यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 10
ऋषिः - त्रिसदस्युर्ऋषिः
देवता - मित्रावरुणौ देवते
छन्दः - ब्राह्मी बृहती,
स्वरः - मध्यमः
83
रा॒या व॒यꣳ स॑स॒वासो॑ मदेम ह॒व्येन॑ दे॒वा यव॑सेन॒ गावः॑। तां धे॒नुं मि॑त्रावरुणा यु॒वं नो॑ वि॒श्वाहा॑ धत्त॒मन॑पस्फुरन्तीमे॒ष ते॒ योनि॑र्ऋता॒युभ्यां॑ त्वा॥१०॥
स्वर सहित पद पाठरा॒या। व॒यम्। स॒स॒वास॒ इति॑ सस॒ऽवासः॑। म॒दे॒म॒। ह॒व्ये॑न। दे॒वाः। यव॑सेन। गावः॑। ताम्। धे॒नुम्। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। यु॒वम्। नः॒। वि॒श्वाहा॑। ध॒त्त॒म्। अन॑पस्फुरन्ती॒मित्यन॑पऽस्फुरन्तीम्। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। ऋ॒ता॒युभ्या॑म्। ऋ॒त॒युभ्या॑मित्यृ॑तयुऽभ्या॑म्। त्वा॒ ॥१०॥
स्वर रहित मन्त्र
राया वयँ ससवाँसो मदेम हव्येन देवा यवसेन गावः । तान्धेनुम्मित्रावरुणा युवन्नो विश्वाहा धत्तमनपस्फुरन्तीमेष ते योनिरृतायुभ्यान्त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
राया। वयम्। ससवास इति ससऽवासः। मदेम। हव्येन। देवाः। यवसेन। गावः। ताम्। धेनुम्। मित्रावरुणा। युवम्। नः। विश्वाहा। धत्तम्। अनपस्फुरन्तीमित्यनपऽस्फुरन्तीम्। एषः। ते। योनिः। ऋतायुभ्याम्। ऋतयुभ्यामित्यृतयुऽभ्याम्। त्वा॥१०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनरेतयोः कृत्यमाह॥
अन्वयः
ससवांसो देवा वयं यवसेन गाव इव हव्येन राया मदेम। हे मित्रावरुणा! युवं युवां नोऽस्मभ्यं विश्वाहा विश्वान्यहान्यनपस्फुरन्तीं तां धेनुं धत्तम्। हे यजमान! यस्यैष ते विद्याबोधो योनिरस्ति, अत ऋतायुभ्यां सहितं त्वा त्वां वयमाददीमहे॥१०॥
पदार्थः
(राया) धनेन सह (वयम्) पुरुषार्थिनः (ससवांसः) संविभक्ताः (मदेम) हृष्येम (हव्येन) गृहीतव्येन (देवाः) विद्वांसः (यवसेन) अभीष्टेन तृणबुसादिना (गावः) गवादयः पशवः (ताम्) (धेनुम्) धयति पिबत्यानन्दरसमनया ताम्। धेनुरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰१।११) (मित्रावरुणा) प्राणवत् सखायावुत्तमौ जनौ (युवम्) युवाम् (नः) अस्मभ्यम् (विश्वाहा) सर्वाणि दिनानि (धत्तम्) (अनपस्फुरन्तीम्) विज्ञापयित्रीमिव योगविद्याजन्यां वाचम् (एषः) (ते) (योनिः) (ऋतायुभ्याम्) आत्मन ऋतमिच्छद्भ्यामिव (त्वा) त्वाम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। १। ४। १०) व्याख्यातः॥१०॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैः पुरुषार्थेन विद्वत्संगेन च परोपकारनिष्पादयित्रीं कामदुघां वेदवाचं प्राप्यानन्दयितव्यमिति॥१०॥
विषयः
पुनरेतयोः कृत्यमाह।।
सपदार्थान्वयः
हे ससवांसः संविभक्ताः देवाः! विद्वांसः! वयं पुरुषार्थिनः यवसेन अभीष्टेन तृणबुसादिना गाव: गवादयः पशव इवहव्येन ग्रहीतव्येन राया धनेन सह मदेम हृष्येम। हे मित्रावरुणा! प्राणवत् सखायावुत्तमौजनौ! युवं=युवां नः=अस्मभ्यं विश्वाहा=विश्वान्यहानि सर्वाणि दिनानि अनपस्फुरन्तीं विज्ञापयित्रीमिव योगविद्याजन्यां वाचं तां धेनुं धयति=पिबत्यानन्दरसमनया तां धत्तम्। हे यजमान! यस्यैष ते विद्याबोधो योनिरस्तिअतऋतायुभ्याम् आत्मन ऋतमिच्छद्भ्यामिव सहितं त्वा=त्वां वयं पुरुषार्थिनः आददीमहे ।। ७ । १०।। [हे मित्रावरुणा! युवं=युवां नः=अस्मभ्यंविश्वाहा=विश्वान्यहान्यनपस्फुरन्तीं तां धेनुं धत्तम्]
पदार्थः
(राया) धनेन सह (वयम्) पुरुषार्थिन: (ससवांसः) संविभक्ताः (मदेम) हृष्येम (हव्येन) गृहीतव्येन (देव:) विद्वांसः (यवसेन) अभीष्टेन तृणबुसादिना (गाव:) गवादयः पशवः (ताम्) (धेनुम्) धयति=पिबत्यानन्दरसमनया ताम्। धेनुरिति वाङ् नामसु पठितम् ॥ निघं० १ । ११।। (मित्रावरुणा) प्राणवत् सखायावुत्तमौ जनौ (युवम्) युवाम् (नः) अस्मभ्यम् (विश्वाहा) सर्वाणि दिनानि (धत्तम्) (अनपस्फुरन्तीम्) विज्ञापयित्रीमिव योगविद्याजन्यां वाचम् (एषः) (ते) (योनिः) (ऋतायुभ्याम्) आत्मन ऋतमिच्छद्भ्यामिव (त्वा) त्वाम्॥ अयम्मन्त्रः शत० ४ । १ । ४ । १० व्याख्यातः ।। १०।।
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ॥ मनुष्यैः पुरुषार्थेन विद्वत्संगेन च परोपकारनिष्पादयित्रीं कामदुघां वेदवाचं प्राप्यानन्दयितव्यम् ।। ७ । १० ।।
भावार्थ पदार्थः
अनपस्फुरन्तीम्=परोकारनिष्पादयित्रीं वेदवाचम्। धेनुम्=कामदुघाम्॥
विशेषः
त्रिसदस्युं। मित्रावरुणौ=उत्तमौ योगिजनौ। ब्राह्मी बृहती। मध्यमः ।
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी योग पढ़ने-पढ़ाने वालो के कृत्य का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
(हे ससवांसः) भले-बुरे के अलग-अलग करने वाले (देवाः) विद्वानो! आप और (वयम्) हम लोग (यवसेन) तृण, घास, भूसा से (गावः) गौ आदि पशुओं के समान (हव्येन) ग्रहण करने के योग्य (राया) धन से (मदेम) हर्षित हों और हे (मित्रावरुणा) प्राण के समान उत्तम जनो! (युवम्) तुम दोनों (नः) हमारे लिये (विश्वाहा) सब दिनों में (अनपस्फुरन्तीम्) ठीक-ठीक ज्ञान देने वाली (धेनुम्) वाणी को (धत्तम्) धारण कीजिये। हे यजमान! जिससे (ते) तेरा (एषः) यह विद्याबोध (योनिः) घर है, इससे (ऋतायुभ्याम्) सत्य व्यवहार चाहने वालों के सहित (त्वा) तुझ को हम लोग स्वीकार करते हैं॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि अपने पुरुषार्थ और विद्वानों के संग से परोपकार की सिद्धि और कामना को पूर्ण करने वाली वेदवाणी को प्राप्त होकर आनन्द में रहें॥१०॥
विषय
ऋत और आयु
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र की भावना के अनुसार जब हम सचमुच मित्र व वरुण बनकर प्रभु के सच्चे उपासक बनते हैं तब प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘त्रसदस्यु’ बनते हैं। त्रस = डरते हैं दस्यु = दुष्टभाव जिससे। जिसमें आसुर वृत्तियाँ बिल्कुल नहीं होतीं, ऐसे त्रसदस्यु बनकर ( वयम् ) = हम ( राया ) = धन से ( ससवांसः ) = संभक्त हुए-हुए, अर्थात् संविभागपूर्वक धन को प्राप्त हुए-हुए ( मदेम ) = इस प्रकार आनन्द अनुभव करें जैसेकि ( देवाः ) = देव ( हव्येन ) = हव्य पदार्थों से प्रसन्न होते हैं और ( गावः ) = गौ आदि पशु ( यवसेन ) = अपने चारे [ fodder ] से प्रसन्न होते हैं। अथवा जब हम धन प्राप्त करें तो उस धन में से देवताओं को भी हव्य प्राप्त हो और गौवों को भी यवस प्राप्त हो। हमारे धन में देवों व गवादि पशुओं का भी भाग हो। यही देवयज्ञ व बलिवैश्वदेव यज्ञ कहलाते हैं।
२. प्रभु इन मित्र और वरुण बननेवालों से कहते हैं कि हे ( मित्रावरुणा ) = स्नेह करनेवाले व द्वेष को दूर भगाानेवाले! ( युवम् ) = तुम ( नः तां धेनुम् ) = हमारी वेदवाणीरूप गौ को ( अनपस्फुरन्तीम् ) = मन में फुरती हुई को ( विश्वाहा ) = सदा ( धत्तम् ) = धारण करो। तुम्हें वेदवाणी स्पष्ट हो। तुम वेदवाणीरूप धेनु के ज्ञानदुग्ध का पान करनेवाले बनो।
३. इस वाणी के स्फुरण के लिए आवश्यक है कि हम सोम की रक्षा करनेवाले बनें, अतः प्रभु कहते हैं कि हे सोम! ( एषः ते योनिः ) = यह शरीर ही तेरी योनि है, उत्पत्ति व निवासस्थान है। इस शरीर में ही तूने रहना है। ( त्वा ) = तुझे ( ऋतायुभ्याम् ) = ऋत और आयु के लिए इस शरीर में स्थपित करता हूँ। शरीर में ‘सब क्रियाएँ ठीक-ठीक चलें और दीर्घ जीवन प्राप्त हो’ इसीलिए सोम का उत्पादन हुआ है। ऋत और आयु शब्द मित्र और वरुण के लिए भी प्रयुक्त होते हैं, अतः मित्र और वरुण के लिए तुझे स्थापित करता हूँ। [ मित्राः ऋतं वरुण एव वायुः—श० ४।१।४।१० ] अथवा ऋत को चाहनेवाले पति-पत्नी के लिए तुझे स्थापित करता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ — सोमरक्षा द्वारा हमारा जीवन ऋतमय हो और हम दीर्घायुष्य प्राप्त करें।
विषय
मित्र और वरुण, ब्राह्मण और क्षत्रिय गण ।
भावार्थ
हे ( मित्रावरुणा ) मित्र और हे वरुण ! हे ब्राह्मणगण, और हे क्षत्रगण ? जिस रसपान कराने वाली वेदवाणियों की व्यवस्था के अनुसार (वयम् ) हम लोग ( राया ) ऐश्वर्य का ( ससवांसः ) विभाग करते हुए जैसे ( देवाः) देव, विद्वानगण अपने अभिलषित ज्ञान से और ( गावः यवसेन ) गौ आदि पशु जिस प्रकार दैनिक चारा पाकर प्रसन्न होते हैं उसी प्रकार प्रसन्न हो ( ताम् धेनुम् ) उस धेनु सर्वरस पिलाने वाली वाणी, गौ और पृथिवी को ( युवम् ) आप दोनों ( विश्वाहा ) सब दिन, नित्य ( अनपस्फुरन्तीम् ) विना कष्ट के, व्यथारहित रूप से, उसे बिना तड़ पाए धत्तम् ) उसका धारण पोषण करो। या उसको ऐसे पालन करो कि वह कष्ट पाकर किसी और के पास न चली जाय । हे राजन् ! ( एष ते योनिः ) तेरा यही ब्राह्मण और क्षत्रियगण, मित्र और वरुण दोनों आश्रय स्थान हैं ( ऋतायुभ्याम् त्वा ) अर्थात् सत्य ज्ञान और आयु अर्थात् निर्विघ्न दीर्घ आयु दोनों के प्राप्त करने के लिये (त्वा) तुझ योग्य पुरुष को नियुक्त करता हूं । शत० - ४ । १।४ ।१०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रसदस्युऋषिः। मित्रावरुणौ देवते । ब्राह्मी बृहती । मध्यमः ॥
विषय
फिर भी योग पढ़ने-पढ़ाने वालों के कृत्य का उपदेश किया है ॥
भाषार्थ
हे (ससवांसः) बुरे-भले कर्मों का विवेक करने वाले (देवाः) विद्वानो ! (वयम्) हम पुरुषार्थी लोग, (यवसेन) अभीष्ट तृण, भूसा आदि से (गाव:) गौ आदि पशुओं के समान (हव्येन) ग्रहण करने योग्य (राया) धन से (मदेम) प्रसन्न रहें । हे (मित्रावरुणा) प्राण के समान सखा, उत्तम अध्यापक और शिष्य जनो ! (युवम्) तुम दोनों (नः) हमारे लिये (विश्वाहा) सब दिन (अनपस्फुरन्तीम् ) सब विद्याओं का उपदेश करने वाली, योगविद्या से उत्पन्न वेदवाणी जो (धेनुम्) आनन्दरस का पान कराने वाली कामधेनु है, उसे (धत्तम्) धारण करो। हे यजमान ! यह तेरा विद्याबोध (योनिः) घर के समान दुःख का निवारण करने वाला है, इसलिये (ऋतायुभ्याम्) उक्त अध्यापक और शिष्य दोनों विद्या के इच्छुक जनों सहित (त्वा) आपको (वयम्) हम पुरुषार्थी लोग स्वीकार करते हैं ।। ७ । १० ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है।।सब मनुष्य पुरुषार्थ और विद्वानों के संग से परोपकार को सिद्ध करने वाली कामधेनु रूप वेदवाणी को प्राप्त करके आनन्द में रहें ।। ७ । १० ।।
प्रमाणार्थ
(धेनुम्)'धेनु' शब्द निघं ० ( १ । ११) में वाणी-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । १ । ४ । १०) में की गई है ।। ७ । १० ।।
भाष्यसार
योगविद्या के अध्यापक और शिष्य के कर्म--विद्वान लोग सत्य और असत्य को संविभक्त करने वाले होते हैं और पुरुषार्थी लोग, जैसे गौ आदि पशु उत्तम तृण घास, और भूसा आदि से प्रसन्न होते हैं, वैसे ग्रहण करने योग्य धन से बड़े प्रसन्न होते हैं। योगविद्या के अध्यापक और शिष्य प्राण और उदान के समान पर परस्पर सखा होते हैं। वे दोनों सदा परोपकार को सिद्ध करने वाली, सब विद्याओं का उपदेश करने वाली, योगविद्या से प्राप्त करने योग्य, आनन्द रस का पान कराने वाली, कामधेनुरूप वेदवाणी को धारण करते हैं। जैसे घर सब दुःखों का निवारण करके सब सुख प्रदान करता है, उसी प्रकार विद्याबोध भीदुःखों का निवारक और सुखों का उत्पादक है। इसलिये सब मनुष्य पुरुषार्थ से और आत्मा से विद्या (विज्ञान) की कामना करने वाले विद्वानों के सङ्ग से उक्त वेदवाणी को प्राप्त करके सदा आनन्द में रहें।। ७ । १० ।।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी पुरुषार्थ करावा व विद्वानांच्या संगतीत राहून परोपकार करावा. मनोकामना पूर्ण करणाऱ्या वेदवाणीचा स्वीकार करून आनंदाने राहावे.
विषय
या पुढील मंत्रात देखील योगाध्यापक आणि योगसाधक यांच्या कार्यांच्याविषयी सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (ससवांस:) चांगले किंवा वाईट यामध्ये ज्याप्रमाणे (यवसेन) गवत- चारा यामुळे (गाव:) गायी आदी पशू आनन्दित होतात, त्याप्रमाणे तुम्ही आणि (वयम्) तुम्ही दोघे (न:) आमच्यासाठी (विश्वाहा) सर्व दिनीं सर्वकाळी (अनपस्फुरंतीम्) सत्यज्ञान करून देणारी (धेनुम्) वाणी (धतम्) धारणा करा (विद्वान म्हणतात) हे यमनाम, (ते) तुझी (एष:) ही जी विद्याप्राप्तीविषयी जिज्ञासा आहे, जे विद्यारुप (योनि:) घर आहे त्यानी (ऋतायुभ्याम्) सत्यव्यवहाराची कामना करणार्या अशा (त्वा) तुझा व तुझ्यासारख्या अन्य जिज्ञासू व्यक्तींचा आम्ही स्वीकार करतो ( (विद्यादान करण्यासाठी तुम्हाला पात्र समजून आपल्याजवळ घेतो ॥10॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा आणि वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहेत. मनुष्यांनी आपल्या पुरुषार्थ व श्रम करीत विद्वतजन्नाचा संग धरावा त्याद्वारे परोपकार करीत कामना पूर्ण करणार्या वेदवाणीला प्राप्त करून सदैव आनंदी असावे ॥10॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O student and teacher of yoga, the augmenters of true knowledge, living in unison like the vital breaths the Pran and udan, here is this your accomplished supremacy of yoga, Listen to my praise. O worshipper, thou art endowed with noble traits, I welcome thee, who controls the vital breaths, the Pran and Udan.
Meaning
Noble men of discriminative knowledge and wisdom, let us rejoice on wealth fit to be offered to the gods for food, rejoice just as cows enjoy the green grass. Teachers and students of yoga, friends like pranic energies, both of you attain and preserve for us the voice of divine knowledge, Veda, versatile and eternal giver of universal knowledge, revealed in the state of Samadhi. Yajamana, this knowledge is your element, your very home of existence. We do homage to you along with the seekers of divine law through yoga.
Translation
May we rejoice by possessing riches; may Nature's bounties rejoice with oblations and the cows with grass and fodder. O Lord, friendly and venerable, give us always the milch cow, that never fails to give milk. (1) This is your abode. You to the righteous (the Lord, friendly and venerable). (2)
Notes
Sasavansah, from पण संभक्तौ, to possess; being in possession of. Yavasena, with grass and fodder. Anapasphuran(üm, that which never resists milking; or never fails to give milk. Riüiyubhyam, ऋत शब्देन मित्र आयु शब्देन वरुण: इति श्रुति व्याख्या; Mitra and Varuna.
बंगाली (1)
विषय
পুনরেতয়োঃ কৃত্যমাহ ॥
পুনরায় যোগ অধ্যয়ন-অধ্যাপনকারীদের কর্মের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- (হে সসবাংপ্তঃ) ভাল-মন্দ পৃথককারী (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ ! আপনারা এবং (বয়ম্) আমরা (যবসেন) তৃণ-ঘাস ভূষি দ্বারা (গাবঃ) গাভি ইত্যাদি পশুদিগের সমান (হব্যেন) গৃহীতব্য (রায়া) ধন দ্বারা (মদেম) হর্ষিত হই এবং হে (মিত্রাবরুণা) প্রাণ-সমান উত্তম ব্যক্তিগণ ! (য়ুবম্) আপনারা উভয়ে (বঃ) আমাদের জন্য (বিশ্বাহা) সকল দিনে (অনপস্ফুরন্তীম্) সম্যক্ জ্ঞানদাত্রী (ধেনুম্) বাণীকে (ধত্তম্) ধারণ করুন । হে যজমান । (তে) তোমার (এষঃ) এই বিদ্যাবোধ (য়োনিঃ) গৃহ দ্বারা (ঋতায়ুভ্যাম্) সত্য ব্যবহার ইচ্ছাকারীদিগের সহিত (ত্বা) তোমাকে আমরা স্বীকার করি ॥ ১০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমা ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, স্বীয় পুরুষার্থ ও বিদ্বান্ দিগের সঙ্গ দ্বারা পরোপকার সিদ্ধি এবং কামনা পূর্ণকারী বেদবাণী প্রাপ্ত হইয়া আনন্দে থাকে ॥ ১০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
রা॒য়া ব॒য়ꣳ স॑স॒বাᳬंসো॑ মদেম হ॒ব্যেন॑ দে॒বা য়ব॑সেন॒ গাবঃ॑ ।
তাং ধে॒নুং মি॑ত্রাবরুণা য়ু॒বং নো॑ বি॒শ্বাহা॑ ধত্ত॒মন॑পস্ফুরন্তীমে॒ষ তে॒ য়োনি॑র্ঋতা॒য়ুভ্যাং॑ ত্বা ॥ ১০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
রায়া বয়মিত্যস্য ত্রিসদস্যুর্ঋষিঃ । মিত্রাবরুণৌ দেবতে । ব্রাহ্মী বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal