यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 16
ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्,साम्नी गायत्री
स्वरः - षड्जः
89
अ॒यं वे॒नश्चो॑दय॒त् पृश्नि॑गर्भा॒ ज्योति॑र्जरायू॒ रज॑सो वि॒माने॑। इ॒मम॒पा स॑ङ्ग॒मे सूर्य॑स्य॒ शिशुं॒ न विप्रा॑ म॒तिभी॑ रिहन्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ मर्का॑य त्वा॥१६॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम्। वे॒नः। चो॒द॒य॒त्। पृश्नि॑गर्भा॒ इति॒ पृश्नि॑ऽगर्भाः। ज्योति॑र्जरायु॒रिति॒ ज्योतिः॑ऽजरायुः। रज॑सः। वि॒मान॒ इति॑ वि॒ऽमाने॑। इ॒मम। अ॒पाम्। स॒ङ्ग॒म इति॑ सम्ऽग॒मे। सूर्य्य॑स्य। शिशु॑म्। न। विप्राः॑। म॒तिभि॒रिति॑ म॒तिऽभिः॑। रि॒ह॒न्ति॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। मर्का॑य। त्वा॒ ॥१६॥
स्वर रहित मन्त्र
अयँवेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने । इममपाँ सङ्गमे सूर्यस्य शिशुन्न विप्रा मतिभी रिहन्ति । उपयामगृहीतोसि मर्काय त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम्। वेनः। चोदयत्। पृश्निगर्भा इति पृश्निऽगर्भाः। ज्योतिर्जरायुरिति ज्योतिःऽजरायुः। रजसः। विमान इति विऽमाने। इमम। अपाम्। सङ्गम इति सम्ऽगमे। सूर्य्यस्य। शिशुम्। न। विप्राः। मतिभिरिति मतिऽभिः। रिहन्ति। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। मर्काय। त्वा॥१६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ सभाध्यक्षेण राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे शिल्पविधिविद्विद्वन्! त्वमुपयामगृहीतोऽस्यतोऽहं रजसो मध्ये पृश्निगर्भा लोका इव ज्योतिर्जरायुरिवायं वेनश्चोदयादिमं चन्द्रमपां सूर्य्यस्य सङ्गमे शिशुं विप्रा मतिभी रिहन्ति नेव मर्काय दुष्टानां प्रशमनाय श्रेष्ठव्यवहारस्थापनाय च विमाने त्वा त्वां गृह्णामि॥१६॥
पदार्थः
(अयम्) (वेनः) कमनीयश्चन्द्रः (चोदयत्) प्रेरयति, अत्र लडर्थे लङ[भावश्च। (पृश्निगर्भाः) पृश्निरन्तरिक्षं गर्भो येषां ते पृश्निगर्भाः (ज्योतिर्जरायुः) ज्योतिषां जरायुरिवाच्छादकः (रजसः) लोकसमूहस्य (विमाने) विगतं मानं परिमाणं यस्यान्तरिक्षस्य तस्मिन् (इमम्) प्रत्यक्षम् (अपाम्) जलानाम् (सङ्गमे) सङ्ग्राम इव। सङ्गम इति सङ्ग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰२।१७) (सूर्य्यस्य) मार्तण्डस्य (शिशुम्) शासनीयं कुमारं बालकम् (न) इव (विप्राः) मेधाविनः (मतिभिः) बुद्धिभिः (रिहन्ति) सत्कुर्वन्ति। रिहन्तीत्यर्चतिकर्म्मसु पठितम्। (निघं॰३।१४) (उपयामगृहीतः) राज्याङ्गैर्युक्तः (मर्काय) मृत्युनिमित्ताय वायवे (त्वा) त्वाम्॥ इमं मन्त्रं निरुक्तकार एवं समाचष्टे-वेनो वेनतेः कान्तिकर्म्मणस्तस्यैषा भवति। (निरु॰१०।३८) अयं वेनश्चोदयत् पृश्निगर्भा प्राष्टवर्णगर्भा आप इति वा ज्योतिर्जरायुर्ज्योतिरस्य जरायुस्थानीयं भवति, जरायु जरया गर्भस्थ जरया यूयत इति वा। इममपां च सङ्गमने सूर्य्यस्य च शिशुमिव विप्रा मतिभी रिहन्ति लिहन्ति स्तुवन्ति वर्द्धयन्ति पूजयन्तीति वा। शिशुः शंसनीयो भवति, शिशीतेर्वा स्याद्,दानकर्म्मणश्चिरलब्धो गर्भो भवति। (निरु॰१०।३९)। अयं मन्त्रः (शत॰४। २। १। १०-११) व्याख्यातः॥१६॥
भावार्थः
सभाध्यक्षेण सूर्य्याचन्द्रमसोर्गुणानिव श्रेष्ठगुणान् प्रकाशयित्वा दुष्टप्रशमनेन श्रेष्ठव्यवहारेण सज्जना आह्लादयितव्याः॥१६॥
विषयः
अथ सभाध्यक्षेण राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
हे शिल्पविधिविद् विद्वन् ! त्वमुपयामगृहीतः राज्याङ्गैर्युक्तःअस्यतोऽहं रजसः लोकसमूहस्य मध्ये पृश्निगर्भाः पृश्निरन्तरिक्षं गर्भो येषां ते पृश्निगर्भा: लोका इव, ज्योतिर्जरायुः ज्योतिषां जरायुरिवाच्छादक इव, अयं वेनः कमनीयश्चन्द्रः चोदयत् प्रेरयति, इमं प्रत्यक्षं चन्द्रमपां जलानां सूर्यस्य मार्तण्डस्य संगमे संग्राम इव शिशुं शासनीयं कुमारं बालकं विप्राः मेधाविनः मतिभिः बुद्धिभिः रिहन्ति सत्कुर्वन्ति न इव, मर्काय=दुष्टानां प्रशमनाय श्रेष्ठव्यहारस्थापनाय मृत्युनिमित्ताय वायवे च विमाने विगतं मानं=परिमाणं यस्यान्तरिक्षस्य तस्मिन् त्वा=त्वां गृह्णामि ।। ७ । १६ ।। [हे शिल्पविधिविद् विद्वन्! त्वमुपयामगृहीतोऽस्यतोऽहं......अयं वेनश्चोदयदियं चन्द्रमपां सूर्यस्य संगमे.......न= इव, मर्काय=दुष्टानां प्रशमनाय, श्रेष्ठव्यवहारस्थापनाय च........त्वा=त्वां गृह्णामि]
पदार्थः
(अयम्) ( वेनः) कमनीयश्चन्द्रः (चोदयत्) प्रेरयति अत्र लडर्थे लङडभावश्च (पृश्निगर्भाः) पृश्निरन्तरिक्षं गर्भो येषां ते पृश्निगर्भा: (ज्योतिर्जरायु:) ज्योतिषां जरायुरिवाच्छादक: (रजसः) लोकसमूहस्य (विमाने) विगतं मानं=परिमाणं यस्यान्तरिक्षस्य तस्मिन् (इमम्) प्रत्यक्षम् (अपाम्) जलानाम् (संगमे) संग्राम इव। संगम इति 'संग्रामनामसु पठितम् ॥ निघं० २ । १७ ।। (सूर्य्यस्य) मार्तण्डस्य (शिशुम्) शासनीयं=कुमारं=बालकम् (न) इव (विप्राः) मेधाविनः (मतिभिः) बुद्धिभिः (रिहन्ति) सत्कुर्वन्ति । रिहंतीत्यर्चतिकर्म्मसु पठितम्।। निघं० ३ । १४ ।। (उपयामगृहीतः) राज्याङ्गैर्युक्तः॥ (मर्काय) मृत्युनिमित्ताय वायवे (त्वा) त्वाम्।। इमं मंत्र निरुक्तकार एवं समाचष्टे--वेनो वेनते: कान्तिकर्म्मणस्तस्यैषा भवति ॥ निरु० १०।३८॥ अयं वेनश्चोदयत् पृश्निगर्भा प्राष्टवर्णगर्भा आप इति वा ज्योतिर्जरायुर्ज्योतिरस्य जरायुस्थानीयं भवति जरायुजरया गर्भस्य जरया यूयत इति वा। इममपां च संगमने सूर्य्यस्य च शिशुमिव विप्रा मतिभी रिहन्ति लिहन्ति स्तुवन्ति वर्द्धयन्ति पूजयंतीति वा॥ शिशुः शंसनीयो भवति शिशीतेर्वा स्याद् दानकर्म्मणश्चिरलब्धो गर्भो भवति । निरु० । १०। ३९॥ अयं मंत्रः शत० ४ । २ । १ । १०-११ व्याख्यातः ॥ १६ ॥
भावार्थः
सभाध्यक्षेण सूर्याचन्द्रमसोर्गुणानिव श्रेष्ठगुणान् प्रकाशयित्वा दुष्टप्रशमनेन श्रेष्ठव्यवहारेण सज्जना आह्लादयितव्याः ।। ७ । १६।।
विशेषः
वत्सार: काश्यपः। विश्वेदेवाः=विद्वांसः॥ आद्यस्य निचृदार्षी त्रिष्टुप्। धैवतः। उपयाम इत्यस्य साम्नी गायत्री। षड्जः।।
हिन्दी (4)
विषय
अब सभाध्यक्ष राजा को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
हे शिल्पविधि के जानने वाले सभाध्यक्ष विद्वन्! आप (उपयामगृहीतः) सेना आदि राज्य के अङ्गों से युक्त (असि) हैं, इससे मैं (रजसः) लोकों के मध्य (पृश्निगर्भाः) जिनमें अवकाश अधिक है, उन लोगों के (ज्योतिर्जरायुः) तारागणों को ढांपने वाले के समान (अयम्) यह (वेनः) अति मनोहर चन्द्रमा (चोदयत्) यथायोग्य अपने-अपने मार्ग में अभियुक्त करता है, (इमम्) इस चन्द्रमा को (अपाम्) जलों और (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के (सङ्गमे) सम्बन्धी आकर्षणादि विषयों में (शिशुम्) शिक्षा के योग्य बालक को (मतिभिः) विद्वान् लोग अपनी बुद्धियों से (रिहन्ति) सत्कार कर के (न) समान आदर के साथ ग्रहण कर रहे हैं और मैं (मर्काय) दुष्टों को शान्त करने और श्रेष्ठ व्यवहारों के स्थापन करने के लिये (विमाने) अनन्त अन्तरिक्ष में (त्वा) तुझे विविध प्रकार के यान बनाने के लिये स्वीकार करता हूं॥१६॥
भावार्थ
सभाध्यक्ष को चाहिये कि सूर्य्य और चन्द्रमा के समान श्रेष्ठ गुणों को प्रकाशित और दुष्ट व्यवहारों को शान्त करके श्रेष्ठ व्यवहार से सज्जन पुरुषों को आह्लाद देवें॥१६॥
विषय
शक्ति व शान्ति का समन्वय
पदार्थ
१. ( अयम् ) = गत मन्त्र में वर्णित मधुर वाणियोंवाला यह व्यक्ति ही ( वेनः ) = मेधावी है [ नि० ३।१५ ]। यह ( पृश्निगर्भाः ) = [ पृश्निः आदित्यो गर्भे येषाम् ] आदित्य के समान ज्योति है गर्भ में जिनके, अर्थात् ज्ञान से परिपूर्ण वाणियों को ( चोदयत् ) = प्रेरित करता है, अर्थात् इसकी वाणियाँ सदा ज्ञान के प्रकाशवाली होती हैं।
२. यह ( रजसो विमाने ) = रजोगुण के विशिष्ट रूप से निर्माण के निमित्त ( ज्योतिर्जरायुः ) = ज्योतिरूप वेष्टन व आच्छादनवाला होता है। यह ज्ञान को अपना आवरण बनाता है और परिणामतः रजोगुण को विशिष्ट परिमाण में अपने अन्दर विकसित होने देता है। ज्ञान के कारण इसका रजोगुण उच्छृंखल न होकर सदा नियन्त्रित होता है।
३. ( इमम् ) = इस वेन [ मेधावी ] को ( अपाम् ) = जलों, ( सूर्यस्य ) = सूर्य व तेज का ( सङ्गमे ) = सङ्गम होने पर, अर्थात् शान्ति [ = जल ] व शक्ति [ = सूर्य-तेज ] का समन्वय होने पर ( शिशुं न ) = शिशु के समान अर्थात् पुत्रवत् प्रेम करते हुए ( विप्राः ) = ज्ञानी लोग ( मतिभिः ) = ज्ञानों से ( रिहन्ति ) = सत्कृत करते हैं [ रिहन्तीत्यर्चतिकर्मसु—नि० ३।१४ ], अर्थात् शान्ति व शक्ति का अपने में समन्वय करनेवाले इस मेधावी को जो ( शिशुं न ) = एक अबोध बालक के समान निर्दोष है, ज्ञानी लोग प्रेम से ज्ञान देते हैं। आचार्यों का विद्यार्थी को ज्ञान देना ही अर्चन है।
४. ( उपयामगृहीतः असि ) = हे वेन! तू उपयामगृहीत है, प्रभु की उपासना द्वारा यम-नियमों से युक्त है। ( मर्काय त्वा ) = [ मर्च गतौ ] मैं तुझे गतिशीलता के लिए प्रेरित करता हूँ। यह गतिशीलता ही तुझे पवित्र बनाएगी और तू प्रभु का उपासक बनकर यम-नियमों का पालन करनेवाला हो सकेगा।
भावार्थ
भावार्थ — मेधावी पुरुष ज्ञान को अपना आच्छादन बनाता है। यह अपने जीवन में शान्ति व शक्ति का मिश्रण करता है। ज्ञानी इसे प्रेम से ज्ञान प्राप्त कराते हैं और यह गतिशील बनकर प्रभु का उपासक होता हुआ यम-नियमों का पालन करता है।
विषय
वेनो देवता । ( १ ) निदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः । ( २ ) गायत्री । षड्जः ॥
भावार्थ
( अयं ) यह ( वेन: ) कान्तिमान् राजा एक उत्पन्न होने वाले बालक के समान है । ( रजय: विमाने ) गर्भस्थ जल के विशेष रूप से बने स्थान में स्वयं (ज्योतिर्जरायुः ) बच्चा जिस प्रकार जेर में लिपटा रहता है उसी प्रकार वह राजा भी ( रजसः विमाने ) समस्त लोकों के बने विशेष संगठन के भीतर ज्योतिः, प्रकाश, तेज रूप जेर से लिपटा रहता है । बच्चा जिस प्रकार ( पृश्र्निगर्भाः ) माता के पेट के जलों को प्रथम बाहर फेंकता है उसी प्रकार यह राजा भी ज्योति के धारण करने वाले सूर्य को अपने भीतर ग्रहण करने वाली प्रजानों को ( चोदयात् । प्रेरित करता है । (अपां संगमे ) जलों के एकत्र हो जाने पर जिस प्रकार बच्चे को अंगुलियों से बाहर कर लिया जाता है। इसी प्रकार ( विप्राः ) मेधावी विद्वान् पुरुष ( शिशुं न ) बालक के समान ही ( सूर्यस्य ) सूर्य के समान, प्रचण्ड ताप के कारण (शिशुं) प्रशंसनीय, या उसके समान दानशील राजा को ( अपां संगने) प्रजाओं के एकत्र होने के अवसर पर ( मतिभिः ) अपनी ज्ञानमय स्तुतियों से ( रिहन्ति ) अर्चना करते हैं । हे योग्य पुरुष ! (त्म्) तू ( उपयामगृहीतः असि ) राज्य के नाना अंगों, या राष्ट्र के समस्त भागों से स्वयं राजा रूप में स्वीकृत है । (त्वा) तुझको (मर्काय ) मर्क अर्थात् शरीर में जिस प्रकार समस्त अंगों में प्राण वायु चेष्टा करता है उसी प्रकार समस्त राष्ट्र में विशेष प्रेरणा देने वाले उत्तेजक पुरुष के पद पर नियुक्त करता हूं । शत० ४।२।१।८- ९० ॥
'मर्काय' मर्चतेः कन् ( उणा० ) मर्चति चेष्टते असौ इति मर्क: शरीर वायुर्वा ।
चन्द्रपक्ष में- यह ( वेनः ) कान्तिमान् चन्द्र ( रजसः विमाने ) जल के निर्माण अर्थात् वर्षाकाल में ( ज्योतिर्जरायुः ) दीप्ति में लिपट कर पृश्र्निगर्भा : ) अन्तरिक्ष या वातावरण में स्थित जलों को वर्षो रूप में प्रेरित करता है । और जलों के प्राप्त हो जाने पर विद्वान लोग सूर्य के पुत्र के समान इसकी स्तुति करते हैं ।
टिप्पणी
१ अयं वेनश्र्वोदयत्पृश्रिगर्भा २ उपयामगृहीतोऽसि ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वेनो देवता । ( १ ) निदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः । ( २ ) गायत्री । षड्जः ॥
विषय
अब सभाध्यक्ष राजा को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है ॥
भाषार्थ
हे शिल्प विद्या की विधि जानने वाले सभाध्यक्ष विद्वान् ! आप (उपयामगृहीतः) राज्य के अङ्गों से युक्त (असि) हो, इसलिये मैं (रजसः) लोकों के मध्य में (पृश्निगर्भाः) सब लोक जिसके गर्भ में हैं उस अन्तरिक्ष लोक के समान, (ज्योतिर्जरायुः) ज्योतिर्मय तारागणों को जरायु के समान ढांपने वाले के तुल्य (अयम्) जो यह (वेनः) मनोहर चन्द्रमा (चोदयत्) गति करता है, (इमम्) इस (चन्द्रम्) चन्द्रमा के समान तथा (अपाम्) जल और (सूर्यस्य) सूर्य के (संगमे) युद्ध के समान और जैसे (शिशुम्) शिक्षा करने योग्य बालक को (विप्राः) विद्वान् लोग (मतिभिः) विद्या दान से (रिहन्ति) सत्कृत करते हैं उस शिशु के समान, और (मर्काय) दुष्टों को शान्त करने के लिये तथा श्रेष्ठों के व्यवहार को स्थापित करने के लिये तथा दुष्टों की मृत्यु के हेतु वायुविद्या को जानने के लिये (विमाने) परिमाण रहित अन्तरिक्ष में (त्वाम्) तुझे स्वीकार करता हूँ ।। ७ । १६ ।।
भावार्थ
सभाध्यक्ष विद्वान् सूर्य और चन्द्रमा के गुणों के समान श्रेष्ठ गुणों को प्रकाशित करके दुष्टों के शमन से श्रेष्ठ व्यवहार के द्वारा सज्जनों को आनन्दित करे ।। ७ । १६ ।।
प्रमाणार्थ
(चोदयत्) यहाँ लट् अर्थ में लङ् लकार और अट् का अभाव है। (सङ्गमे) 'सङ्गमे' शब्द निघं० (२ । १७) में सङ्ग्राम-नामों में पढ़ा है। (रिहन्ति) यह पद निघं० (३।१४) में पूजा-अर्थ वाली क्रियाओं में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या निरुक्त में (१० । ३८) की है और शतपथ में ( ४ । २ । १ । १०-११) व्याख्या की है।
भाष्यसार
सभाध्यक्ष राजा का कर्त्तव्य--सभाध्यक्ष विद्वान् राजा शिल्प विद्या की विधि का ज्ञाता हो, राज्य के अङ्गों से युक्त हो, जैसे सब लोक अन्तरिक्ष के गर्भ में हैं, इस प्रकार सब सभाध्यक्ष के अधीन रहें, जैसे चन्द्रमा अपने तेज से ज्योतिर्मय तारागणों को आच्छादित कर लेता है, वैसे सभाध्यक्ष भी अपने तेज से सब को जरायु के समान आच्छादित करने वाला हो, जैसे चन्द्रमा कमनीय है, सबको प्यारा लगता है, वैसे सभाध्यक्ष भी सब को प्रिय लगने वाला एवं सब से प्रेम करने वाला हो, जैसे चन्द्रमा गतिशील है वैसे स्वयं पुरुषार्थी एवं राज्य का संचालन करने वाला हो। जैसे जल अर्थात् मेघ और सूर्य के युद्ध में सूर्य का विजय और मेघ का पराजय होता है, वैसे युद्ध में विजय प्राप्त करने वाला हो । जैसे मेधावी विद्वान् लोग विद्यादान से बालक का सत्कार करते हैं, वैसे सभाध्यक्ष राजा अपनी प्रजा रूप सन्तान का सत्कार करे। प्रजा भी सभासद राजा का पूर्ण सम्मान करे। जैसे उक्त सूर्य और चन्द्रमा पदार्थों को प्रकाशित करते हैं, वैसे सभाध्यक्ष श्रेष्ठ गुणों को प्रकाशित करके दुष्टों का शमन और श्रेष्ठ व्यवहारों की स्थापना कर सज्जनों को आनन्दित करे। सभाध्यक्ष दुष्टों को मृत्यु के लिये वायुविद्या का ज्ञाताहो । प्रजाजन परिमाणरहित अर्थात् अत्यन्त विशाल प्राङ्गण वाली सभा में सभाध्यक्ष राजा का वरण करे, राजा स्वीकार करे ।। ७ । १६ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
राजाने सूर्य व चंद्राप्रमाणे श्रेष्ठ गुणांनी युक्त होऊन दुष्ट व्यवहार सोडून द्यावा व उत्तम व्यवहाराने सज्जनांना आह्लादित करावे.
विषय
आता सभाध्यक्ष असलेल्या राजाने काय करावे, (त्याचे कर्त्तव्य-कर्म कोणते) याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे शिल्पविद्येचे ज्ञाता विद्वान सभाध्यक्ष, (उपसामगृहीत:) राज्याची सेना आदी जी विविध अंगें असतात, त्या अंगांनी आपण बलवान व सक्षम (असि) आहात. (रजस:) लोक-लोकांतरामध्ये) (पृश्निगर्ब्भा:) अधिक अवकाश (स्थान) असलेले जे लोक (भुवन) आहेत, त्यांना (ज्योतिर्जरायु:) तारामंडळास निष्प्रभ करणारा (अथम्) हा (वेन:) मनोहर चंद्र (चोदयत्) त्या त्या ग्रह, नक्षत्र आदींना आपापल्या यथोचित मार्गात संचलित करतो. (इमम्) हा चंद्र ज्याप्रमाणे (अपां) जल आणि (सूर्यास्थ) सूर्याच्या (संगमे) आकर्षण आदी नियमांनी बांधलेला आहे, त्याप्रमाणे विद्वज्जन (शिशुम्) शिकण्यास पात्र अशा बालकाला आपल्या (मतिभि:) बुद्धी व ज्ञानाने (रिहंति) सत्कार व आदर देऊन ग्रहण करतात. मी (एक श्रेष्ठ वैज्ञानिक) (मर्काय) दुष्टांचे दलन-दमन करण्यासाठी आणि श्रेष्ठ व्यवहारांच्या स्थापनेसाठी (सुव्यवस्थित, शांत व निर्भय राज्य बनविण्यासाठी) (विमाने) या विशाल अंतरिक्षात विविध प्रकारचे यान निर्माण करण्यासाठी व चालविण्यासाठी (त्वा) तुझे ग्रहण करीत आहे. (आकाशातील युद्ध जिंकण्यासाठी विमानादीची निर्मिती व संचालन यांचे शिक्षण वा ज्ञान देत आहे) ॥16॥
भावार्थ
भावार्थ - सभाध्यक्षाचे कर्तव्य आहे की त्याने विद्वानांच्या (वैज्ञानिकांच्या) श्रेष्ठ गुणांना प्रकट होण्याची संधी द्यावी. सूर्य आणि चंद्राप्रमाणे त्यांच्यातील प्रतिभा प्रगट व्हावी. तसेच सेना आदी द्वारे दृष्टांचे व्यवहार शांत करावेत आणि श्रेष्ठ व्यवहारांद्वारे सज्जनांना आल्हादित करावे ॥16॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O skilful ruler, thou art equipped with army, the essential mainstay of kingship. I fix in its orbit, in the midst of spacious regions, this beautiful moon that covers the luminous stars, and is linked with the sun and the waters that it attracts. Just as learned persons wisely and respectfully accept a young pupil, so do I accept thee for curbing the sinful and establishing the code of morality.
Meaning
This ruler of the republic, like the bright moon in the womb of the vast space covering other lights in the celestial regions, inspires and moves about in orbit majestically, powerful as the sun in the battle of the waters. Men of knowledge and wisdom advise him with the gift of knowledge and policy just as freely as a teacher teaches the disciple. Accepted (by will), consecrated (through yajna), positioned in the laws and structure of the republic, we accept and honour you for the defence of the society and elimination of the enemies.
Translation
This shining one has activated the light encompassing all the mid-space, which was like a chorion for the immeasurable worlds. Wise sages praise this one at the confluence of cosmic waters just like a child of the sun. (1) You have been duly accepted. You to the sin. (2)
Notes
Venah, shining one. Compare from Venus, the brightest planet. Jarayuh, chorion (outer foetal envelope). Pr$nigarbhah, पृश्नि अंतरिक्ष गर्भे यासां ता:, those who envelope the whole midspace. Араm sangame, at the confluence of cosmic waters. Süryasya Sigum na, like a son of the sun. Rihanti, worship or praise. | Markaya, to the sin. In legend, name of an asura; son of Sukracarya.
बंगाली (1)
विषय
অথ সভাধ্যক্ষেণ রাজ্ঞা কিং কর্ত্তব্যমিত্যুপদিশ্যতে ॥
এখন সভাধ্যক্ষ রাজাকে কী করা উচিত এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে শিল্পবিধির জ্ঞাতা সভাধ্যক্ষ বিদ্বান্ ! আপনি (উপয়াম গৃহীতঃ) সেনাদি রাজ্যের অঙ্গ সহ যুক্ত (অসি) আছেন, এতদ্দ্বারা আমি (রজসঃ) লোকসমূহ মধ্যে (পৃশ্নিগর্ভাঃ) যাহাতে অবকাশ অধিক, তাহাদিগের (জ্যোতির্জরায়ুঃ) তারাগণকে আচ্ছাদন কারীর সমান (অয়ম্) ইহা (বেনঃ) অতি মনোহর চন্দ্র (চোদয়ৎ) যথাযোগ্য নিজ নিজ মার্গে নিযুক্ত করে (ইমম্) এই চন্দ্রকে (অপাম্) জল ও (সূর্য়্যস্য) সূর্য্যের (সঙ্গমে) সম্বন্ধীয় আকর্ষণাদি বিষয়ে (শিশুম্) শিক্ষাযোগ্য বালককে (মতিভিঃ) বিদ্বান্গণ স্বীয় বুদ্ধি দ্বারা (রিহন্তি) সৎকার করিয়া (ন) সমান আদর সহ গ্রহণ করিতেছেন এবং আমি (মর্কায়) দুষ্টদিগকে শান্ত করিবার এবং শ্রেষ্ঠ ব্যবহার স্থাপন করিবার জন্য (বিমানে) অনন্ত অন্তরিক্ষে (ত্বা) তোমাকে বিবিধ প্রকারের যান তৈরী করিবার জন্য স্বীকার করিতেছি ॥ ১৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- সভাধ্যক্ষের উচিত যে, সূর্য্য ও চন্দ্রের সমান শ্রেষ্ঠ গুণসকলকে প্রকাশিত এবং দুষ্ট ব্যবহার সকলকে শান্ত করিয়া শ্রেষ্ঠ ব্যবহার দ্বারা সজ্জন পুরুষদিগকে আহ্লাদিত করুক ॥ ১৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒য়ং বে॒নশ্চো॑দয়॒ৎ পৃশ্নি॑গর্ভা॒ জ্যোতি॑র্জরায়ূ॒ রজ॑সো বি॒মানে॑ । ই॒মম॒পাᳬं স॑ঙ্গ॒মে সূর্য়॑স্য॒ শিশুং॒ ন বিপ্রা॑ ম॒তিভী॑ রিহন্তি । উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতোऽসি॒ মর্কা॑য় ত্বা ॥ ১৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অয়ং বেন ইত্যস্য বৎসারঃ কাশ্যপ ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । আদ্যস্য নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ । উপয়াম ইত্যস্য সাম্নী গায়ত্রী ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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