । ४८ ।।
विशेष
पूर्वापराध्यायसंगतिमाह इस अध्याय में—बाहर-भीतर का व्यवहार (१), मनुष्यों का परस्पर बर्ताव (२), आत्मा के कर्म (३), आत्मा में मन की प्रवृत्ति (४), प्रथम कल्प योगी के लिये ईश्वर का उपदेश (५), जिज्ञासु के प्रति ईश्वरोपदेश (६),योगी के कर्म (७), योगी का लक्षण (८), अध्यापक और शिष्य के कर्म (९-१०), योगविद्या के अभ्यासियों के कर्म (११), योग से अन्तःकरण की शुद्धि (१२), योगाभ्यासी का लक्षण (१३), शिष्य और अध्यापक का व्यवहार (१४), स्वामी और सेवक का कर्त्तव्य (१५), न्यायाधीश के द्वारा प्रजा की रक्षा का प्रकार (१८), राजा और सभ्य जनों का कर्त्तव्य (१९), राजा को उपदेश करना (२०), राजाओं के कार्य (२१), परीक्षा करके सेनापति बनाना (२२), पूर्ण विद्वान् को सभापति का अधिकार (२३), विद्वानों का कर्त्तव्य (२४), ईश्वर के उपासक के लिये उपदेश (२५), यज्ञानुष्ठाता का विषय (२६-२८), प्रजा आदि के प्रति सभापति का बर्त्ताव (२९-३०), राजा और प्रजा जनों का सत्कार (३१-३२), अध्यापक और अध्येताओं की परस्पर प्रवृत्ति (३३), प्रतिदिन अध्ययन एवं विद्या की वृद्धि (३४), राजा का कर्त्तव्य कर्म (३५, ३६), सेनापति का कर्त्तव्य (३७), सभाध्यक्ष आदि का कार्य (३८), ईश्वर के गुणों का वर्णन (३९-४२), ईश्वर-प्रार्थना (४३), शूरवीर के द्वारा युद्धानुष्ठान (४४), सेना के पुरुषों का कर्त्तव्य (४५), ब्रह्मचर्य सेवन का प्रकार (४७), ईश्वर का जीवों के प्रति उपदेश है। अतः इस अध्याय की उक्त षष्ठ अध्याय के अर्थ के साथ संगति है ।। ७ ।। इति श्रीयुतपण्डितसुदर्शनदेवाचार्यकृते दयानन्द-वेदभाष्य-भास्करे सप्तमोऽध्यायः॥
मराठी (2)
भावार्थ
या जगात जीव हा कर्म करणारा व ईश्वर (कर्माचे) फळ देणारा आहे. इच्छेशिवाय कोणी डोळ्याची पापणीही हलवू शकत नाही. त्यासाठी जीवाने धर्माची इच्छा बाळगावी, अधर्माची इच्छा बाळगू नये, हे सर्वांनी जाणले पाहिजे. याबाबत मनूने जे सांगितले आहे, ते वेदानुकूल आहे, याची निश्चयपूर्वक जाण हवी. या जगात अत्यंत कामना ही जशी प्रशंसनीय नसते, तसेच कामनेखेरीज कोणतेही कार्य सिद्ध होऊ शकत नाही, हेही तितकेच खरे होय. त्यासाठी धर्माची कामना केली पाहिजे, अधर्माची नव्हे. त्याचे कारण असे की वेदाचे अध्ययन, अध्यापन, वेदोक्त धर्माचे आचरण कामनेखेरीज सिद्ध होऊ शकत नाही. या जगात इच्छेशिवाय तिन्ही काळीही कोणतेच कर्म घडू शकत नाही. मनुष्य जे जे कर्म करतो तो तो इच्छेचा व्यापारच असतो. त्यासाठी श्रेष्ठ अशा वेदोक्त कर्माची इच्छा धरावी, दुष्ट कर्माची नव्हे.
विषय
पुढील मंत्रात ईश्वराने जीवांना उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
पदार्थ - (परमेश्राने जीवास आज्ञा केली आहे प्रारंभी प्रश्न विचारून नंतर (त्यांची उत्तरे दिली आहेत) (क:) कर्माचे फळ कोण (अदात्) देतो? आणि (करमे) कोणाला कर्माचे फळ (अदात्) देतो? या दोन प्रश्नांची उत्तरे अशी - (काम:) ज्यात सर्वजण कामना करतात, तो परमेश्वर (अदात्) देतो आणि कामना करतात, तो परमेश्वर (अदात्) देतो आणि (कामाय) कामना करणार्या जीवाला (आत्म्याला) (अदात्) देतो. यानंतर या मंत्राना विशेष अर्थ प्रगट केला आहे. तो असा की (काम:) योगीजन ज्याची कामना करतात, तो परमेश्वर (दाता) देणारा आहे आणि (काम:) कामना करणारा जीव (प्रतिग्रहीता) घेणारा वा भोगणारा आहे. हे (काम) कामना करणार्या जीवा (ते) तुझ्यासाठी मी वेदांद्वारे (एतत्) अशा प्रकारे ही आज्ञा केली आहे हे तू निश्चयाने जाणून घे ॥48॥
भावार्थ
भावार्थ - या संसारात जीव हा कर्म करणारा आणि ईश्वर हा फळ देणारा आहे. इथे हे जाणून घ्यावे (स्पष्टपणे लक्षात असू द्यावे) की कामना केल्याशिवाय (अन्य कर्म तर दूरच) डोळ्याच्या पापण्या देखील कोणी डालवू शतकत नाही. यामुळे जीवाने कामाना अवश्य करावी, पण ती कामना धर्मासंबंधी असावी, अधर्मासाठी नव्हे. याशिवाय मनु महाराज यांनी जे सांगितले आहे, ते वेदानुकूल आहे, असे सर्वांना निश्चयाने समजावे. तसे पाहता या संसारात अतिकामना करणे प्रशंसनीय नाही, पण हे ही सत्य की कामना केल्याशिवाय जगात कोणतेही कार्य सिद्ध होत नाही. यामुळे कामना करावी तर धर्माची, अधर्माची कदापी नव्हे. वेदांचे पठन-पाठन (अध्ययन, अध्यापन) आणि वेदोक्त धर्माचे आचारण आदी कार्य कामना म्हणजे इच्छेविना केव्हांही पूर्ण होऊ शकत नाही. या जगात त्रिकाळात इच्छेविना कोणतीही क्रिया संपन्न होताना दिसत नाही. जे जे केले जात आहे, ते ते सर्व इच्छेचाच व्यापार आहे. यामुळे मनुष्याने श्रेष्ठ वेदोन्त कर्माचीच कामना करावी, अन्य दुष्कर्मांची मुळीच नको ॥48॥
टिप्पणी
या सातव्या अध्यायात खालील विषयांचे वर्णन केले आहे - अंतर्बाह्य व्यवहार, मनुष्यांची एकमेकाशी वागणूक, आत्म्याचे कर्म, आत्म्यात मनाची प्रकृती, प्रथम सिद्धयोग्यासाठी ईश्वराने केलेला उपदेश, ज्ञा जिज्ञासूने योगाभ्यास करावा, योगाचे लक्षण, अध्ययन-अध्यापनाची रीती, योगविद्येच्या अभ्यासकाची वर्तणूक, योगविद्येद्वारे अंत:करण शुद्धी, योगाभ्यासाचे लक्षण, गुरु-शिष्याचे एकमेकाशी आचरण, स्वामि-सेवकाचे आचरण, न्यायाधीशाने कशाप्रकारे प्रजेचे रक्षण करावे, राजपुरुष आणि सभासदांचे कर्त्तव्य-कर्म, राजाचा उपदेश, राजांची कर्त्तव्यें, योग्य व आवश्यक परीक्षा करून सेनापतीची नियुक्ती, पूर्ण विद्वानालाच सभापतीपदी नेमणे, विद्वानांची कर्त्तव्ये, उपासकास ईश्वराचा उपदेश, यज्ञानुष्ठान करणार्याविषयी, प्रजाजनांशी सभापतीचे व्यवहार, राजा आणि प्रजाजनांचा सत्कार, गुरु-शिष्याची आसपातील वर्तणूक, नित्य पठनाचे विषय, विद्येची वृद्धी करणे, राजाची कर्त्तव्य-कर्में, सेनापतीची कर्त्तव्य-कर्में, सभाध्यक्षासाठी आचरणाचे नियम, ईश्वराच्या गुणांचे वर्णन, त्याची प्रार्थना, शूरवीरांसाठी युद्धाचे नियम, सैनिकांची कर्त्तव्यें, ब्रह्मचर्य धारणाची रीती आणि ईश्वराचा जीवांप्रत उपदेश, ॥ या सर्व विषयांची संगती मागील सहाव्या अध्यायाच्या अर्थाशी आहे, हे जाणून असावे. ॥^महर्षी दयानंद सरस्वतीकृत हिंदी वेदभाष्याचा सातवा अध्याय समाप्त
इंग्लिश (3)
Meaning
Who bestows. Upon whom does he bestow ? God bestows. To soul is bestowed the fruit of its actions. God is the giver and soul the receiver. O soul, for thy benefit, do I give this Vedic instruction.
Meaning
Who gives? For whom . . . . ? Desire gives. Gives for desire. Desire is the giver. Desire is the receiver. It is all desire. Love for you! For fulfilment. Who gives the fruit of karma? To whom does the giver give the fruit of karma? Ishwara, Divine love and desire, gives the fruit of karma. He gives the fruit of karma to the jiva, the soul, who desires and acts the karma. Ishwara is the object of love and desire for the yogis. He is the giver. The jiva desires and acts out of desire. He is the receiver of the fruit. It is all desire. This is for you — the knowledge. It is for you to know. (You cannot live without desire, and you cannot survive only with desire. Integrate desire (kama) with Dharma and Artha, and you’ll have both life and freedom (moksha).
Translation
Who gives? To whom does he give? It is desire that gives; and it is to the desire that he gives. Desire is the giver and the desire is the receiver. O desire, to you I dedicate it. (1)
Notes
Kamah, desire. Even a donor has some desire while giving charities. So the desire 15 supreme.
बंगाली (1)
विषय
অথেশ্বরো জীবানুপদিশতি ॥
এখন পরবর্ত্তী মন্ত্রে ঈশ্বর জীবদিগকে উপদেশ করেন ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- (কঃ) কে কর্মফল (অদাৎ) প্রদান করে এবং (কস্মৈ) কাহার জন্য (অদাৎ) প্রদান করে? এই দুটি প্রশ্নের উত্তর (কামঃ) যাহার কামনা সকলে করিয়া থাকেন সেই পরমেশ্বর (অদাৎ) প্রদান করে এবং (কামায়) কামনাকারী জীবকে (অধাৎ) প্রদান করে । এখন বিবেক সম্পন্ন হইয়া বলি যে, (কামঃ) যাহার যোগিগণ কামনা করেন সেই পরমেশ্বর (দাতা) দাতা, (কামঃ) কামনাকারী জীব (প্রতিগ্রহীতা) গ্রহীতা । হে (কাম) কামনাকারী জীব ! (তে) তোমার জন্য আমি বেদ দ্বারা (এতন্) এই সমস্ত আজ্ঞা প্রদান করিয়াছি এমন তুমি নিশ্চয় পূর্বক জানিয়া লহ ॥ ৪৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই সংসারে জীব কর্ম্ম করে, ঈশ্বর তাহার ফল দান করেন । এখানে ইহা জানা উচিত যে, কামনা বিনা চোখের পলকও নড়া-চড়া করে না । এই কারণে জীব কামনা করিবে কিন্তু ধর্ম্ম সম্বন্ধী কামনা করিবে অধর্মের নহে । যেমন এই সংসারে অতি কামনা প্রশংসনীয় নহে এবং কামনা ব্যতীত কোন কার্য্য সিদ্ধ হইতে পারে না এইজন্য ধর্মের কামনা করা উচিত, অধর্মের নহে কেননা বেদের পঠন-পাঠন এবং বৈদিক ধর্ম্মের আচরণ করা ইত্যাদি কামনা ইচ্ছা বিনা কখনও সিদ্ধ হইতে পারে না ॥ ১ ॥
এই সংসারে তিন কালে ইচ্ছা ব্যতীত কোন ক্রিয়া লক্ষিত হয় না সুতরাং সব কিছু ইচ্ছার ব্যাপার । এইজন্য শ্রেষ্ঠ বেদোক্ত কর্ম্মের ইচ্ছা করা উচিত ইতর দুষ্ট কর্ম্মের নহে ॥ ৪৮ ॥
এই অধ্যায়ে বাহির ভিতরের ব্যবহার, মনুষ্যদিগের পারস্পরিক ব্যবহার, আত্মার কর্ম্ম, আত্মায় মনের প্রবৃত্তি প্রথম সিদ্ধ যোগীদের জন্য ঈশ্বরের উপদেশ, জ্ঞান-জিজ্ঞাসুকে যোগাভ্যাস করা, যোগের লক্ষণ, পঠন-পাঠনকারীদিগের রীতি, যোগবিদ্যার অভ্যাসকারীর ব্যবহার, যোগবিদ্যা দ্বারা অন্তঃকরণের শুদ্ধি, যোগাভ্যাসের লক্ষণ, গুরু-শিষ্যের পরস্পর ব্যবহার স্বামী-সেবকের ব্যবহার, ন্যায়াধীশের প্রজারক্ষা করিবার নীতি, রাজপুরুষ এবং সভাসদ্দিগের কর্ম্ম, রাজার উপদেশ, রাজাদের কর্ত্তব্য, পরীক্ষা করিয়া সেনাপতি নির্বাচন, পূর্ণ বিদ্বান্কে সভাপতির অধিকার দেওয়া, বিদ্বান্দিগের কর্ত্তব্য কর্ম্ম ঈশ্বরের উপাসককে উপদেশ, যজ্ঞানুষ্ঠান কারীর বিষয়, প্রজাগণ ইত্যাদির সহিত সভাপতির ব্যবহার, রাজা ও প্রজাগণের সৎকার গুরু-শিষ্যের পরস্পর প্রবৃত্তি, নিত্য পাঠ করিবার বিষয়, বিদ্যার বৃদ্ধি করা, রাজার কর্ত্তব্য, সেনাপতির কর্ম্ম, সভাধ্যক্ষের ক্রিয়া, ঈশ্বরের গুণ বর্ণন, তাঁহার প্রার্থনা, শূরবীরদের যুদ্ধের অনুষ্ঠান সেনার মধ্যে থাকা পুরুষদিগের কর্ত্তব্য, ব্রহ্মচর্য্য সেবনের রীতি এবং ঈশ্বরের জীবদিগের প্রতি উপদেশ, এই বর্ণনা হওয়ায় সপ্তম অধ্যায়ের অর্থের ষষ্ঠাধ্যায়ের অর্থ সহ সঙ্গতি জানিতে হইবে ॥
ইতি শ্রীমৎপরিব্রাজকাচার্য়্যেণ শ্রীয়ুত মহাবিদুষাং বিরজানন্দ সরস্বতীস্বামিনাং
শিষ্যেণ দয়ানন্দসরস্বতী স্বামিনা বিরচিতে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে
সুপ্রমানয়ুক্তে য়জুর্বেদভাষ্যে সপ্তমোऽধ্যায়ঃ পূর্ত্তিমগাৎ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
কো॑ऽদা॒ৎ কস্মা॑ऽঅদা॒ৎ কামো॑ऽদা॒ৎ কামা॑য়াদাৎ ।
কামো॑ দা॒তা কামঃ॑ প্রতিগ্রহী॒তা কামৈ॒তত্তে॑ ॥ ৪৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
কোऽদাদিত্যস্যাঙ্গিরস ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । আর্ষ্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
ঋষভঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal