यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 37
ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्,विराट आर्ची पङ्क्ति
स्वरः - धैवतः
105
स॒जोषा॑ऽइन्द्र॒ सग॑णो म॒रुद्भिः॒ सोमं॑ पिब वृत्र॒हा शू॑र वि॒द्वान्। ज॒हि शत्रूँ॒२रप॒ मृधो॑ नुद॒स्वाथाभ॑यं कृणुहि वि॒श्वतो॑ नः। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑ते॥३७॥
स्वर सहित पद पाठस॒जोषा॒ इ॒ति॑ स॒ऽजोषाः॑। इ॒न्द्र॒। सग॑ण इति॒ सऽग॑णः। म॒रुद्भि॒रिति॑ म॒रुत्ऽभिः॑। सोम॑म्। पि॒ब॒। वृ॒त्र॒हेति॑ वृत्र॒ऽहा। शू॒र॒। वि॒द्वान्। ज॒हि। शत्रू॑न्। अप॑। मृधः॑। नु॒द॒स्व॒। अथ॑। अ॒भय॑म्। कृ॒णु॒हि॒। वि॒श्वतः॑। नः॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते ॥३७॥
स्वर रहित मन्त्र
सजोषाऽइन्द्र सगणो मरुद्भिः सोमम्पिब वृत्रहा शूर विद्वान् । जहि शत्रूँरप मृधो नुदस्वाथाभयङ्कृणुहि विश्वतो नः । उपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा मरुत्वतऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते ॥
स्वर रहित पद पाठ
सजोषा इति सऽजोषाः। इन्द्र। सगण इति सऽगणः। मरुद्भिरिति मरुत्ऽभिः। सोमम्। पिब। वृत्रहेति वृत्रऽहा। शूर। विद्वान्। जहि। शत्रून्। अप। मृधः। नुदस्व। अथ। अभयम्। कृणुहि। विश्वतः। नः। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। मरुत्वते। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। मरुत्वते॥३७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ सेनापतिकृत्यमाह॥
अन्वयः
हे इन्द्र सेनापते शूर! यतस्त्वमुपयामगृहीतोऽस्यतो मरुत्वत इन्द्राय त्वा त्वामुपदिशामि। किमित्यपेक्षायामाह ते तवैष योनिरस्त्यतस्त्वां मरुत्वत इन्द्राय प्रयतमानमङ्गीकरोमि, सजोषा सगणस्त्वं मरुद्भिर्वृत्रहा इव सोमं पिब, तं पीत्वा विद्वान् सन् शत्रूञ्जहि, अथ मृधोपनुदस्व नोऽस्मभ्यं विश्वतोऽभयं कृणुहि॥३७॥
पदार्थः
(सजोषाः) समानं जोषः प्रीतिर्यस्य (इन्द्र) सर्वसुखधारक सेनापते! (सगणः) गणेन स्वजनसेनापरिकरेण सहितः (मरुद्भिः) वायुभिरिव (सोमम्) सकलपदार्थरसम् (पिब) (वृत्रहा) यो वृत्रं मेघं हन्ति स वृत्रहा सूर्य्यस्तद्वत् (शूर) शत्रुविनाशक निर्भय (विद्वान्) सकलविद्यावेत्ता (जहि) विनाशय (शत्रून्) सत्यन्यायविरोधे प्रवर्त्तमानान् (अप) दूरीकरणे (मृधः) मृर्द्धन्ति उन्दन्ति परसुखैः स्वमनांसि येषु तान् सङ्ग्रामान् (नुदस्व) प्रेरय (अथ) अनन्तरम् (अभयम्) (कृणुहि) (विश्वतः) सर्वतः (नः) अस्मभ्यम् (उपयामगृहीतः) सेनासु नियमस्वीकृतः (असि) (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय युद्धाय (त्वा) त्वाम् (मरुत्वते) प्रशस्तानि मरुदस्त्राणि विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै (एषः) सेनाकृत्यव्यवहारः (ते) (योनिः) (इन्द्राय) (त्वा) (मरुत्वते)॥३७॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा जीवः प्रेम्णा स्वस्य मित्रस्य वा शरीरस्य रक्षणं करोति, तथा राजा प्रजां पालयेत्। यथा वा सूर्य्यो वायुविद्युद्भ्यां संहत्य मेघान्निहत्य जलेन सर्वस्मै सुखं ददाति, तथा राजा युद्धसाधनानि सम्पाद्य शत्रून्निहत्य प्रजायै सुखं दद्यात्, धर्म्मात्मभ्योऽभयं दुष्टेभ्यो भयं च दद्यात्॥३७॥
विषयः
अथ सेनापतिकृत्यमाह॥
सपदार्थान्वयः
हे इन्द्रः=सेनापते! सर्वसुखधारक सेनापते! शूर! शत्रुविनाशक निर्भय यतस्त्वमुपयामगृहीतः सेनासु नियमस्वीकृत: असि, अतो मरुत्वते प्रशस्तानि मरुदस्त्राणि विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै इन्द्राय परमैश्वर्यप्रापकाय युद्धाय त्वा= त्वामुपदिशामि, किमित्यपेक्षायामाह ते=तवैषः सेनाकृत्यव्यवहारः योनिरस्ति, अतः [त्वा]=त्वां मरुत्वत इन्द्राय प्रयत्नमानमङ्गीकरोमि। सजोषाः समानं जोष:=प्रीतिर्यस्यसगणः गणेन=स्वजनसेनापरिकरेण सहितः त्वं मरुद्भिः वायुभिरिव वृत्रहा यो वृत्रं=मेघं हन्ति स वृत्रहा सूर्य्य इव सोमं सकलपदार्थरसंपिब, तं पीत्वा विद्वान् सकलविद्यावेत्ता सन् शत्रून् सत्यन्यायविरोधे प्रवर्त्तमानान् जहि विनाशय। अथ अनन्तरं मृधः मर्द्धन्ति=उन्दन्ति परसुखैः स्वमनांसि येषु तान् संग्रामान्अपनुदस्व दूरीकरणाय प्रेरय, नः=अस्मभ्यं विश्वतः सर्वतः अभयं कृणुहि।। ७ । ३७ ।। [हे इन्द्र=सेनापते!.......सजोषाः सगणस्त्वं वृत्रहाइव सोमं पिब, तं पीत्वा विद्वान् सन् शत्रुन् जहि]
पदार्थः
(सजोषाः) समानं जोषः=प्रीतिर्यस्य (इन्द्र) सर्वसुखधारक सेनापते! (सगणः) गणेन=स्वजनसेनापरिकरेण सहितः (मरुद्भिः) वायुभिरिव (सोमम्) सकलपदार्थरसम् (पिब) (वृत्रहा) यो वृत्रं=मेघं हन्ति स वृत्रहा सूर्य्यस्तद्वत् (शूर) शत्रुविनाशक निर्भय (विद्वान्) सकलविद्यावेत्ता (जहि) विनाशय (शत्रून्) सत्यन्यायविरोधे प्रवर्त्तमानान् (अप) दूरीकरणे (मृधः) मर्द्धन्ति=उन्दन्ति परसुखैः स्वमनांसि येषु तान् संग्रामान् (नुदस्व) प्रेरय (अथ) अनन्तरम् (अभयम्) (कृणुहि) (विश्वतः) सर्वतः (नः) अस्मभ्यम् (उपयामगृहीतः) सेनासु नियमस्वीकृतः (असि) (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय युद्धाय (त्वा) त्वाम् (मरुत्वते) प्रशस्तानि मरुदस्त्राणि विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै (एष:) सेनाकृत्यव्यवहारः (ते) (योनिः) (इन्द्राय) (त्वा) (मरुत्वते) ।। ३७ ।।
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः॥ यथा जीवः प्रेम्णा स्वस्य मित्रस्य वा शरीरस्य रक्षणं करोति तथा राजा प्रजां पालयेत्, यथा वा--सूर्यो वायुविद्युद्भ्यां संहत्य मेघान्निहत्यं जलेन सर्वस्मै सुखं ददाति तथा राजा युद्धसाधनानि सम्पाद्य शत्रून् निहत्य प्रजायै सुखं दद्यात्।
[अथ मृधोऽपनुदस्व, नः=अस्मभ्यं विश्वतोऽभयं कृणुहि]
धर्मात्मभ्योऽभयं दुष्टेभ्यो भयं च दद्यात्।। ७ । ३७ ।।
विशेषः
विश्वामित्रः। प्रजापतिः=सभापतिः, सेनाध्यक्षस्व। आद्यस्य निचृदार्षी त्रिष्टुप्, उपयामेत्यस्य प्राजापत्या त्रिष्टुप्। धैवतः।।
हिन्दी (4)
विषय
अब सेनापति का काम अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
ईश्वर कहता है कि (इन्द्र) सब सुखों के धारण करने हारे (शूर) शत्रुओं के नाश करने में निर्भय! जिससे तू (उपयामगृहीतः) सेना के अच्छे-अच्छे नियमों से स्वीकार किया हुआ (असि) है, इससे (मरुत्वते) जिसमें प्रशंसनीय वायु की अस्त्रविद्या है, उस (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य पहुंचाने वाले युद्ध के लिये (त्वा) तुझ को उपदेश करता हूं कि (ते) तेरा (एषः) यह सेनाधिकार (योनिः) इष्ट सुखदायक है, इससे (मरुत्वते) (इन्द्राय) उक्त युद्ध के लिये यत्न करते हुए तुझ को मैं अङ्गीकर करता हूं और (सजोषाः) सबसे समान प्रीति करने वाला (सगणः) अपने मित्रजनों के सहित तू (मरुद्भिः) जैसे पवन के साथ (वृत्रहा) मेघ के जल को छिन्न-भिन्न करने वाला सूर्य्य (सोमम्) समस्त पदार्थों के रस को खींचता है, वैसे सब पदार्थों के रस को (पिब) सेवन कर और इससे (विद्वान्) ज्ञानयुक्त हुआ तू (शत्रून्) सत्यन्याय के विरोध में प्रवृत्त हुए दुष्टजनों का (जहि) विनाश कर। (अथ) इसके अनन्तर (मृधः) जहां दुष्टजन दूसरे के दुःख से अपने मन को प्रसन्न करते हैं, उन सङ्ग्रामों को (अपनुदस्व) दूर कर और (नः) हम लोगों को (विश्वतः) सब जगह से (अभयम्) भयरहित (कृणुहि) कर॥३७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे जीव प्रेम के साथ अपने मित्र वा शरीर की रक्षा करता है, वैसे ही राजा प्रजा की पालना करे और जैसे सूर्य्य वायु और बिजुली के साथ मेघ का भेदन कर जल से सब को सुख देता है, वैसे राजा को चाहिये कि युद्ध की सामग्री जोड़ और शत्रुओं को मार कर प्रजा को सुख धर्म्मात्माओं की निर्भयता और दुष्टों को भय देवे॥३७॥
विषय
सेनापति
पदार्थ
१. गत मन्त्र के राजा के साथ मिलकर कार्य करनेवाला सेनापति है। राजा और सेनापति राष्ट्र के मुख्य अधिकारी हैं। आन्तरव्यवस्था का मुख्य दायित्व राजा पर है तो राष्ट्र की बाह्य शत्रुओं से रक्षा करने के लिए सेनापति ने सेना को सन्नद्ध रखना है। यह सेनापति भी जितेन्द्रिय होना चाहिए, अतः कहते हैं कि ( इन्द्र ) = हे शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले जितेन्द्रिय सेनापते! तू ( सजोषाः ) = राजा के साथ प्रीतिपूर्वक राष्ट्र की सेवा करनेवाला हो [ जुषी प्रीतिसेवानयोः ]। ( सगणः ) = अपने गणों के साथ, अपने सैन्यगणों के साथ ( मरुद्भिः ) = प्राणों की साधना के द्वारा ( सोमं पिब ) = तू सोम का पान करनेवाला हो। सोमशक्ति को शरीर में सुरक्षित करनेवाला हो ( वृत्रहा ) = ज्ञान के आवरणभूत काम को तू नष्ट करनेवाला हो। शूर ( विद्वान् ) = तू ज्ञानी हो, परन्तु तेरा ज्ञान शूरता से युक्त हो। तू अपने ज्ञान को शूरता से विशिष्ट करनेवाला हो।
२. ( शत्रून् जहि ) = राष्ट्र के शत्रुओं की तू हिंसा कर। ( मृधः ) = क़ातिलों को ( अपनुदस्व ) = दूर भगानेवाला हो। ऐसी व्यवस्था करके ( अथ ) = अब ( नः ) = हमें ( विश्वतः ) = सब ओर से ( अभयम् ) = निर्भय ( कृणुहि ) = कीजिए।
३. ( उपयामगृहीतः असि ) = हे सेनापते! तू भी यम-नियमों से युक्त जीवनवाला हो। ( त्वा ) = तुझे ( मरुत्वते इन्द्राय ) = प्रशस्त प्राणोंवाले जितेन्द्रिय पुरुष के लिए हम चाहते हैं, अर्थात् तू प्राणसाधना करनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष हो। ( एषः ते योनिः ) = यह राष्ट्र ही तेरा घर है। ( इन्द्राय त्वा मरुत्वते ) = तुझे हम इसलिए स्वीकार करते हैं कि हम भी प्राणसाधनावाले जितेन्द्रिय पुरुष बन सकें।
भावार्थ
भावार्थ — राजा की भाँति सेनापति भी, प्राणसाधाना करनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष हो। यही राष्ट्र की उत्तमता से रक्षा कर सकेगा।
विषय
मरुत्वान् इन्द्र, सेनापति का वर्णन ।
भावार्थ
( सजोषाः ) सबको समान भाव से प्रेम करनेवाले ( मरुद्भिः सगणः ) वायुओं के समान तीव्र गतिमान् सैनिकों के गणों से युक्त होकर हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन सेनापते ! हे (शूर) शूरवीर ! आप ( विद्वान् ) ज्ञानवान्, सब शत्रु के कल, बल, छल को जानते हुए ( वृत्रहा ) नगरों को घेरनेवाले शत्रुओं का नाश करके ( सोमं ) सोम अर्थात् राज्य के उत्तम पद को ( पिब ) पान कर, स्वीकार कर और तू ( शत्रून् जहि ) शत्रुओं को नाश कर । ( मृधः ) संग्रामों को या संग्रामकारी शत्रु सेनाओं को ( अप नुद ) मार भगा । और (नः) हमें ( विश्वतः ) सब तरफ से ( अभयम् ) भयरहित ( अश्र कृणुहि ) कर। (उपयाम० इत्यादि) पूर्ववत् ॥
टिप्पणी
१ सजोषा' २ उपयाम ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः । मरुत्वान् इन्द्र: प्रजापतिर्देवता । ( १ ) निचृदार्षी त्रिष्टुप् । ( २ ) प्राजापत्या त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
अब सेनापति के कर्त्तव्य का उपदेश किया जाता है ॥
भाषार्थ
हे (इन्द्र) सब सुखों को धारण करने वाले सेनापते ! (शूर) शत्रुविनाशक ! निर्भय ! क्योंकि आप (उपयामगृहीतः) सेनाओं में नियमों के अनुसार स्वीकार किये गये (असि) हो, इसलिये (मरुत्वते) उत्तम वायु-अस्त्रों वाले ( इन्द्राय) परम ऐश्वर्य के प्रापक युद्ध के लिये (त्वा) आपको उपदेश करता हूँ । वह उपदेश क्या है-- (ते) तेरा (एषः) यह सेना सम्बन्धी कार्य व्यवहार (योनिः)सुख का घर है, इसलिये [त्वा] आपको (मरुत्वते) वायु अस्त्रों वाले (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य के प्रापक युद्ध के लिये प्रयत्न करने वाले को सेनापति स्वीकार करता हूँ । (सजोषाः) सबसे प्रीति करने वाले, (सगणः) अपने सेवा-समूह से युक्त आप (मरुद्भिः) वायु के सहाय से (वृत्रहा) मेघों का हनन करने वाले सूर्य के समान (सोमम्) सकल पदार्थों के रस का (पिब) पान करो, उसे पीकर (विद्वान्) सकल विद्याओं का वेत्ता बनकर (शत्रून्) सत्य और न्याय के विरोध में लगे हुये लोगों का (जहि) विनाश करो । (अथ) और--(मृधः) दूसरों के सुख-साधनों से जिसमें लोग अपने मनों को प्रसन्न करते हैं उन संग्रामों को (अपनुदस्व) दूर करो, तथा (नः) हमारे लिये (विश्वतः) सर्वत्र (अभयम्) अभय (कृणुहि) करो ॥ ७ । ३७ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है। जैसे जीव प्रेम के कारण अपने वा मित्र के शरीर की रक्षा करता है वैसे राजा-प्रजा का पालन करे, अथवा जैसे सूर्य वायु और विद्युत् के साथ मिलकर मेघों का हनन करके जल से सबको सुख देता है, वैसे राजा युद्ध के साधनों को सिद्ध करके शत्रुओं का हनन कर प्रजा को सुख देवें ।धर्मात्माओं को अभयदान और दुष्टों को भय प्रदान करें ।। ७ । ३७ ।।
भाष्यसार
१. सेनापति का कर्त्तव्य--सेनापति सब सुखों को धारण करने वाला, शत्रुओं का विनाश करने वाला और निर्भय हो । सेनाओं में नियमानुसार उसे सेनापति स्वीकार किया जाये। वह सेनापति प्रशंसनीय वायु-अस्त्रों वाले, परम ऐश्वर्य के प्रापक युद्ध के लिये सेना-सम्बन्धी कर्त्तव्य का परित्याग न करे। क्योंकि उसका कर्त्तव्य पालन ही सबके सुख का हेतु है। इसलिए वह प्रशस्त वायु-अस्त्रों वाले परम ऐश्चर्य के प्रापक युद्ध के लिये सदा प्रयत्न करे। जैसे प्राणी प्रेम के कारण अपने मित्र की अथवा अपने शरीर की रक्षा करता है, वैसे अपने परिजनों तथा सेनासमूह से प्रजा की रक्षा करे। अथवा-- जैसे सूर्य वायु और विद्युत् के साथ मिलकर, मेघों का हनन करके वर्षा के द्वारा सब औषधि-वनस्पति आदि पदार्थों में रस का आधान कर सबको सुख-प्रदान करता है, वैसे सब विद्याओं का वेत्ता सेनापति वायु-अस्त्र आदि युद्ध के साधनों को सिद्ध करके सत्य और न्याय का विरोध करने वाले शत्रु जनों का हनन कर प्रजा को सुख देवे। युद्ध से धर्मात्माओं को अभयदान और दुष्टों को भय-प्रदान करता रहे ।। २. अलङ्कार -- इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि जैसे सूर्य मेघों का हनन करता है, वैसे विद्वान् राजा शत्रुओं का विनाश करे ।। ७ । ३७ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे माणूस आपले शरीर किंवा मित्र यांचे रक्षण करतो त्याप्रमाणेच राजाने प्रजेचे पालन करावे. ज्याप्रमाणे सूर्य वायू व विद्युत यांच्या साह्याने मेघापासून जल प्राप्त करून सर्वांना सुखी करतो त्याप्रमाणेच राज्याने युद्धसाहित्य बाळगून शत्रूंचे हनन करावे व प्रजा सुखी करावी. धर्मात्मा लोकांना निर्भय करावे व दुष्टांना भयभीत करावे.
विषय
पुढील मंत्रात सेनापतीच्या कर्त्तव्य कर्मांविषयी कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - परमेश्वराने सेनापतीस उपदेश केला आहे - हे (इन्द्र) सर्व सुखांनी परिपूर्ण आणि (शूर) शत्रूंचा नाश करण्यात निर्भय असणार्या सेनाध्यक्षा, तू (उपयामगृहीत:) सैन्याच्या उत्कृष्ठ नियमांनी बांधलेला (असि) आहेस. (मरूत्वते) वायूची जी प्रभावकारी अस्त्रविद्या आहे, त्याद्वारे (इन्द्राय) परमैश्वर्य देणार्या संग्रामाकरिता मी (त्वा) तुला उपदेश करीत आहे, तो असा की (ते) तुझा (एव:) हा सैन्याधिकार पद (योनि:) इष्ट आणि सुखदायक आहे. मी तुला (मरूत्वये) (इन्द्राय) ते युद्ध करण्यासाठी स्वीकार करतो (तुला नियुक्त करतो) तू (सजोवा:) सर्वांना (सर्व आत्मीयजनांना) समानरुपेण प्रेम करणारा आणि (संगण:) आपल्या मित्र व (गण म्हणजे सैनिकांसह) या पदाचे सेवन कर. ज्याप्रमाणे (मरूद्भि:) पवनासह (वृत्रहा) मेघातील पाण्याला छिन्न-भिन्न करणारा सूर्य (सोमम्) सर्व पदार्थांच्या रसांना शोषून घेतो, त्याप्रमाणे तूही सर्व (पुष्टिकारी) पदार्थांच्या रसाचे (पिब) सेवन कर. (या वीरत्व जागृत करणार्या रसांचे सेवन करून) तू (विद्वान) बुद्धीमान, नीतिकुशल हो आणि (शत्रून्) सत्य न्यायाच्या विरोध करणार्या दृष्ट शत्रूंचा (जहि) विनाश कर. (अथ) यानंतर (प्रजानन म्हणतात) मी (मृघ:) जे दुष्टजन जिथे जिथे दुसर्यांच्या सुखाची हानी करून स्वत:च्या मनात प्रसन्न होत असतील, त्या त्या ठिकाणी युद्ध करून हे सेनापती, आपण (अनुपदस्व) त्या दुर्जनांना दूर करा आणि (न:) आम्हा प्रजाजनांना (विश्वत:) सर्वत्र (अभयम्) निर्भय (कृणुहि) करा. ॥37॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे जीव मोठ्या प्रेमाने आपल्या मित्राचे वा स्वत:च्या देहाचे रक्षण करतो, त्याप्रमाणे राजाने प्रजेचे पालन-रक्षण करावे. तसेच ज्याप्रमाणे सूर्य वायू आणि विद्युतेसह मिळून मेघांचे छेदन-भेदन करून जलवृष्टीद्वारे सर्वांना सुख देतो, त्याप्रमाणे राजासाठी आवश्यक आहे की त्याने युद्धसाहित्याचा भरपूर संग्रह करून शत्रूंना नष्ट करून प्रजेला सुख, धर्मात्माजनांना निर्भयता द्यावी व दृष्टांना भयभीत करावे ॥37॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Commander of the army, fearless in the extirpation of foes, thou art accepted as head according to military laws. This exalted position is a source of inspiration for thee. I enjoin thee to prepare for war embodying the use of shooting weapons. I acknowledge thee as exerting utmost for the battle. Be thou friendly unto all, and lead thy soldiers. Just as the sun, imbibes the essence of all objects through air, so shouldst thou realise the significance of all objects. Acquire knowledge, and suppress the opponents of truth and justice. Be victorious in the battle-field. Make all free from fear everywhere.
Meaning
Man of love for all, joy and power, Indra, commander of the army, attended with forces swift as the wind, scholarly, fearless and brave, destroyer of the enemy, wipe out the enemy host, eliminate those who destroy happiness and cause suffering to mankind, and make us free and fearless from all sides. And, just as the sun pours out the waters when it breaks the cloud Vritra with the winds and drinks to the health of the earth and her people, so do you drink with your friends and allies to the joy of Soma and success. Accepted and consecrated you are in the rules of the army and the laws of the land. I appoint you in the service of the lord of the land and head of her people. Now the rules, the law, the army, defence of the land and freedom of the people: this is your home and haven, the very meaning and purpose of your life. You are consecrated and dedicated to the people and the lord of the land.
Translation
O resplendent Lord, who are pleased with us, come to us with your hosts of vital breaths, and enjoy the bliss, O destroyer of Nescience, O brave and omniscient. Kill our enemies, drive away the aggressors, and thus make us free from fear all around. (1) O devotional bliss, you have been duly accepted. You to the resplendent Lord accompanied by vital breaths. (2) This is your abode. You to the resplendent Lord accompanied by vital breaths. (3)
Notes
Sajosah, with a harmonious mind; pleased with. Mrdhah, enemies, aggressors. Nah abhayam krnuhi, secure freedom from fear for us; or make us feartess.
बंगाली (1)
विषय
অথ সেনাপতিকৃত্যমাহ ॥
এখন সেনাপতির কাজ পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- ঈশ্বর বলিতেছেন যে, হে (ইন্দ্র) সকল সুখ ধারণকারী (শূর) শত্রুদিগের নাশ করিতে নির্ভয়, যাহার দ্বারা তুমি (উপয়ামগৃহীতঃ) সেনার ভাল-ভাল নিয়মগুলি দ্বারা স্বীকৃত (অসি) আছো, ইহার ফলে (মরুত্বতে) যাহাতে প্রশংসনীয় বায়ুর অস্ত্রবিদ্যা, সেই (ইন্দ্রায়) পরমৈশ্বর্য্য প্রাপ্ত করিতে যুদ্ধের জন্য (ত্বা) তোমাকে উপদেশ করিতেছি যে, (তে) তোমার (এষঃ) এই সেনাধিকার (য়োনিঃ) ইষ্ট সুখদায়ক, ইহার দ্বারা (মরুত্বতে) (ইন্দ্রায়) উক্ত যুদ্ধ হেতু প্রযত্ন করিয়া তোমাকে আমি অঙ্গীকার করিতেছি এবং (সজোষাঃ) সকলের সমান প্রীতিকারী (সগণঃ) নিজ মিত্রগণের সহিত তুমি (মরুদ্ভিঃ) যেমন পবন সহ (বৃত্রহা) মেঘের জল ছিন্ন-ভিন্ন কারী সূর্য্য (সোমম্) সমস্ত পদার্থের রসকে আকর্ষণ করে সেইরূপ সব পদার্থের রসকে (পিব) সেবন কর এবং ইহার দ্বারা (বিদ্বান্) জ্ঞানযুক্ত তুমি (শত্রুন্) সত্যনায়ের বিরুদ্ধে প্রবৃত্ত দুষ্ট লোকদিগের (জহি) বিনাশ কর । (অথ) অতঃপর (মৃধঃ) যেখানে দুষ্টগণেরা অপরের দুঃখ দ্বারা মনকে প্রসন্ন করে সেই সংগ্রামসকলকে (অপনুদস্ব) দূর কর এবং (নঃ) আমাদিগের (বিশ্বতঃ) সকল স্থান হইতে (অভয়ম্) ভয় রহিত (কৃণুহি) কর ॥ ৩৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যেমন জীব প্রেম সহ নিজ মিত্র অথবা শরীরের রক্ষা করে সেইরূপ রাজা প্রজার পালন করিবেন এবং যেমন সূর্য্য, বায়ু ও বিদ্যুৎ সহ মেঘ ভেদ করিয়া জলের দ্বারা সকলকে সুখ প্রদান করে সেইরূপ রাজারও উচিত যে, যুদ্ধের সামগ্রী যুক্ত করিয়া এবং শত্রুদিগকে মারিয়া প্রজাদেরকে সুখ, ধর্ম্মাত্মাদিগকে নির্ভয়তা এবং দুষ্টদিগকে ভয় প্রদান করিবেন ॥ ৩৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স॒জোষা॑ऽইন্দ্র॒ সগ॑ণো ম॒রুদ্ভিঃ॒ সোমং॑ পিব বৃত্র॒হা শূ॑র বি॒দ্বান্ । জ॒হি শত্রূঁ॒২রপ॒ মৃধো॑ নুদ॒স্বাথাভ॑য়ং কৃণুহি বি॒শ্বতো॑ নঃ । উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতো॒ऽ সীন্দ্রা॑য় ত্বা ম॒রুত্ব॑তऽএ॒ষ তে॒ য়োনি॒রিন্দ্রা॑য় ত্বা ম॒রুত্ব॑তে ॥ ৩৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সজোষেত্যস্য বিশ্বামিত্র ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । আদ্যস্য নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্, উপয়ামেত্যস্য প্রাজাপত্যা ত্রিষ্টুপ্ ছন্দসী । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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