यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 45
ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - विराट जगती,
स्वरः - निषादः
92
रू॒पेण॑ वो रू॒पम॒भ्यागां॑ तु॒थो वो वि॒श्ववे॑दा॒ विभ॑जतु। ऋ॒तस्य॑ प॒था प्रेत॑ च॒न्द्रद॑क्षिणा॒ वि स्वः॒ पश्य॒ व्यन्तरि॑क्षं॒ यत॑स्व सद॒स्यैः॥४५॥
स्वर सहित पद पाठरूपेण॑। वः॒। रू॒पम्। अ॒भि। आ। अ॒गा॒म्। तु॒थः। वः॒। वि॒श्ववे॑दा॒ इति॑ वि॒श्वऽवेदाः। वि। भ॒ज॒तु॒। ऋ॒तस्य॑। प॒था। प्र। इ॒त॒। च॒न्द्रद॑क्षिणा॒ इति॑ च॒न्द्रऽद॑क्षिणाः। वि। स्व॒रिति॒ स्वः᳖। पश्य॑। वि। अ॒न्तरि॑क्षम्। यत॑स्व। स॒द॒स्यैः᳖ ॥४५॥
स्वर रहित मन्त्र
रूपेण वो रूपमभ्यागान्तुथो वो विश्ववेदा वि भजतु । ऋतस्य पथा प्रेत चन्द्रदक्षिणाः वि स्वः पश्य व्यन्तरिक्षँयतस्व सदस्यैः ॥
स्वर रहित पद पाठ
रूपेण। वः। रूपम्। अभि। आ। अगाम्। तुथः। वः। विश्ववेदा इति विश्वऽवेदाः। वि। भजतु। ऋतस्य। पथा। प्र। इत। चन्द्रदक्षिणा इति चन्द्रऽदक्षिणाः। वि। स्वरिति स्वः। पश्य। वि। अन्तरिक्षम्। यतस्व। सदस्यैः॥४५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ सभात्रयेण राज्यं शासनीयमित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे सेना प्रजाजना! यथाहं रूपेण वो युष्माकं रूपमभ्यागाम्, तथा विश्ववेदा वो युष्मान् विभजतु। तुथस्त्वं स्वरिवर्त्तस्य पथान्तरिक्षं विपश्य, सभायां सदस्यैः सहर्त्तस्य पथा प्रयतस्व। चन्द्रदक्षिणा यूयमृतस्य धर्म्यं मार्गं वीत॥४५॥
पदार्थः
(रूपेण) चक्षुग्राह्येण प्रियेण (वः) युष्माकम् (रूपम्) स्वरूपम् (अभि) सम्मुखे (आ) समन्तात् (अगाम्) (तुथः) ज्ञानवृद्धः, अत्र तु गतिवृद्धिहिंसास्वित्यस्मादौणादिकस्थक् प्रत्ययः। (वः) युष्मान् (विश्ववेदाः) यः परत्मात्मा विश्वं सर्वं वेत्ति तद्वद्वर्त्तमानः (वि) (भजतु) विभागं करोतु (ऋतस्य) सत्यस्य (पथा) मार्गेण (प्र) (इत) प्राप्नुत (चन्द्रदक्षिणाः) चन्द्रं सुवर्णं दक्षिणा दानं येषा ते। चन्द्रमिति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं॰१।२) (वि) (स्वः) उपतपन्नादित्य इव। स्वरादित्यो भवति। (निरु॰२।१४) (पश्य) प्रचक्ष्व (वि) विविधार्थे (अन्तरिक्षम्) क्षयरहितमन्तर्य्यामिस्वाभाविकं ब्रह्मविज्ञानं वा। अन्तरिक्षम् कस्मादन्तरा क्षान्तं भवत्यन्तरेमे इति वा शरीरेष्वन्तरक्षयमिति वा। (निरु॰२।१०) (यतस्व) प्रयत्नं कुरु (सदस्यैः) सदसि भवैः सभ्यैर्जनैः सह॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। ३। ४। १४-१८) व्याख्यातः॥४५॥
भावार्थः
सभापती राजा स्वात्मजानिव प्रजासेनासभ्यपुरुषान् प्रीणयेत्, तथा पक्षपातरहितः परमेश्वर इव सततं न्यायं कुर्यात्। धार्मिकाणां सभ्यानां जनानां तिस्रः सभा भवेयुः। तास्वेका राजसभा-यया राजकार्याणि निष्पद्येरन्, सर्वे विघ्ना निवर्तेरंश्च। द्वितीया विद्यासभा-यया विद्याप्रचारः स्यादविद्या नश्येत्। तृतीया धर्मसभा-यया धर्मोन्नतिरधर्महानिश्च सततं भवेत्, सर्वे स्वात्मानं परमात्मानं समीक्ष्यान्यायमार्गात् पृथग्भूत्वा धर्मं सेवित्वा समयं पर्य्यालोच्य सत्यासत्यनिर्णये प्रयतेरन्॥४५॥
विषयः
अथ सभात्रयेण राज्यं शासनीयमित्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
हे सेनाप्रजाजनाः ! यथाहं रूपेण चक्षुर्ग्राह्येण प्रियेण वः=युष्माकं रूपं स्वरूपम् अभ्यागाम् अभिमुखं समन्तादगाम्, तथा विश्ववेदाः यः परमात्मा विश्वं=सर्वं वेत्ति तद्वद्वर्तमानः वः युष्मान् विभजतु विभागं करोतु। तुथ: ज्ञानवृद्धः त्वं स्वः उपतपन्नादित्य इव ऋतस्य सत्यस्य पथा मार्गेण अन्तरिक्षं क्षयरहितमन्तर्यामिस्वाभाविकं ब्रह्मविज्ञानं वा विपश्य विविधं प्रचक्ष्व । सभायां सदस्यैः सदसिभवैः सभ्यैर्जनैः सह ॠतस्य सत्यस्य पथा मार्गेण प्रयतस्व प्रयत्नं कुरु। चन्द्रदक्षिणाः चन्द्रं=सुवर्णं दक्षिणा=दानं येषां ते यूयम् ऋतस्य सत्यस्य धर्म्यं मार्गं वि+इत प्राप्नुत ।। ७ । ४५ ।। [हे सेनाप्रजाजन:! यथाहं रूपेण वः=युष्माकं रूपमभ्यागां तथा विश्ववेदा वो विभजतु]
पदार्थः
(रूपेण) चक्षुर्ग्राह्येण प्रियेण (व:) युष्माकम् (रूपम्) स्वरूपम् (अभि) सम्मुखे (आ) समन्तात् (अगाम्) (तुथः) ज्ञानवृद्धः। अत्र तु गतिवृद्धिहिंसास्वित्यस्मादौणादिकस्थक् प्रत्ययः (वः) युष्मान् (विश्ववेदाः) यः परमात्मा विश्वं=सर्वं वेत्ति तद्वद्वर्त्तमानः (वि) (भजतु) विभागं करोतु (ॠतस्य) सत्यस्य (पथा) मार्गेण (प्र) (इत) प्राप्नुत (चन्द्रदक्षिणाः) चन्द्रं=सुवर्णं दक्षिणा=दानं येषां ते। चन्द्रमिति हिरण्यनामसु पठितम् ॥ निघं० १ । २ ॥ (वि) (स्व:) उपतपन्नादित्य इव। स्वरादित्यो भवति ॥ निरु० २ । १४ ॥ (पश्य) प्रचक्ष्व (वि) विविधार्थे (अन्तरिक्षम्) क्षयरहितमन्तर्यामिस्वाभाविकं ब्रह्मविज्ञानं वा। अन्तरिक्षम् कस्मादन्तरा क्षान्तं भवत्यन्तरेमे इति वा शरीरेष्वन्तरक्षयमिति वा। निरु० २ । १०।। (यतस्व) प्रयत्नं कुरु (सदस्यैः) सदसि भवैः सभ्यैर्जनैः सह।अयं मन्त्रः शत० ४ । ३ । ४ । १४-१८ व्याख्यातः ॥ ४५ ॥
भावार्थः
सभापति राजा स्वात्मजानिव प्रजासेनासभ्यपुरुषान् प्रीणयेत्, तथा पक्षपातरहितः परमेश्वर इव सततं न्यायं कुर्यात्। धार्मिकाणां सभ्यानां जनानां तिस्नः सभा भवेयुः-- [तुथस्त्वं स्वरिवर्तस्य पथान्तरिक्षं विपश्य] तास्वेका राजसभा=यया राजकार्याणि निष्पद्येरन् सर्वे विघ्ना निवर्तेरँश्च । [सभायां सदस्यैः सहर्तस्य यथा प्रयतस्व] द्वितीया विद्यासभा--यया विद्याप्रचारः स्यादविद्या नश्येत्। [चन्द्रदक्षिणा यूयमृतस्यधर्म्यं मार्गं वीत] तृतीया धर्मसभा--यया धर्मोन्नतिरधर्महानिश्च सततं भवेत्। सर्वे स्वात्मानं परमात्मानं समीक्ष्यान्यायमार्गात् पृथग् भूत्वा, धर्मं सेवित्वा, समयं पर्यालोच्य सत्यासत्यनिर्णये प्रयतेरन् ।। ७ । ४५ ।।
विशेषः
आङ्गिरसः।प्रजापतिः=सभापती राजा। विराड् जगती । निषादः ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब तीन सभाओं से राज्य की शिक्षा करनी चाहिये इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे सेना और प्रजाजनो! जैसे मैं (रूपेण) अपने दृष्टिगोचर आकार से (वः) तुम्हारे (रूपम्) स्वरूप को (अभि) (आ) (अगाम्) प्राप्त होता हूं, वैसे (विश्ववेदाः) सब को जानने वाले परमात्मा के समान सभापति (वः) तुम लोगों को (वि) (भजतु) पृथक्-पृथक् अपने-अपने अधिकार में नियत करे। हे सभापते! (तुथः) सब से अधिक ज्ञान वाले प्रतिष्ठित आप (स्वः) प्रताप को प्राप्त हुए सूर्य्य के समान (ऋतस्य) सत्य के (पथा) मार्ग से (अन्तरिक्षम्) अविनाशी राजनीति वा ब्रह्मविज्ञान को (वि) अनेक प्रकार से (पश्य) देखो और सभा के बीच में (सदस्यैः) सभासदों के साथ सत्य मार्ग से (प्र) (यतस्व) विशेष-विशेष यत्न करो तथा हे (चन्द्रदक्षिणाः) सुवर्ण के दान करने वाले राजपुरुषो! तुम लोग धर्म्म को (वीत) विशेषता से प्राप्त होओ॥४५॥
भावार्थ
सभापति राजा को चाहिये कि प्रजा, सेना के पुरुषों को अपने पुत्रों के तुल्य प्रसन्न रक्खे और परमेश्वर के तुल्य पक्षपात छोड़ कर न्याय करे। धार्म्मिक सभ्यजनों की तीन सभा होनी चाहियें उनमें से एक राजसभा जिस के आधीन राज्य के सब कार्य्य चलें और सब उपद्रव निवृत्त रहें। दूसरी विद्यासभा जिससे विद्या का प्रचार अनेकविधि किया जावे और अविद्या का नाश होता रहे और तीसरी धर्म्मसभा जिससे धर्म्म की उन्नति और अधर्म्म की हानि निरन्तर की जाय। सब लोगों को उचित है कि अपने आत्मा और परमात्मा को देखकर अन्याय मार्ग से अलग हों, धर्म्म का सेवन और सभासदों के साथ समयानुकूल अनेक प्रकार से विचार करके सत्य और असत्य के निर्णय करने में प्रयत्न किया करें॥४५॥
विषय
चार आश्रम
पदार्थ
१. गत मन्त्र की भावना थी कि हम आगे और आगे बढ़ते चलें। उसी भावना को अधिक व्यक्त शब्दों में प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं। यहाँ जीवन-यात्रा को चार भागों में बाँटकर पहले ब्रह्मचर्याश्रम के लिए कहते हैं कि [ क ] हे मेरे अङ्ग-प्रत्यङ्गो! ( वः रूपेण ) = तुम्हारे उत्तम रूप से ( रूपम् ) = सुन्दर रूप को ( अभ्यागाम् ) = प्राप्त होऊँ। ब्रह्मचर्याश्रम में मैं शक्ति का सञ्चय करूँ। इस शक्ति-सञ्चय से मेरा प्रत्येक अङ्ग सुन्दर रूपवाला हो। प्रत्येक अङ्ग के सौन्दर्य पर ही शरीर का सौन्दर्य भी निर्भर करता है। [ ख ] इस ब्रह्मचर्याश्रम में दूसरी महत्त्वपूर्ण बात ज्ञान की है, अतः कहते हैं कि ( तुथः ) = ज्ञानवृद्ध ( विश्ववेदाः ) = सम्पूर्ण ज्ञानोंवाला, सब विषयों का पण्डित आचार्य ( वः विभजतु ) = तुम्हें अपने ज्ञान का विशेषरूप से सेवित करानेवाला हो। अपने ज्ञान का तुम्हारे साथ विभाग करे। एवं, ब्रह्मचर्याश्रम में हम स्वास्थ्य, सौन्दर्य व ज्ञान को प्राप्त करनेवाले बनें।
२. इसके बाद गृहस्थ के लिए भी दो बातों को कहते हैं कि [ क ] ( ऋतस्य पथा प्रेत ) = सत्य के मार्ग से चलो। जीवन में ऋत का पालन करो। ( ऋत ) = right और नियमितता regularity = तुम्हारे जीवन का अङ्ग हो। सूर्य और चन्द्रमा की तरह अपने दैनिक कृत्यों को समय पर करनेवाले बनो। [ ख ] ( चन्द्रदक्षिणाः ) = तुम [ चदि आह्लादे ] आनन्दमय दानवाले बनो। तुम्हें दान देने में आनन्द का अनुभव हो। अथवा [ चन्द्रं सुवर्णं दक्षिणा दानं येषां ते—द० ] तुम सुवर्णादि उत्तम धातुओं को दान देनेवाले बनो। एवं, गृहस्थ के कर्तव्य हैं [ क ] नियमितता व [ ख ] दान।
३. अब वनस्थ के लिए कहते हैं कि [ क ] ( स्वः ) = उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति आत्म-तत्त्व को ( विपश्य ) = विशेषरूप से देखने का प्रयत्न कर। वनस्थ ने सदा स्वाध्याय में युक्त रहकर आत्मदर्शन के लिए पूर्ण प्रयत्न करना है। [ ख ] ( अन्तरिक्षम् ) = अपने हृदयान्तरिक्ष को ( विपश्य ) = विशेषरूप से देख। अपने हृदय का प्रातः-सायं निरीक्षण करनेवाला बन। यह आत्मालोचन की वृत्ति ही सारी उन्नतियों का मूल है। एवं, वनस्थ के कर्तव्य हैं—आत्मदर्शन व आत्मालोचन।
४. अब जीवन के अन्ति प्रयाण में संन्यासी के लिए कहते हैं कि ( सदस्यैः ) = सभा में स्थित व्यक्तियों के साथ ( यतस्व ) = तू यत्नशील हो। जो लोग ज्ञान की चर्चा सुनने के लिए सभा में पहुँचते हैं, उनके साथ तू पूर्ण प्रयत्न कर, अर्थात् तू अधिक-से-अधिक सुन्दर शब्दों में उन्हें ज्ञान देनेवाला बन। पूर्ण चिन्तन के साथ सरल-स्पष्ट युक्ति को उपस्थित करते हुए तू उन्हें धर्म के मार्ग को हृदयङ्गम करानेवाला बन। ज्ञान देना ही संन्यासी का कर्त्तव्य है।
भावार्थ
भावार्थ — प्रथमाश्रम में स्वास्थ्य व ज्ञान, द्वितीयाश्रम में ऋत व दान, तृतीय में आत्मदर्शन व आत्मालोचन तथा चतुर्थ में ज्ञानप्रदान यही हमारे जीवन का कार्यक्रम हो।
विषय
उत्तम पुरुष की नियुक्ति ।
भावार्थ
हे प्रजाओ और हे सेना के पुरुषो ! ( रूपेण ) रूप अर्थात् चान्दी आदि मूल्यवान् एवं प्रिय पदार्थ से ( वः ) तुम्हारे ( रूपम् ) वास्तविक रूप, शरीर और उसमें विद्यमान तुम्हारे गुण या शिल्प को ( अभि आगाम् ) प्राप्त करता हूं । ( विश्ववेदाः ) समस्त धन ऐश्वर्य का स्वामी या सर्वज्ञ विद्वान् ( तुथ: ) ज्ञानवृद्ध ब्राह्मण, (व: ) तुमको (विभजतु ) नाना प्रकार से धन और ज्ञान का वितरण करे। अथवा ( वः विभजतु ) तुमको वर्गों में विभक्त करे। तुम सब ( ऋतस्य पथा ) ऋत, सत्यज्ञान, यज्ञ, परस्पर संगत, सुव्यवस्था के मार्ग से ( प्र इत) गमन करो । और ( चन्द्रदक्षिणाः) चन्द्र, सुवर्ण और चाँदी आदि की दक्षिणा अर्थात् अपने क्रिया के बदले वेतन प्राप्त करो। हे राजन् ! तू ( स्व: ) आकाश में विद्यमान तेजस्वी सूर्य को ( वि पश्य ) विशेष रूप से देख अर्थात् उसके समान तेजस्वी शत्रुतापक होकर राजपद को जान और उसका पालन कर और (अन्तरिक्षं विपश्य ) अन्तरिक्ष को भी विशेष रूप से जान । अर्थात् अन्तरिक्ष जिस प्रकार समस्त पृथिवी पर आच्छादित रहता और वायु वृष्टि द्वारा सबको पालता है उस प्रकार पृथ्वी निवासी प्रजा का पालन कर । और ( सदस्यैः ) सभा के सदस्यों द्वारा ( यतस्व ) राज्य करने का उद्योग कर ॥ शत० ४। ३ । ४ । १४-१८ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्देवता । निचृज्जगती । निषादः ॥
विषय
अब तीन सभायें राज्य का शासन करें, यह उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे सेना और प्रजा के पुरुषो ! जैसे मैं सभापति (रूपेण) नेत्रों से ग्रहण करने योग्य प्रिय रूप से (व:) तुम्हारे (रूपम्) स्वरूप को (अभ्यागाम्) प्राप्त होता हूँ वैसे (विश्ववेदाः) सर्वज्ञ परमात्मा के समान (व:) तुम्हें (विभजतु) राजा न्याय से युक्त करे। और-- (तुथः) ज्ञान-वृद्ध आप (स्व:) चमकते हुये सूर्य के समान (ऋतस्य) सत्यके (पथा) मार्ग से (अन्तरिक्षम्) क्षय रहित, स्वभाव से अन्तर्यामी ईश्वर को वा ब्रह्मविज्ञान को (विपश्य) विविध प्रकार से देख। और-- सभा में (सदस्यैः) सभा के सभ्य जनों के साथ (ऋतस्य) सत्य के (पथा) मार्ग से (प्रयतस्व) प्रयत्न कर। और— (चन्द्रदक्षिणा) सुवर्ण का दान करने वाले तुम लोग (ऋतस्य) सत्य के धर्मयुक्त मार्ग को (वि+इत) प्राप्त करो ॥ ७ । ४५ ।।
भावार्थ
सभापति राजा अपने पुत्रों के समान प्रजा, सेना और सभा के पुरुषों को प्रसन्न रखे और पक्षापात से रहित परमेश्वर के समान सदा न्याय करे। धार्मिक सभ्य पुरुषों की तीन सभा हों-- उनमें एक राजसभा हो जिससे सब राजकार्य सिद्ध हों तथा सब विघ्न दूर किये जायें। दूसरी विद्यासभा हो जिससे विद्या का प्रचार और अविद्या का नाश किया जाय। तीसरी धर्मसभा हो जिससे धर्म की उन्नति और धर्म की हानि सदा करें । सब अपने आत्मा और परमात्मा को देखकर अन्याय के मार्ग से हटकर, धर्म का सेवन कर, समयानुसार सत्य और असत्य के निर्णय में प्रयत्न करें ।। ७ । ४५ ।।
प्रमाणार्थ
(तुथः) यहाँ गति वृद्धि हिंसा अर्थ वाली 'तु' धातु से उणादिक 'थक्' प्रत्यय है। (चन्द्रदक्षिणा) 'चन्द्र' शब्द निघं० (१ । २) में हिरण्य-नामों में पढ़ा है। (स्व:) निरु० (२ । १४) में 'स्वः' शब्द का अर्थ आदित्य है। (अन्तरिक्षम्) इस शब्द की निरुक्ति निरु० (२।१०) में इस प्रकार की है –"अन्तरिक्ष को अन्तरिक्ष क्यों कहते हैं ? इसलिये कि पृथिवी और द्युलोक के बीच में यह शून्य रहता है, अथवा यह उन दोनों लोकों के बीच में रहता है, अथवा यह सब शरीरों के बीच में अक्षय रूप से विद्यमान रहता है।" इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ३ । ४ । १४-१८) में की गई है ॥ ७ । ४५ ।।
भाष्यसार
तीन सभाओं द्वारा राज्य का शासन--सभापति राजा अपने पुत्रों के समान प्रियभाव से सेना और प्रजा जनों को प्रसन्न रखें। जैसे परमात्मा सब पदार्थों का यथार्थ वेत्ता है वैसे सत्य और असत्य का यथार्थ वेत्ता बनकर पक्षपात रहित होकर परमेश्वर के समान सदा न्याय करे । इस न्याय-व्यवस्था को चलाने के लिये धार्मिक सभ्य जनों की तीन सभाओं का निर्माण करे:-- १. राजसभा--इस राजसभा में ज्ञान वृद्ध लोग हों। जिन का ज्ञान प्रचण्ड आदित्य के समान हो । जिससे वे सत्य के मार्ग पर चल कर नाशरहित, अन्तर्यामी स्वाभाविक ब्रह्म को अथवा विज्ञान को विविध प्रकार से देख सकें। अपने इस अद्भुत ब्रह्मज्ञान एवं विज्ञान से राजकार्यों को सिद्ध करें तथा राज कार्य में उपस्थित होने वाले विघ्नों का निवारण करें। २. विद्यासभा--राजा विद्यासभा के सभ्य सदस्यों के साथ सत्य के मार्ग पर चलने का पूर्ण प्रयत्न करे। इस सभा के सदस्य यह प्रयत्न करें कि राज्य में विद्या का प्रचार और अविद्या का नाश हो । ३. धर्मसभा--राजा धर्मसभा के सदस्य विद्वानों का सुवर्ण आदि उत्तम पदार्थों की दक्षिणा से सत्कार करे। और विद्वान् लोग सदा सत्य धर्म के मार्ग पर चलें तथा ऐसा प्रयत्न करें कि जिससे धर्म की उन्नति और धर्म की सदा हानि हो ।। ७ । ४५ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
राजाने आपल्या पुत्रांप्रमाणे सैन्यातील लोकांना प्रसन्न ठेवावे व परमेश्वराप्रमाणे पक्षपातरहित न्याय द्यावा. धार्मिक सभ्य पुरुषांच्या तीन प्रकारच्या सभा असाव्यात. त्यापैकी एक राज्यसभा, जिच्याद्वारे राज्याची सर्व कामे निर्वेधपणे चालावी व दुसरी विद्यासभा, ज्या सभेद्वारे अनेक प्रकारे विद्येचा प्रचार केला जावा व अविद्येचा नाश व्हावा. तिसरी धर्मसभा जिच्यामुळे सतत धर्माची उन्नती व अधर्माचा नाश व्हावा. सर्व लोकांनी आपला आत्मा व परमात्मा यांना जाणून अन्यायाच्या मार्गाचा त्याग करावा. सर्व सभासदाबरोबर धर्माचरण करून काळानुसार विचार विनियम करून सत्यासत्याचा निर्णय करण्याचा प्रयत्न करावा.
विषय
आता तीन सभांद्वारे राज्यात शिक्षणाचा प्रबन्ध कशाप्रकारे करावा, या विषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (कोणी विद्यावन म्हणत आहे) हे सैनिक हो आणि प्रजाजन हो, मी (रुपेण) आपल्या दृष्टीने (व:) तुमच्या (रुपम्) स्वरूपात (अभि) (आ) अगाम्) प्राप्त होत आहे (माझ्याप्रमाणे तुम्हांला व तुमच्याप्रमाणे स्वत:ला पाहत आहे, सर्वांना आपला मानत आहे ) म्हणून (विश्ववेदा:) सर्वज्ञानी परमेश्वराप्रमाणे या सभाध्यक्षाने देखील (व:) तुम्हांला (सैनिकांना आपण प्रजाजनांना) (वि) (भजतु) आपापल्या तुमच्या वेगवेगळ्या अधिकारात नेमावे. हे सभापती, (तुथ:) तुम्ही सर्वांपेक्षा अधिक ज्ञानी आणि प्रतिष्ठित आहात (स्व:) प्रतापी सूर्याप्रमाणे (ऋतस्य) सत्याच्या (पथा) मार्गाने (अन्तरिक्षम्) विशाल राजनीतीला वा ब्रह्मज्ञानाला (वि) अनेकप्रकारे (पश्म) पहा. (तुमचे राजकारण व ज्ञान सूर्याप्रमाणे स्वच्छ, प्रतापी व सत्यमार्गावर चालणारे असावे.) तुम्ही सभेमध्ये (सदस्यै:) सभासदांसह सत्यमार्गाने (प्र) (यतस्व) चालण्याचे विशेष यत्न करा. (चन्द्रदक्षिणा:) युवर्णाचे दान करणार्या हे धनिक राज्यधिकारीगण, तुम्ही धर्माचा (वीत) विशेषरूपेण अवलंब करा ॥45॥
भावार्थ
भावार्थ - सेनापतीचे कर्त्तव्य आहे की त्याने आपल्या सैनिकांना आणि प्रजाजनांना आपल्या पुत्राप्रमाणे मानावे आणि त्यांना प्रसन्न ठेवो. तसेच पक्षपात न करता परमेश्वराप्रमाणे त्या सर्वांशी न्याययुक्त आचरण करावे. (राज्यात सुशासन आणि सुप्रबन्ध होण्याकरिता आवश्यक आहे की) धार्मिक सभ्यजनांच्या तीन सभा असाव्यात. त्यापैकी पहिली सभा म्हणजे-राज्यसभा, या सभेच्या अधीन राज्याची सर्व कार्यें संचालित व्हावीत आणि सर्व उपद्रव वा विघ्न-बाधा दूर व्हाव्यात. दुसरी सभा म्हणजे विद्यासभा, या विद्यासभेद्वारे अनेकप्रकारे विद्येचा प्रसार व्हावा आणि अज्ञान अविद्येचा नाश व्हवा. तिसरी आहे धर्मसभा- या सभेद्वारे सदैव धर्माची उन्नती आणि अधर्माची हानी व्हावी. याशिवाय सर्व लोकांसाठी आवश्यक आहे की त्यानी आपल्या आत्म्याला साक्ष ठेवून व परमेश्वराला सर्वव्यापी जाणून अन्याय्य मार्गापासून दूर रहावे, धर्माचे पालन करावे आणि सभासदांशी समयानुकूल अनेक प्रकारे विचार-विनियम करून सत्य असत्याचा निर्णय करण्याच्या कामीं सदैव यत्नशील असावे. ॥45॥
इंग्लिश (3)
Meaning
This first warrior, the master of medical science, keeps us free from disease on the battle field. This second warrior, the destroyer of foes, marches forth on the battle field. This third warrior, the preacher, should encourage the fast moving brave soldiers. This fourth warrior, full of delight, should subdue the irreligious foes.
Meaning
With a discerning eye, I see the various grades of ability among you. The one who knows you all and knows the world may form you into different classes and councils for appropriate jobs. The highest in intelligence may touch the skies — realise the divine presence and the eternal values of life and action. Ruler of the people, with the members of the council, by the path of truth, act and move on. Men of golden generosity, go ahead on the path of Dharma with charity. (The ruler should constitute three councils: The Council of Education, Vidyarya Sabha, The Council of Governance, Raj arya Sabha, and the Council of Dharma, Dharmarya Sabha, to assist and advise him in the governance and administration of the country. )
Translation
By your beauty I have attained beauty. May the omniscient creator divide the same amongst you. May you, who have obtained delight as reward, tread upon the path of right. (1) Look at the heaven and at the mid-space. (2) Make concerted efforts with the people at the sacrifice. (3)
Notes
Rüpam, heauty or form. Tuthah, ब्रह्मा प्रजापति:, the Creator God. Candradaksinah, those whe have obtained delight as reward; also, those who have received gold (चंद्र) as guerdon. Sadasyaih, with the people assembled at the sacrifice.
बंगाली (1)
विषय
অথ সভাত্রয়েণ রাজ্যং শাসনীয়মিত্যুপদিশ্যতে ॥
এখন তিন সভা দ্বারা রাজ্যের শিক্ষা করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে সেনা ও প্রজাগণ । যেমন আমি (রূপেণ) নিজ দৃষ্টিগোচর আকার বলে (বঃ) তোমার (রূপম্) স্বরূপকে (অভি) (আ) (অগাম) প্রাপ্ত হই । সেইরূপ (বিশ্ববেদাঃ) সকলের জ্ঞাতা পরমেশ্বর সম সভাপতি (বঃ) তোমাদিগকে (বি) (ভজতু) পৃথক্-পৃথক্ নিজ-নিজ অধিকারে নিযুক্ত করুক । হে সভাপতে ! (তুথঃ) সর্বাপেক্ষা জ্ঞানযুক্ত প্রতিষ্ঠিত আপনি (স্বঃ) প্রতাপ প্রাপ্ত সূর্য্য সমান (ঋতস্য) সত্যের (পথা) মার্গ দ্বারা (অন্তরিক্ষম্) অবিনাশী রাজনীতি বা ব্রহ্মবিজ্ঞানকে (বি) অনেক প্রকারে (পশ্য) লক্ষ্য করুন এবং সভা মধ্যে (সদস্যৈঃ) সভাসদদের সঙ্গে সঙ্গে সত্য মার্গ দ্বারা (প্র) (য়তস্ব) বিশেষ বিশেষ প্রযত্ন করুন তথা হে (চন্দ্রদক্ষিণঃ) সুবর্ণ দানকারী রাজপুরুষগণ তোমরা ধর্ম্মকে (বীত) বিশেষ করিয়া প্রাপ্ত হও ॥ ৪৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- সভাপতি রাজার উচিত যে, নিজের পুত্র তুল্য প্রজা-সেনাগণকে প্রসন্ন রাখিবে এবং পরমেশ্বর তুল্য পক্ষপাত ত্যাগ করিয়া ন্যায় করিবে । ধার্মিক সভ্যপুরুষদিগের তিন সভা হওয়া উচিত । তাহাদের মধ্যে এক রাজ্যসভা যাহার অধীন রাজ্যের সব কার্য্য চলিবে এবং সকল উপদ্রব নিবৃত্ত থাকিবে । দ্বিতীয় বিদ্যাসভা যদ্দ্বারা বিদ্যার প্রচার বহু- বিধভাবে করা হয় এবং অবিদ্যার নাশ হইতে থাকে এবং তৃতীয় ধর্ম্ম সভা যদ্দ্বারা ধর্ম্মের উন্নতি এবং অধর্মের হানি নিরন্তর করা হইয়া থাকে । সর্বজনের কর্ত্তব্য যে, নিজ আত্মা ও পরমাত্মা দেখিয়া অন্যায় মার্গ হইতে পৃথক হইয়া, ধর্মের সেবন এবং সভাসদ্দিগের সহিত সময়ানুকূল অনেক প্রকার বিচার-বিমর্শ করিয়া সত্য ও অসত্য নির্ণয় করিতে প্রযত্নবান হয় ॥ ৪৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
রূ॒পেণ॑ বো রূ॒পম॒ভ্যাऽऽऽগাং॑ তু॒থো বো॑ বি॒শ্ববে॑দা॒ বিভ॑জতু । ঋ॒তস্য॑ প॒থা প্রেত॑ চ॒ন্দ্রদ॑ক্ষিণা॒ বি স্বঃ॒ পশ্য॒ ব্য᳕ন্তরি॑ক্ষং॒ য়ত॑স্ব সদ॒স্যৈঃ᳖ ॥ ৪৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
রূপেণেত্যস্যাঙ্গিরস ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । বিরাড্ জগতী চ্ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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