यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 39
ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - भूरिक् पङ्क्ति,साम्नी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
112
म॒हाँ२ऽइन्द्रो॑ नृ॒वदा च॑र्षणि॒प्राऽउ॒त द्वि॒बर्हा॑ऽअमि॒नः सहो॑भिः। अ॒स्म॒द्र्यग्वावृधे वी॒र्यायो॒रुः पृ॒थुः सुकृ॑तः क॒र्तृभि॑र्भूत्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि महे॒न्द्राय॑ त्वै॒ष ते॒ योनि॑र्महे॒न्द्राय॑ त्वा॥३९॥
स्वर सहित पद पाठम॒हान्। इन्द्रः॑। नृ॒वदिति॑ नृ॒ऽवत्। आ। च॒र्ष॒णि॒प्रा इति॑ चर्षणि॒ऽप्राः। उ॒त। द्वि॒बर्हा॒ इति॑ द्वि॒बर्हाः॑। अ॒मि॒नः। सहो॑भि॒रिति॒ सहः॑ऽभिः। अ॒स्म॒द्र्य᳖क्। वा॒वृ॒धे॒। व॒वृ॒ध॒ इति॑ ववृधे। वी॒र्य्या᳖य। उ॒रुः। पृ॒थुः। सुकृ॑त॒ इति॒ सुऽकृ॑तः। क॒र्तृभि॒रिति॑ क॒र्तृ॒ऽभिः॑। भू॒त्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। म॒हे॒न्द्रायेति॑ महाऽइ॒न्द्रा॑य। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। म॒हे॒न्द्रायेति॑ महाऽइ॒न्द्राय॑। त्वा॒ ॥३९॥
स्वर रहित मन्त्र
महाँ इन्द्रो नृवदा चर्षणिप्रा उत द्विबर्हा अमिनः सहोभिः । अस्मर्द्यग्वावृधे वीर्यायोरुः पृथुः सुकृतः कर्तृभिर्भूत् । उपयामगृहीतो सि महेन्द्राय त्वैष ते योनिर्महेन्द्राय त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
महान्। इन्द्रः। नृवदिति नृऽवत्। आ। चर्षणिप्रा इति चर्षणिऽप्राः। उत। द्विबर्हा इति द्विबर्हाः। अमिनः। सहोभिरिति सहःऽभिः। अस्मद्र्यक्। वावृधे। ववृध इति ववृधे। वीर्य्याय। उरुः। पृथुः। सुकृत इति सुऽकृतः। कर्तृभिरिति कर्तृऽभिः। भूत्। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। महेन्द्रायेति महाऽइन्द्राय। त्वा। एषः। ते। योनिः। महेन्द्रायेति महाऽइन्द्राय। त्वा॥३९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथेश्वरः स्वगुणानाह॥
अन्वयः
हे भगवन् जगदीश्वर! यतस्त्वमुपयामगृहीतोऽसि तस्मान्महेन्द्राय त्वा वयमुपास्महे, उतापि यतस्ते तवैष योनिरस्ति, तस्मात् त्वां महेन्द्राय वयं सेवामहे। यो महान् नृवदाचर्षणिप्रा द्विबर्हास्मद्र्यङ् अमिन उरुः पृथुः कर्तृभिः सह सुकृत इन्द्रो भूत्। तमेवाश्रितः सर्वो जनः सहोभिः सह वीर्य्याय वावृधे॥३९॥
पदार्थः
(महान्) सर्वोत्कृष्टः पूज्यतमश्च (इन्द्रः) अत्युत्कृष्टैश्वर्य्यैः (नृवत्) न्यायशीलैर्मनुष्यैस्तुल्यः (आ) (चर्षणिप्राः) चर्षणिप्राः मनुष्यान् प्राति सुखैः प्रपूरयति सः (उत) अपि (द्विबर्हाः) द्वे बर्हसी व्यावहारिकपारमार्थिकवृद्धिकरे विज्ञाने यस्य सः। द्विबर्हा इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰४।३) (अमिनः) अनुपमोऽतुलपराक्रमः। अमिनोऽमितमात्रो महान् भवत्यमितो वा। (निरु॰६।१६) (सहोभिः) बलैः (अस्मद्र्यक्) अस्मानञ्चति सर्वज्ञतया जानाति (वावृधे) वर्द्धते वर्द्धयति वा (वीर्य्याय) पराक्रमाय (उरुः) बहुः (पृथुः) विस्तीर्णः (सुकृतः) शोभनं कृतं क्रियते येन सः (कर्त्तृभिः) सुकर्म्मकारिभिर्जीवैः सह (भूत्) भवति, अत्राडभावः। (उपयामगृहीतः) योगाभ्यासेन स्वीकर्त्तुं योग्यः (असि) (महेन्द्राय) अनुत्तमायैश्वर्य्याय (त्वा) (एषः) (ते) (योनिः) (महेन्द्राय) (त्वा) त्वाम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। ३। ३। १८) व्याख्यातः॥३९॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ईश्वरमनाश्रित्य कश्चिदपि पुरुषः प्रजाः पालयितुं न शक्नोति। यथेश्वरः शाश्वतं न्यायमाश्रित्य सर्वान् प्राणिनः सुखयति, तथैव राजापि सर्वान् तर्पयेत्॥३९॥
विषयः
अथेश्वरः स्वगुणानाह॥
सपदार्थान्वयः
हे भगवन् जगदीश्वर ! यतस्त्वमुपयामगृहीतः योगाभ्यासेन स्वीकर्तुं योग्यः असि, तस्मान्महेन्द्राय अनुत्तमायैश्वर्याय त्वा वयमुपास्महे, उत= श्रपि यतस्ते तवैष योनिरस्ति, तस्मात् [त्वा] त्वां महेन्द्राय अनुत्तमायैश्वर्य्याय वयं सेवामहे । यो महान् सर्वोत्कृष्टः पूज्यतमश्च नृवत् न्यायशीलैर्मनुष्यैस्तुल्यः आचर्षणिप्राः चर्षणीन्=मनुष्यान् प्राति=सुखैः प्रपूरयति सः द्विबर्हाः द्वे बर्हसी=व्यावहारिकपारमार्थिकवृद्धिकरे विज्ञाने यस्य सः अस्मद्र्यक् अस्मानञ्चति=सर्वज्ञतया जानाति अमिन: अनुपमोऽतुलपराक्रमः उरुः बहुः पृथुः विस्तीर्णः कर्तृभिः सुकर्म्मकारिभिर्जीवैःसह सुकृतः शोभनं कृतं क्रियते येन सः इन्द्रः अत्युत्कृष्टैश्वर्यः भूत् भवति, तमेवाश्रितः सर्वोजनः सहोभिः बलैः सह वीर्य्याय पराक्रमाय वावृधे वर्द्धते वर्द्धयति वा ॥ ७ । ३९।। [यो महान्.......इन्द्रो भूत्, तमेवाश्रितः सर्वोजनः सहोभिः सह वीर्याय वावृधे]
पदार्थः
(महान्) सर्वोत्कृष्टः पूज्यतमश्च (इन्द्रः) अत्युत्कृष्टैश्वर्यः (नृवत्) न्यायशीलैर्मनुष्यैस्तुल्यः (आ) (चर्षणिप्राः) चर्षणीन्= मनुष्यान् प्राति=सुखैः प्रपूरयति सः (उत) अपि (द्विबर्हाः) द्वे बर्हसी=व्यावहारिकपारमार्थिकवृद्धिकरे विज्ञाने यस्य सः । द्विबर्हा इति पदनामसु पठितम् ॥ निघं० ४ । ३ ॥ (अमिनः) अनुपमोऽतुलपराक्रमः। अमिनो मितमात्रो महान् भवत्यमितो वा ॥ निरु० ६ । १६ ॥ (सहोभिः) बलैः (अस्मद्र्यक् ) अस्मानञ्चति सर्वज्ञतया जानाति (वावृधे) वर्द्धते वर्द्धयति वा (वीर्य्याय) पराक्रमाय (उरु:) बहुः (पृथुः) विस्तीर्णः (सुकृतः) शोभनं कृतं क्रियते येन सः (कर्तृभिः) सुकर्म्मकारिभिर्जीवैः सह (भूत्) भवति, अत्राडभावः (उपयामगृहीतः) योगाभ्यासेन स्वीकर्त्तुं योग्यः (असि) (महेन्द्राय) अनुत्तमायैश्वर्य्याय (त्वा) (एष:) (ते) (योनिः) (महेन्द्राय) (त्वा) त्वाम् । अयं मन्त्रः शत० ४ । ३ । ३ । १८ व्याख्यातः ।। ३९।।
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः।।ईश्वरमनाश्रित्य कश्चिदपि पुरुषः प्रजाः पालयितुं न शक्नोति, यथेश्वरः शाश्वतं न्यायमाश्रित्य सर्वान् प्राणिनः सुखयति, तथैव राजापि सर्वान् तर्पयेत् ।। ७ । ३९।।
विशेषः
महानित्यस्य भरद्वाजः। प्रजापतिः=जगदीश्वरः।आद्यस्य भुरिक् पङ्क्तिः। पञ्चमः। उपयामेत्यस्य साम्नी त्रिष्टुप्। धैवतः॥ अथेश्वरः स्वगुणानाह॥
हिन्दी (4)
विषय
अब ईश्वर अपने गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में करता है॥
पदार्थ
हे भगवन् जगदीश्वर! जिस कारण आप (उपयामगृहीतः) योगाभ्यास से ग्रहण करने के योग्य (असि) हैं, इससे (महेन्द्राय) अत्यन्त उत्तम ऐश्वर्य के लिये हम लोग (त्वा) आपकी उपासना करते हैं (उत) और जिससे (ते) आपकी (एषः) यह उपासना हमारे लिये (योनिः) कल्याण का कारण है, इससे (त्वा) तुम को (महेन्द्राय) परमैश्वर्य्य पाने के लिये हम सेवन करते हैं, जो (महान्) सर्वोत्तम अत्यन्त पूज्य (नृवत्) मनुष्यों के तुल्य (आ) अच्छे प्रकार (चर्षणिप्राः) सब मनुष्यों को सुखों से परिपूर्ण करने (द्विबर्हाः) व्यवहार और परमार्थ के ज्ञान को बढ़ाने वाले दो प्रकार के ज्ञान से संयुक्त (अस्मद्र्यक्) हम सब प्राणियों को अपनी सर्वज्ञता से जानने वाले (अमिनः) अतुल पराक्रमयुक्त (उरुः) बहुत (पृथुः) विस्तारयुक्त (कर्त्तृभिः) अच्छे कर्म्म करने वाले जीवों ने (सुकृतः) अच्छे कर्म्म करने वाले के समान ग्रहण किये हुए और (इन्द्रः) अत्यन्त उत्कृष्ट ऐश्वर्य्य वाले आप हैं, उन्हीं का आश्रय किये हुए समस्त हम लोग (सहोभिः) अच्छे-अच्छे बलों के साथ (वीर्य्याय) परम उत्तम बल की प्राप्ति के लिये (वावृधे) दृढ़ उत्साहयुक्त होते हैं॥३९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ईश्वर का आश्रय न करके कोई भी मनुष्य प्रजा की रक्षा नहीं कर सकता। जैसे ईश्वर सनातन न्याय का आश्रय करके सब जीवों को सुख देता है, वैसे ही राजा को भी चाहिये कि प्रजा को अपनी न्याय व्यवस्था से सुख देवे॥३९॥
विषय
इन्द्र से महेन्द्र
पदार्थ
१. गत मन्त्र की भावना के अनुसार जब विश्वामित्र सोमरक्षा द्वारा अङ्ग-प्रत्यङ्ग को रमणीय बनाता है और प्रज्ञा को दीप्त करता है तब वह प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘भरद्वाज’ बन जाता है, अपने में शक्ति व ज्ञान को भरनेवाला। २. यह ( महान् ) = बड़ा बनता है, महनीय होता है।
३. ( इन्द्रः ) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता होता है ४. ( नृवत् ) = [ नृ = नेता ] औरों के लिए नेता के समान होता है, औरों का मार्गदर्शक बनता है।
५. ( आचर्षणिप्राः ) = मनुष्यों का समन्तात् पूरण करनेवाला होता है।
६. ( उत ) = और ( द्विबर्हाः ) = दोनों क्षेत्रों में, अर्थात् ज्ञान व शक्ति के दोनों स्थानों में बढ़ा हुआ होता है। ज्ञान के दृष्टिकोण से ऋषि, तो शक्ति के दृष्टिकोण से मल्ल।
७. ( सहोभिः ) = अपने बलों के कारण ( अमितः ) = अहिंसित होता है [ मीञ् हिंसायाम् ] अथवा अपने बलों से यह औरों की हिंसा करनेवाला नहीं बनता।
८. ( अस्मद्र्यक् ) = प्रभु कहते हैं कि [ अस्मान् अञ्चति ] यह वह व्यक्ति है जो हमारी ओर आ रहा है।
९. ( वावृधे वीर्याय ) = यह शक्ति के लिए निरन्तर बढ़ता चलता है।
१०. ( उरुः ) = यह विशाल हृदयवाला होता है।
११. ( पृथुः ) = विस्तृत शरीरवाला अथवा विशाल यशवाला व विस्तृत बलवाला [ यशसा विपुलः, बलेन विस्तृतः—म० ] १२. कर्तृभिः ( ) = अपने कर्त्तव्यों से ( सुकृतः ) = [ शोभनं कृतं यस्य ] उत्तम पुण्य कर्मोंवाला ( भूत् ) = होता है।
१३. यह भरद्वाज प्रभु से प्रार्थना करता है कि ( उपयामगृहीतः असि ) = आप सुनियमों से स्वीकृत होते हो। ( त्वा ) = आपको मैं इसलिए उपासित करता हूँ कि ( महेन्द्राय ) = मैं महेन्द्र बन सकूँ। ( एषः ते योनिः ) = यह मेरा विग्रह [ शरीर ] आपका विशिष्ट गृह है। मैं ( त्वा ) = आपको इस गृह में प्रतिष्ठित करता हूँ जिससे ( महेन्द्राय ) = मैं भी महेन्द्र बन जाऊँ। ब्रह्म का उपासक ‘ब्रह्म-सा’ बन जाता है। उपासना में आगे और आगे बढ़ते हुए इन्द्र ‘महेन्द्र’-सा बन जाता है।
भावार्थ
भावार्थ — उपासना में आगे और आगे बढ़ते हुए मनुष्य इन्द्र से महेन्द्र बनने का यत्न करे।
विषय
महेन्द्र पद।
भावार्थ
( महान् इन्द्रः ) महान् ऐश्वर्यवान् राजा ( नृवत् ) नेता पुरुषों का स्वामी अथवा नेता के समान ( आचर्षणीप्राः ) समस्त लोकों और प्रजाजनों को पूर्ण करने वाला ( उत ) और ( द्विबर्हाः ) दोनों प्रजा और राजा के अधीन शासकजन दोनों को बढ़ानेवाला या दोनों का स्वामी ( सहोभिः अमिन : ) अपने शत्रु दमनकारी सामथ्यों और बलों से अमित पराक्रमी ( अस्मद्र्यक् ) हमारे प्रति कृपालु होकर ( वावृधे ) वृद्धि को प्राप्त हो। वह ( वीर्याय ) वीर्य के अधिक हो जाने से ही ( उरुः ) विशाल ( पृथुः ) विस्तृत राज्यवाला और ( कर्त्तृभिः) उत्तम कार्यकर्त्ताओं के सहाय से ( सुकृतः) उत्तम राज्य कार्यकर्ता ( भूत् ) हो । हे राजन् ! तू ( उपयामगृहीतः असि ) राज्य के समस्त नियमों द्वारा बद्ध है । ( त्वा ) तुझको ( महेन्द्राय ) महेन्द्र पद के लिये नियत करता हूँ । ( एष ते योनिः ) यह तेरा आसन है । ( त्वा महेन्द्राय ) तुझे महेन्द पद के लिये स्थापित करता हूं ॥ शत० ४ । ३ । ३ । १८ । उक्त मन्त्र परमेश्वर पक्ष में स्पष्ट है ।
टिप्पणी
१ महान् इन्द्रो। २ उपयाम।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाज ऋषिः । महेन्द्र: प्रजासेनापतिर्देवता । ( १ ) भुरिक् पंक्ति: पञ्चमः | (२) साम्नी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
अब ईश्वर अपने गुणों का उपदेश करता है ।।
भाषार्थ
हे भगवन् जगदीश्वर ! क्योंकि आप (उपयामगृहीतः) योगाभ्यास से प्राप्त करने योग्य (असि) हो, अतः (महेन्द्राय) अत्युत्तम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (त्वा) आपकी हम उपासना करते हैं, (उत) और--क्योंकि (ते) आपका (एषः) यह ऐश्वर्य (योनिः) निवास है, इस लिये [त्वा] आप के (महेन्द्राय) अत्युत्तम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये हम सेवन करते हैं। और-- जो ईश्वर(महान्) सब से उत्कृष्ट और पूज्यतम, (नृवत्) न्यायशील मनुष्यों के तुल्य (आचर्षणिप्राः) मनुष्यों को सुखों से भरपूर करने वाला, (द्विबर्हाः) व्यावहारिक और पारमार्थिक दो प्रकार की वृद्धि करने वाले विज्ञान से युक्त (अस्मद्र्यक्) हम सबको अपनी सर्वज्ञता से जानने वाला, (अमिनः) अनुपम एवं अतुल पराक्रम वाला, (उरुः) विशाल, (पृथुः) विस्तृत, (कर्तृभिः) शुभ कर्म करने वाले जीवों के साथ (सुकृतः) उत्तम कर्म करने वाला, (इन्द्रः) अत्यन्त उत्कृष्ट ऐश्वर्य वाला (भूत्) है, सब मनुष्य उसी के आश्रित होकर (सहोभिः) सब बलों के साथ (वीर्याय) पराक्रम को (वावृधे) बढ़ाते हैं ।। ७ । ३९ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा अलङ्कारहै।। ईश्वर के आश्रय के बिना कोई भी पुरुष प्रजा का पालन नहीं कर सकता, जैसे ईश्वर सत्य न्याय के आश्रय से सब प्राणियों को सुख देता है वैसे ही राजा भी सब प्रजा को तृप्त करे ॥ ७ । ३९॥
प्रमाणार्थ
(द्विबर्हाः) यह शब्द निघं० (४ । ३) पद-नामों में पढ़ा है । (अमिनः) इस शब्द का अर्थ निरु० (६ । १६) में इस प्रकार किया है-- "मितमात्र का अर्थ 'महान्' है जो अत्यन्त महान् हो वह, 'अमित' कहाता है; 'अमित' ही 'अमिन' होता है" (भूत्) यहाँ'अट्' का अभाव है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ३ । ३ । १८) में की गई है ।। ७ । ३९।।
भाष्यसार
१. ईश्वर के गुणों का उपदेश--हे भगवन् जगदीश्वर ! आप योगाभ्यास से प्राप्त करने योग्य हो । इसलिये अत्युत्तम योग रूप ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये हम आपकी उपासना करते हैं। यह अत्युत्तम योग रूप ऐश्वर्य ही आपका निवास हो, इस में आप निवास करते हो, इसलिये इस अनुत्तम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये हम आपका सेवन करते हैं । आप सर्वोत्तम और पूज्यतम हो, न्यायकारी हो, धर्मात्मा मनुष्यों को सुख से भरपूर करने वाले हो, व्यावहारिक और पारमार्थिक विज्ञान की वृद्धि करने वाले हो, सर्वज्ञता से सबको जानने वाले हो, विशाल हो, विस्तृत हो, शुभ कर्म करने वाले जीवों को शुभ फल देने वाले हो, अत्यन्त उत्कृष्ट ऐश्वर्य वाले हो । इसलिये आपके आश्रय से ही सब मनुष्य बल और पराक्रम की वृद्धि कर सकते हैं । आपके आश्रय के बिना कोई भी मनुष्य प्रजा का पालन नहीं कर सकता । २. अलङ्कार– इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है।। उपमा यह है कि जैसे ईश्वर सत्य न्याय से सब प्राणियों को सुख देता है वैसे राजा भी सबको सुख देवे ।। ७ । ३९।।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. ईश्वराचा आश्रय न घेता कोणीही प्रजेचे रक्षण करू शकत नाही. जसा परमेश्वर सदैव न्यायी असून, सर्व जीवांना सुखी करतो तसे राजानेही प्रजेला आपल्या न्यायव्यवस्थेने सुखी करावे.
विषय
आतां पुढील मंत्रात परमेश्वर आपल्या गुणांचे वर्णन करीत आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (परमेश्वराची स्तुती करताना उपासक जन म्हणतात-)^हे भगवन् जगदीश्वर, आपण (उपयामगृहीत:) योगाभ्यासाद्वारे ग्रहणीय वा ज्ञातव्य (असि) आहात. (महेन्द्राय) अत्यंत उत्तम ऐश्वर्याच्या प्राप्तीसाठी आम्ही (त्या) आपली उपासना करतो. कारण की ही उपासना आमच्या (योनि:) कल्याणाचा हेतू आहे. (महेन्द्राय) परम ऐश्वर्याच्या प्राप्तीसाठी (त्वा) आपणास आम्ही इच्छितो. (महान्) सर्वोत्तम आणि पूज्य अशा (नृक्त्) माणसांप्रमाणे (आ) चांगल्याप्रकारे (चर्षणिप्रा:) सर्व मनुष्यांना सुखांनी परिपूर्ण करण्यासाठी आणि (द्विबही:) व्यावहारिक व पारमार्थिक ज्ञान या दोन प्रकारच्या ज्ञानाने (समृद्ध होण्यासाठी आम्ही यज्ञ करतो. (अस्त्रद्युक्) हे ईश्वर, सर्व प्राण्यांना आपल्या सर्वज्ञतेमुळे जाणणारे आपण( अमिन:) अतुल पराक्रमयुक्त आहात. (कर्तुभी) चांगले कर्म करणार्या जीवांनी (सुकृत:) चांगले कर्म करीत आपणाना ग्रहण केले आहे (सत्कर्मीजणांनी आपली उपासना सदैव केली आहे) त्याप्रमाणे सत्कर्म करीत आम्ही उपासकगण (इन्दु:) उत्कृष्ट ऐश्वर्यशाली अशा आपल्या आश्रयास (सहोभि:) सत्कर्म आणि सद्व्यवहार करीत येत आहोत. (वीर्याय) परमशक्तीच्या प्राप्तीकरिता आम्ही तुमच्या उपासनेत (वावृधे) दृढतेने व उत्साहाने मग्न राहतो. ॥39॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. कोणीही मनुष्य (राजा वा सभाध्यक्ष) ईश्वराच्या आश्रयाविना प्रजेची रक्षा करू शकत नाही. ज्याप्रमाण ईश्वर सनातन न्यायानुसार सर्व जीवांना सुख देतो, त्याप्रमाणे राजासाठीही कर्त्तव्य आहे की त्याने आपल्या न्यायव्यवस्थेने प्रजेला सुखी करावे. ॥39॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O God, Thou art attainable t yoga. Thy worship contributes to our good and advancement. We serve Thee to become great. Thou art Supreme, Come like a just leader. Thou impartest pleasure to humanity. Thou art coupled with temporal and spiritual knowledge. Through omniscience Thou knowest us all. Unlimited is Thy might. Thou art vast and Great. Noble souls take Thee as the doer of great deeds and full of splendour. Depending upon Thee, we are encouraged to be great through acts of prowess.
Meaning
Lord of the universe, you are great and adorable, compassionate and so close to humans, giver of bliss to the people, lord of knowledge secular and sacred, of unique power, infinite, more expansive than space, omniscient knower of us all, just and kind with those who do good. We grow and rise in strength, power and prowess and honour only with His grace. Lord of light, you can be realised only through the rules of Yama and niyama and the discipline of yoga. He resides in the light of the heart. For the realisation of the glory of that light we worship Him. For His Greatness we worship Him.
Translation
Great is the resplendent Lord, like a hero, fulfilling the desires of men, doubled in vastness and having limitless powers. Turning towards us, he grows in immense power. Tall and stout, he succeeds with the skill of those who serve under Him. (1) O devotional bliss, you have been duly accepted. You to the great resplendent Lord. (2) This is your abode. You to the great resplendent Lord. (3)
Notes
Nrvat, like a man or a hero. Carsanipra, fulfiller of desires of men. Dvibarha, बर्ह: विस्तार:, having a double vastness; one who spreads out in both the directions. Aminah, अनित: उपमारहित:, matchless: unmeasured or unmea- surable. Asmadryak, facing us. Kartrbhih, with the workers under him.
बंगाली (1)
विषय
অথেশ্বরঃ স্বগুণানাহ ॥
ঈশ্বর নিজ গুণের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করেন ।
पदार्थ
পদার্থঃ- হে ভগবন্ জগদীশ্বর ! যে কারণে আপনি (উপয়ামগৃহীতঃ) যোগাভ্যাস দ্বারা গ্রহণ যোগ্য (অসি) আছেন, ইহার ফলে (মহেন্দ্রায়) অত্যন্ত উত্তম ঐশ্বর্য্য হেতু আমরা (ত্বা) আপনার উপাসনা আমাদের জন্য (য়োনিঃ) কল্যাণের কারণ । ইহার ফলে আপনাকে (মহেন্দ্রায়) পরমৈশ্বর্য্য পাওয়ার জন্য আমরা সেবন করি । (মহান্) সর্বোত্তম অত্যন্ত পূজ্য (নৃবৎ) মনুষ্যদিগের তুল্য (আ) ভাল মত (চর্ষণিপ্রাঃ) সকল মনুষ্যদিগকে সুখ দ্বারা পরিপূর্ণ কারী (দ্বিবর্হাঃ) ব্যবহার ও পরমার্থের জ্ঞান বৃদ্ধিকারী দুই প্রকার জ্ঞান দ্বারা সংযুক্ত (অস্মদ্রু্যক) আমাদিগের সকল প্রাণিদিগকে নিজের সর্বজ্ঞতা দ্বারা জ্ঞাতা (অমিনঃ) অতুল পরাক্রমযুক্ত (কত্তৃর্ভিঃ) সুকর্ম্মকারী জীবসকল (সুকৃতঃ) সৃকতকারীর সমান গৃহীত এবং (ইন্দ্রঃ) অত্যন্ত উৎকৃষ্ট ঐশ্বর্য্যযুক্ত আপনি, তাঁহারই আশ্রয়ে আমরা সমস্ত লোকেরা (সহোভিঃ) ভাল-ভাল বল সহ (বীর্য়্যায়) পরম উত্তম বল প্রাপ্তি হেতু (বাবৃধে) দৃঢ় উৎসাহযুক্ত হই ॥ ৩ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । ঈশ্বরের আশ্রয় না করিয়া কোনও মনুষ্য প্রজার রক্ষা করিতে পারে না । যেমন ঈশ্বর সনাতন ন্যায়ের আশ্রয় করিয়া সকল জীবকে সুখ দিয়া থাকে সেইরূপ রাজারও উচিত যে, প্রজাকে নিজ ন্যায়ব্যবস্থা দ্বারা সুখ প্রদান করুন ॥ ৩ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ম॒হাঁ২ऽইন্দ্রো॑ নৃ॒বদা চ॑র্ষণি॒প্রাऽউ॒ত দ্বি॒বর্হা॑ऽঅমি॒নঃ সহো॑ভিঃ ।
অ॒স্ম॒দ্র্য᳖গ্বাবৃধে বী॒র্য়া᳖য়ো॒রুঃ পৃ॒থুঃ সুকৃ॑তঃ ক॒তৃর্ভি॑র্ভূৎ ।
উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতোऽসি মহে॒ন্দ্রায়॑ ত্বৈ॒ষ তে॒ য়োনি॑র্মহে॒ন্দ্রায়॑ ত্বা ॥ ৩ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
মহানিত্যস্য ভরদ্বাজ ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । আদ্যস্য ভুরিক্ পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ । উপয়ামেত্যস্য সাম্নী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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