Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 7

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - मघवा देवता छन्दः - आर्षी उष्णिक् स्वरः - ऋषभः
    213

    उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒न्तर्य॑च्छ मघवन् पा॒हि सोम॑म्। उ॒रु॒ष्य राय॒ऽएषो॑ यजस्व॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒न्तः। य॒च्छ॒। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। पा॒हि॒। सोम॑म्। उ॒रु॒ष्य। रायः॑। आ। इषः॑। य॒ज॒स्व॒ ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपयामगृहीतो स्यन्तर्यच्छ मघवन्पाहि सोमम् । उरुष्य राय एषो यजस्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। अन्तः। यच्छ। मघवन्निति मघऽवन्। पाहि। सोमम्। उरुष्य। रायः। आ। इषः। यजस्व॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनरात्मनाभ्यन्तरे कथं प्रयतितव्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे योगजिज्ञासो! यस्त्वमुपयामगृहीत इवासि तस्मादन्तर्य्यच्छ। हे मघवन्! सोमं पाहि क्लेशानुरुष्य यतो राय इष आयजस्व॥४॥

    पदार्थः

    (उपयामगृहीतः) उपात्तैर्यमैर्गृहीत इव (असि) (अन्तः) आभ्यन्तरस्थान् प्राणादीन् (यच्छ) निगृहाण (मघवन्) परमपूजित धनिसदृश! (पाहि) रक्ष (सोमम्) योगसिद्धमैश्वर्य्यम् (उरुष्य) बहुना योगाभ्यासेनाविद्यादिक्लेशानन्तं नय। अत्रोरुपपदात् षोऽन्तकर्म्मणीत्यस्मात् क्विप्, ततो नामधातुत्वात् क्विप्, मध्यमैकवचनप्रयोगः। (रायः) ऋद्धिसिद्धिधनानि (आ) समन्तात् (इषः) इच्छासिद्धीः (यजस्व)॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। १। १। १५) व्याख्यातः॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। योगार्थिना यमादिभिर्योगाङ्गैश्चित्तादीन्निरुध्याविद्यादिदोषान् निवार्य्य संयमेनर्द्धिसिद्धयो निष्पाद्यन्ताम्॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    पुनरात्मनाभ्यन्तरे कथं प्रयतितव्यमित्याह ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे योगजिज्ञासो! यतस्त्वमुपयामगृहीत इव उपातैर्यमैर्गृहीत इव असि, तस्मादन्तः आभ्यन्तरस्थान् प्राणादीन् यच्छ निगृहाण। हे मघवन् ! परमपूजित धनिसदृश! सोमं योगसिद्धमैश्वर्यंपाहि रक्ष क्लेशान्उरुष्य बहुना योगाभ्यासेनाविद्यादिक्लेशानन्तं नय यतो रायः ऋद्धिसिद्धिधनानि इष: इच्छासिद्धी: आ+यजस्व॥ समन्ताद्यजस्व ।। ७ । ४ ।। [हे योगजिज्ञासो! यतस्त्वमुपयामगृहीत इवासि, तस्मादन्तर्यच्छ, सोमं पाहि, क्लेशानुरुष्य, यतो राय इष आयजस्व]

    पदार्थः

    (उपयामगृहीतः) उपात्तैर्यमैर्गृहीत इव (असि) (अंतः) आभ्यंतरस्थान् प्राणादीन् (यच्छ) निगृहाण (मघवन्) परमपूजित धनिसदृश ! (पाहि) रक्ष (सोमम्) योगसिद्धमैश्वर्य्यम् (उरुष्य) बहुना योगाभ्यासेनाविद्यादिक्लेशानन्तं नय। अत्रोरुपपदात् षोऽन्तकर्म्मणीत्यस्मात् क्विप् ततो नामधातुत्वात् क्विप् ततो मध्यमैकवचनप्रयोगः (रायः) ऋद्धिसिद्धिधनानि (आ) समन्तात् (इषः) इच्छासिद्धी: (यजस्व)॥अयं मन्त्रः शत० ४ । १ । १ । १५ । व्याख्यातः ॥ ४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः।। योगार्थिना यमादिभिर्योगाङ्गैश्चित्तादीन् निरुध्याविद्यादिदोषान् निवार्य संयमेनर्द्धिसिद्धयो निष्पाद्यन्ताम् ॥ ७ । ४ ॥

    भावार्थ पदार्थः

    उपयामगृहीतः=ययादिभिर्योगाङ्ग निरुद्धचित्तः॥

    विशेषः

    गोतम:। मघवा=धनिसदृशो योगजिज्ञासुः॥आर्ष्युष्णिक्। ऋषभः

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर मन से आत्मा के बीच में कैसे प्रयत्न करे, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे योग चाहनेवाले! जिससे तू (उपयामगृहीतः) योग में प्रवेश करने वाले नियमों से ग्रहण किये हुए के समान (असि) है, इस कारण (अन्तः) भीतरले जो प्राणादि, पवन, मन और इन्द्रियां हैं, इनको (यच्छ) नियम में रख। हे (मघवन्) परमपूजित धनी के समान! तू (सोमम्) योगविद्यासिद्ध ऐश्वर्य्य को (पाहि) रक्षा कर और जो अविद्यादि क्लेश हैं, उनको (उरुष्य) अत्यन्त योगविद्या के बल से नष्ट कर, जिससे (रायः) ऋद्धि और (इषः) इच्छासिद्धियों को (आयजस्व) अच्छे प्रकार प्राप्त हो॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। योग जिज्ञासु पुरुष को चाहिये कि यम, नियम आदि योग के अङ्गों से चित्त आदि अन्तःकरण की वृत्तियों को रोक और अविद्यादि दोषों का निवारण करके संयम से ऋद्धि सिद्धियों को सिद्ध करें॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अन्तर्नियमन

    पदार्थ

    गत मन्त्र में वर्णित सोम की रक्षा के लिए संयम आवश्यक है। संयम ही योग है। इस योग का उल्लेख प्रस्तुत मन्त्र में चलता है। १. हे गोतम! तू ( उपयाम गृहीतः असि ) =  [ उपयामाः = योगनियमाः ] तू योग के नियमों से गृहीत है, अर्थात् तूने योग के नियमों का पालन किया है। इन योग-नियमों के द्वारा तू ( अन्तः यच्छ ) = इधर-उधर भटकनेवाले मन को अन्दर ही रोक। 

    २. मन के निरोध से ही तेरा जीवन वास्तविक ऐश्वर्य से युक्त होगा। उस ऐश्वर्य से युक्त होकर ( मघवन् ) = ज्ञानैश्वर्यवाले गोतम! तू ( सोमम् ) = सोम को ( पाहि ) = सुरक्षित कर। ( उरुष्य ) = इन वासनाओं को ख़ूब ही नष्ट कर [ षोऽन्तकर्मणि ] ३. वासनाओं को नष्ट करके ( रायः ) = ज्ञान-धनों को तथा ( इषः ) = प्रभु से दी जानेवाली प्रेरणाओं को तू ( आयजस्व ) = अपने साथ सङ्गत कर।

    ४. वस्तुतः योगमार्ग पर चलनेवाले जीवन का क्रम यही होता है कि [ क ] वह योग-नियमों को स्वीकार करता है [ ख ] मन का अन्दर ही निरोध करता है [ ग ] ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त करके सोम की रक्षा करता है। [ घ ] वासनाओं का विनाश करता है। [ ङ ] और ज्ञान-धनों व प्रभु-प्रेरणाओं के साथ अपने को जोड़ता है। यह अन्तर्नियमन ही योग है। यही कल्याणकर है।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम योग-नियमों का पालन कर मनोनिरोध करें। वासनाओं को जीतकर ज्ञान-धनों को प्राप्त करें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा का सूर्य के समान पद।

    भावार्थ

    हे मघवन् ! ऐश्वर्यवन् ! तू (उपयामगृहीतः असि) तू 'उपयाम' इस समस्त पृथिवी के शासन द्वारा गृहीत है । तुझे समस्त पृथ्वी देकर उसके बदले में तुझे राज कार्य में लगाया गया है । हे ( मघवन् ) ऐश्वर्य सम्पन्न ! तू ( अन्तः यच्छ ) राष्ट्र का भीतर से नियन्त्रण कर और ( सोमम् पाहि ) सोम राजा या राष्ट्र की रक्षा कर । ( रायः उरुष्य ) समस्त पशु आदि ऐश्वयों की रक्षा कर और (इषः)अन्नों को ( आयजस्व ) प्राप्त कर अर्थात् प्रजा से अनादि रूप में करले और भूमि को प्राप्त कर । शत० ४ । १।२ । १५ ।। ' उपनाम:---' इयं पृथिवी वा उपयामः । इयं वा इदमन्नाद्यमुपयच्छति पशुभ्यो मनुष्येभ्यो वनस्पतिभ्यः । श० ४। १ । २ । ८ ॥ 
    अध्यात्म में — हे साधक ! तू (उपयामगृहीतः ) स्वीकृत यम नियमादि द्वारा गृहीत है । प्राणादि को भीतर वश कर । योग सिद्ध ऐश्वर्य रूप सोम का पालन कर । ऋद्धि सिद्धि रूप ऐश्वर्य और इच्छात्रों को भी रक्षा कर ॥

    टिप्पणी

     ४- रायोवेषो '० इति कण्व ० ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रो मेघवा देवता ।आर्ष्युष्णिक।  । ऋषभः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर मन से आत्मा के बीच में कैसे प्रयत्न करे, यह उपदेश किया है ॥

    भाषार्थ

    हे योग के जिज्ञासु ! जिससे तू (उपयामगृहीतः) यमों को ग्रहण करने वाले के तुल्य (असि) है, इसलिये (अन्तः) अन्दर विद्यमान प्राण आदि का (यच्छ) निग्रह कर। हे (मघवन्) परम पूज्य धनी के समान! तू (सोमम्) योग-सिद्ध ऐश्वर्य की (पाहि) रक्षा कर, (उरुष्य) अत्यन्त योगाभ्यास से अविद्या आदि क्लेशों का अन्त कर तथा (रायः) ऋद्धि-सिद्धि रूप धनों और (इष:) इच्छासिद्धियों को (आ-यजस्व) सब ओर से सिद्ध कर ॥ ७ । ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है॥ योग का जिज्ञासु यम आदि योग केअङ्गों से चित्त आदि का निरोध करके, अविद्याआदि दोषों को हटा कर संयम से ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करे ॥ ७ । ४॥

    प्रमाणार्थ

    (उरुष्य) 'उरु' शब्द के उपपद रहते अन्तकर्म अर्थ वाली 'षो' धातु से 'क्विप्' प्रत्यय और इसके नाम-धातु होने से पुन: 'क्विप्' प्रत्यय है तथा उससे फिर मध्यम पुरुष के एकवचन का यह प्रयोग बना है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।१।१।१५) में की गई है ॥ ७ । ४ ।।

    भाष्यसार

    १. जीवात्मा का आन्तरिक प्रयत्न--योग का जिज्ञासु आत्मा यम आदि योग के अङ्गों से चित्त का निरोध करने वाले योगी के समान होकर अन्दर विद्यमान प्राण आदि का निग्रह करे अर्थात् प्राण आदि को वश में करे। जैसे धनवान् पुरुष पूजा के योग्य होता है, इसी प्रकार योगसिद्धि रूप धन से सम्पन्न योगी भी परम पूज्य है। क्योंकि वह योग-सिद्ध ऐश्वर्य की रक्षा करता है, योगाभ्यास से अविद्या आदि क्लेशों का अन्त करता है, ऋद्धि-सिद्धि रूप धनों को तथा कामना-सिद्धि को प्राप्त करता है। यह सब जीवात्मा के आन्तरिक प्रयत्न से सम्भव है ।। २. अलङ्कार--मन्त्र में उपमावाचक 'इव' आदि शब्द लुप्त होने से वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि योग का जिज्ञासु पुरुष यम आदि योग के अङ्गों से चित्तवृत्ति का निरोध करने वाले योगी के समान बने, तथा जैसे धनवान् पुरुष पूज्य होता है वैसे योग-सिद्धि रूप धन से सम्पन्न योगी भी लोक में परम पूज्य बने। ३. योग के अङ्ग--१. यम- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह । २. नियम- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर- प्राणिधान । ३. आसन । ४. प्राणायाम । ५. प्रत्याहार । ६. धारणा । ७. ध्यान । ८. समाधि । ९. संयम । ४. ऋद्धि-सिद्धि - १. अणिमा। २. लघिमा। ३. महिमा।४. प्राप्ति । ५. प्राकाम्य। ६. वशित्व । ७. ईशित्व । ८. जहाँ कामावसायित्व वहां सत्यसङ्कल्पतः । ये आठ ऋद्धियाँ हैं। इनकी विशेष व्याख्या योग-दर्शन व्यासभाष्य में देख लेवें । १. ऊह (तारतार) । २. शब्द (सुतार) । ३. अध्ययन (तार) । ४. आध्यात्मिक दुःखों का विघात (प्रमोद) । ५. आधिभौतिक दुःखों का विघात (मुदित) । ६. आधिदैविक दुःखों का विघात (मोदमान) । ७. सुहृत्प्राप्ति (रम्यक) । ८. दान (सदामुदित)। ये आठ सिद्धियाँ हैं, इनकी विशेष व्याख्या सांख्य में देख लेवें ॥ ७ । ४ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. योगजिज्ञासू लोकांनी यमनियम इत्यादी योगांगांच्या साह्याने चित्तातील अंतःकरणाच्या वृत्ती रोखाव्यात व अविद्या इत्यादी दोषांचे निवारण करून संयमाने राहावे आणि ऋद्धी-सिद्धी प्राप्त करून घ्याव्यात.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यानंतर मनाच्या सहायाने आत्म्याच्या उत्कर्षासाठी (आत्मोन्नतीसाठी) कशाप्रकारे यज्ञ करावा, पुढील मंत्रात हा विषय सांगितला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - योगाविषयी जिज्ञासा असणार्‍या हे उपासका, (वा योगाचे ज्ञान, क्रिया, पद्धती शिकवण्याची इच्छा असणार्‍या साधका) तू योग शिकण्याकरिता आवश्यक नियमानी (यम, नियम आदी आठ अंगांनी) बांधलेला (अस्ति) आहेस. त्यामुळे (अंत:) शरीराच्या अंतर्भागातील जे प्राण आदी पवन आणि आणि मन, इंद्रिये आहेत, त्यांना (यच्छ) नियंत्रणात ठेव. हे (मधवन्) पवित्र पूजित ऐश्वर्याच्या स्वामी एखाद्या मनुष्यासारखा तू देखील (सोमम्) योगविद्याद्वारे प्राप्त योगैश्वर्याचा स्वामी असून त्या योगधूताचे तू (पाहि) रक्षण कर. याशिवाय (उरुष्य) अविद्या आदी ने क्लेश आहेत, त्यांना आपल्या योगविद्येच्या बलाने नष्ट कर, ज्यामुळे तुला (राय:) ऋद्धी, समृद्धी आणि (इष:) वांछित सिद्धीची (आयजस्व) प्राप्ती होईल. ॥5॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे योगजिज्ञासू मनुष्यासाठी आवश्यक आहे की त्याने यम, नियम आदी अष्ट योगांच्या सहाय्याने अंत:करणाच्या चित्त आदी वृत्तीना नियंत्रित वा वश करावे. तसेच अविद्यादी दोषांचे निवारण करून संयम वृत्ती ठेऊन ऋद्धी-सिद्धीची प्राप्ती करावी ॥5॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O aspirant after yoga, thou art the master of yamas and niyamas. Control thou the internal vital breaths, mind and organs. O rich lord, guard the supremacy emanating from yoga. Remove through the power of yoga all ills arising from ignorance, whereby thou mayest obtain supernatural power and the fulfilment of desires.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Man, you are the power and the glory of the self, placed and accepted in the law of existence. Preserve and promote the inner life and dedicate the innermost self to the Law of the Divine. With yoga, eliminate suffering and grow, and obtain the higher wealth and power of the soul.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    You have been duly accepted. Contain our evils, O Lord of richness, guard the bliss. Protect our riches as well. Secure food from all around. (1)

    Notes

    Upayama, traditionally, name of a particular cup for Soma-juice; also, through proper procedure, i. e. duly. Antaryaccha, contain.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনরাত্মনাভ্যন্তরে কথং প্রয়তিতব্যমিত্যাহ ॥
    পুনরায় মন দ্বারা আত্মার মধ্যে কীভাবে চেষ্টা করিবে এই উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে যোগজিজ্ঞাসু । যদ্দ্বারা তুমি (উপয়াম গৃহীতঃ) যোগে প্রবেশকারী নিয়মগুলি হইতে গৃহীতের সমান (অসি) আছো এই কারণে (অন্তঃ) অন্তরে যে প্রাণাদি পবন মন ও ইন্দ্রিয়গুলি আছে ইহাদেরকে (য়চ্ছ) নিয়মে রাখ । হে (মঘবন্) পরম পূজিত ধনী সদৃশ । তুমি (সোমম্) যোগবিদ্যা সিদ্ধ ঐশ্বর্য্যকে (পাহি) রক্ষা কর (উরুষ্য) এবং যে অবিদ্যাদি ক্লেশ আছে তাহা অত্যন্ত যোগবিদ্যার শক্তি দ্বারা নষ্ট কর যদ্দ্বারা (রায়ঃ) ঋষি ও (ইষঃ) ইচ্ছাসিদ্ধিকে (আয়জস্ব) সম্যক্ প্রকার প্রাপ্তি হও ॥ ৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যোগ জিজ্ঞাসু পুরুষের উচিত যে, যম-নিয়মাদি যোগের অঙ্গ দ্বারা চিত্তাদি অন্তঃকরণের বৃত্তিগুলি রোধ করুক এবং অবিদ্যাদি দোষগুলি নিবারণ করিয়া সংযম পূর্বক ঋদ্ধিসিদ্ধিকে সিদ্ধ করুক ॥ ৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতোऽস্য॒ন্তর্য়॑চ্ছ মঘবন্ পা॒হি সোম॑ম্ ।
    উ॒রু॒ষ্য রায়॒ऽএষো॑ য়জস্ব ॥ ৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উপয়ামগৃহীত ইত্যস্য গোতম ঋষিঃ । মঘবা দেবতা । আর্ষ্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top