यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 5
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - ईश्वरो देवता
छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
109
अ॒न्तस्ते॒ द्यावा॑पृथि॒वी द॑धाम्य॒न्तर्द॑धाम्यु॒र्वन्तरि॑क्षम्। स॒जूर्दे॒वेभि॒रव॑रैः॒ ॒परै॑श्चान्तर्या॒मे म॑घवन् मादयस्व॥५॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्तरित्य॒न्तः। ते॒। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। द॒धा॒मि॒। अ॒न्तः। द॒धा॒मि॒। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेभिः॑। अव॑रैः। परैः॑। च॒। अ॒न्त॒र्य्याम इत्य॑न्तःऽया॒मे। म॒घ॒वन्निति॑ मघऽवन्। मा॒द॒य॒स्व॒ ॥५॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तस्ते द्यावापृथिवी दधाम्यन्तर्दधाम्युर्वन्तरिक्षम् । सजूर्देवेभिरवरैः परैश्चान्तर्यामे मघवन्मादयस्व ॥
स्वर रहित पद पाठ
अन्तरित्यन्तः। ते। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। दधामि। अन्तः। दधामि। उरु। अन्तरिक्षम्। सजूरिति सऽजूः। देवेभिः। अवरैः। परैः। च। अन्तर्य्याम इत्यन्तःऽयामे। मघवन्निति मघऽवन्। मादयस्व॥५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथेश्वरः प्राथमकल्पिकाय योगिने विज्ञानमाह॥
अन्वयः
हे मघवन् योगिन्! अहं ते तवान्तर्द्यावापृथिवी इव विज्ञानादिपदार्थान् दधामि, उर्वन्तरिक्षमन्त- र्दधामि, सजूस्त्वं देवेभिः प्राप्तैरवरैः परैश्च सहान्तर्यामे वर्त्तमानः सन्नन्यान् मादयस्व॥५॥
पदार्थः
(अन्तः) आकाशाभ्यन्तर इव (ते) तव (द्यावापृथिवी) भूमिसूर्य्याविव (दधामि) स्थापयामि (अन्तः) शरीराभ्यन्तरे (दधामि) स्थापयामि (उरु) बहु (अन्तरिक्षम्) अन्तरालमवकाशम् (सजूः) मित्र इव (देवेभिः) विद्वद्भिः (अवरैः) निकृष्टैः (परैः) उत्तमैश्वर्य्यव्यवहारैः (च) समुच्चये (अन्तर्य्यामे) यमानामयं यामः अन्तश्चासौ यामश्च तस्मिन् (मघवन्) परमोत्कृष्टधनितुल्य (मादयस्व) हर्षयस्व॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। १। २। १६) व्याख्यातः॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ईश्वर उपदिशति ब्रह्माण्डे यादृशा यावन्तः पदार्थाः सन्ति, तादृशास्तावन्तो मम ज्ञाने वर्तन्ते, योगविद्यादिरहितस्तान् द्रष्टुं न शक्नोति, नहीश्वरोपासनया विना कश्चिद्योगी भवितुमर्हति॥५॥
विषयः
अथेश्वरः प्राथमकल्पिकाय योगिने विज्ञानमाह॥
सपदार्थान्वयः
हे मघवन् परमोत्कृष्टधनितुल्य योगिन् ! अहं ते=तव अन्तः आकाशाभ्यन्तर इव द्यावापृथिवी भूमिसूर्यौइव विज्ञानादिपदार्थान् दधामि, स्थापयामि, उरु बहु अन्तरिक्षम् अन्तरालमवकाशम् अन्तः शरीराभ्यन्तरे दधामि स्थापयामि, सजू: मित्र इव त्वं देवेभिः=आप्तैः विद्वद्भिः अवरैः निकृष्टैःपरैः उत्तमैश्वर्यव्यवहारैः च सहान्तर्यामे यमानामयं यामः, अन्तश्चासौ यामश्च तस्मिन् वर्त्तमानःसन्नन्यान्मादयस्व हर्षयस्व ॥ ७ । ५ ॥ [हे मघवन् योगिन्नहं ते=तवान्तर्द्यावापृथिवी इव विज्ञानादिपदार्थान् दधामि]
पदार्थः
(अन्तः) आकाशाभ्यन्तर इव (ते) तव (द्यावापृथिवी) भूमिसूर्य्याविव (दधामि) स्थापयामि (अन्तः) शरीराभ्यन्तरे (दधामि) स्थापयामि (उरु) बहु (अन्तरिक्षम्) अन्तरालमवकाशम् (सजू:) मित्र इव (देवेभिः) विद्वद्भिः (अवरैः) निकृष्टैः (परैः) उत्तमैश्वर्य्यव्यवहारैः (च) समुच्चये (अन्तर्य्यामे) यमानामयं यामः, अन्तश्चासौ यामश्च तस्मिन् (मघवन्) परमोत्कृष्टधनितुल्य (मादयस्व) हर्षयस्व॥ अयं मन्त्रः शत० ४ । १ । २ । १६ व्याख्यातः ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः॥ईश्वर उपदिशति--ब्रह्माण्डे यादृशा यावन्तः पदार्थाः सन्ति, तादृशास्तावन्तो मम ज्ञाने वर्तन्ते, योगविद्यारहितस्तान् द्रष्टुं न शक्नोति, नहीश्वरोपासनया विना कश्चिद्योगी भवितुमर्हति ॥ ७। ५ ॥
विशेषः
गोतमः। ईश्वरः=स्पष्टम्।। आर्षी पंक्तिः। पंचमः।।
हिन्दी (4)
विषय
अब ईश्वर, जो योग में प्रथम ही प्रवृत्त होता है, उसके लिये विज्ञान का उपदेश अगले मन्त्र से करता है॥
पदार्थ
हे (मघवन्) योगी! मैं परमेश्वर (ते) तेरे (अन्तः) हृदयाकाश में (द्यावापृथिवी) सूर्य्य-भूमि के समान विज्ञानादि पदार्थों को (दधामि) स्थापित करता हूं तथा (उरु) विस्तृत (अन्तरिक्षम्) अवकाश को (अन्तः) शरीर के भीतर (दधामि) धरता हूं (सजूः) मित्र के समान तू (देवेभिः) विद्वानों से विद्या को प्राप्त हो के (अवरैः) (परैः) (च) थोड़े वा बहुत योग व्यवहारों से (अन्तर्य्यामे) भीतरले नियमों में वर्त्तमान होकर अन्य सब को (मादयस्व) प्रसन्न किया कर॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। ईश्वर का यह उपदेश है कि ब्रह्माण्ड में जिस प्रकार के जितने पदार्थं हैं, उसी प्रकार के उतने ही मेरे ज्ञान में वर्त्तमान हैं। योगविद्या को नहीं जानने वाला उनको नहीं देख सकता और मेरी उपासना के विना कोई योगी नहीं हो सकता है॥५॥
विषय
अवर-पर देवमैत्री
पदार्थ
गत मन्त्र के ‘उपयामगृहीत’ = योग के नियमों का पालन करनेवाले से प्रभु कहते हैं कि मैं १. ( ते अन्तः ) = तेरे अन्दर ( द्यावापृथिवी ) = द्युलोक व पृथिवीलोक को ( दधामि ) = धारण करता हूँ। तेरे मस्तिष्करूप द्युलोक को ज्योतिर्मय बनाता हूँ और तेरे पृथिवीरूप शरीर को बड़ा दृढ़ बनाता हूँ।
२. ( अन्तः ) = तेरे अन्दर ( उरु अन्तरिक्षम् ) = विशाल हृदयान्तरिक्ष को धारण करता हूँ। तेरे हृदय को विशाल बनाता हूँ।
३. इस योग-साधना से शरीर में सब देवांश बड़े ठीक ढङ्ग से अपना-अपना कार्य करते हैं। शरीर के मस्तिष्करूप द्युलोक में निवास करनेवाले देव ‘पर’ हैं तो पाँव आदि में रहनेवाले देव ‘अवर’ हैं। ( अवरै परैः च ) = इन अवर व पर ( देवेभिः सजूः ) = देवों से मित्रतावाला तू ( अन्तर्यामे ) = योग के द्वारा मन को अन्दर ही नियमन करने पर ( मघवन् ) = ज्ञानरूप उत्कृष्ट ऐश्वर्यवाला होकर ( मादयस्व ) = आनन्द का अनुभव कर। योग को यहाँ ‘अन्तर्याम’ शब्द से स्मरण किया गया है, क्योंकि इसके द्वारा मन को बाह्य विषयों से रोककर अन्दर रोका जाता है और इसके साथ ही प्राणनिरोध के द्वारा सोम का भी शरीर के अन्दर नियमन होता है। एवं, यह योग ‘अन्तर्याम’ है। इस अन्तर्याम के होने पर मनुष्य का ज्ञानैश्वर्य बढ़ता है और यह ‘मघवन्’ बन जाता है। इस ज्ञान [ ऋतम्भरा प्रज्ञा ] के प्राप्त होने पर मनुष्य वास्तविक आनन्द का अनुभव करता है।
भावार्थ
भावार्थ — योग द्वारा मनोनिरोध होने पर ‘मस्तिष्क, मन व शरीर’ सुन्दर बनते हैं। अवर व पर सब देवों से मित्रता होती है। ज्ञानैश्वर्य प्राप्त कर हम आनन्द प्राप्त करते हैं।
विषय
राजा का सूर्य के समान पद।
भावार्थ
हे मघवन् ! इन्द्र ! राजन् ! ( ते अन्तः ) तेरे शासन के भीतर ( द्यावा पृथिवी ) द्यौ और पृथिवी दोनों को ( दधामि ) स्थापित करता हूँ । और ( ते अन्तः ) तेरे ही शासन के भीतर ( उरु ) विशाल ( अन्तरिक्षम् ) अन्तरिक्ष को भी ( दधामि ) स्थापित करता हूं। अर्थात् तीनों को तेरे वश में रखता हूं अथवा तुम्हें तीनों का पद प्रदान करता हूँ । वह 'द्यौ' सूर्य के समान, सब का प्रकाशक, एवं समस्त सुखों का वर्षक, पृथिवी के समान सव का आश्रय और अन्तरिक्ष के समान उनका आच्छा- दक हो । और ( अवरैः ) अपने से नीचे के ( देवेभिः ) कर देनेवाले माण्डतिक राजाओं के साथ ( सजूः ) प्रेमयुक्त व्यवहार करता हुआ, उनका प्रेम पात्र होकर और ( परैः च) अपने से दूसरे शत्रु राजाओं के साथ मित्रभाव करके (अन्तर्याने) अपने राष्ट्र के भीतरी प्रबन्ध में ( मादयस्व ) समस्त प्रजानों को सुखी, प्रसन्न कर ।
अन्तर्यामः ' - यहा अनेन इमाः प्रजा यतास्तस्मादन्तर्यामो नाम। सोऽस्य अयमुदानोऽन्तरात्मन् हितः । श० ४ । १।२ । २ ॥ तेन उह असावादित्य उद्यन्नेव इमाः प्रजा न प्रदहति तेनेमाः प्रजास्त्वाताः । श० ४ । १।२ । १४ ॥
प्रजा का भीतरी प्रवन्ध विभाग 'अन्तर्याम' है। उसके प्रबल होने पर राजा बहुत बलिष्ट होकर भी अपनी प्रजाओं को नाश नहीं करता । इस भीतरी प्रबन्ध में राजा अपने अधीन राजाओं और शत्रु राजाओं से सन्धि करके उनके साध एकमत होकर मित्रभाव से रहता और अपनी उन्नति करता है इसीसे उसकी प्रजा सुरक्षित रहती हैं । शत० ४।१।२ ॥
टिप्पणी
५- मघवा देवता । 'सर्वा' ० । ० न्तरिक्षमन्येमि ॥ इति काण्व ० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मघवा ईश्वरो देवता । आर्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
विषय
अब ईश्वर जो योग में प्रथम ही प्रवृत्त होता है, उसके लिये विज्ञान का उपदेश करता है ॥
भाषार्थ
हे (मघवन्) परम धनवान् के समान योगी ! मैं (ते) तेरे (अन्तः) अन्दर (द्यावापृथिवी) आकाश में स्थित सूर्य और भूमि के समान विज्ञान आदि पदार्थों को (दधामि) स्थापित करता हूँ तथा (उरु) पर्याप्त (अन्तरिक्षम्) मध्यवर्ती अवकाश को (अन्तः) शरीर के अन्दर (दधामि) स्थापित करता हूँ (सजूः) मित्र के समान आप (देवेभिः) अत्यन्त आप्त विद्वानों (अवरैः) निकृष्ट मनुष्यों (परैः) उत्तम ऐश्वर्य का व्यवहार करने वाले पुरुषों के साथ (अन्तर्यामे) आन्तरिक यम आदि योगाङ्गों से उत्पन्न आनन्द में वर्तमान होकर दूसरों को भी (मादयस्व) हर्षित करो ॥ ७ । ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है॥ ईश्वर उपदेश करता है कि संसार में जैसे और जितने पदार्थ हैं वे सब वैसे और उतने मेरे ज्ञान में वर्त्तमान हैं, योग विद्या से रहित मनुष्य उनको देख नहीं सकता, और ईश्वरोपासना के बिना कोई योगी नहीं हो सकता ॥ ७ । ५ ॥
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।१।२।१६) में की गई है ॥ ७ । ५ ॥
भाष्यसार
१. प्राथमकल्पिक योगी के लिये ईश्वर का उपदेश-- ईश्वर उपदेश करता है कि ब्रह्माण्ड में जितने भी पदार्थ जिस स्वरूप में हैं उन सब पदार्थों को मैं उसी स्वरूप में जानता हूँ। जैसे आकाश में सूर्य और भूमि को मैंने स्थापित किया है, वैसे हे योगी पुरुष! ब्रह्माण्ड के सब पदार्थों के विज्ञान को तेरे अन्दर स्थापित करता हूँ। तू योगी होने से उक्त पदार्थ-विज्ञान को ग्रहण कर सकता है और जो योगविद्या से रहित मनुष्य है, वह ब्रह्माण्ड के इन पदार्थों को यथार्थ रूप में नहीं देख सकता और मेरी उपासना के बिना कोई योगी भी नहीं हो सकता। तू मेरे मित्र के समान है। इसलिये आप (तू) विद्वानों, निम्न कोटि के मनुष्यों और उत्तम ऐश्वर्य का व्यवहार करने वाले जनों के साथ योगज आनन्द में रह तथा अन्यों को भी योग-आनन्द से प्रसन्न कर। २. अलंकार - मन्त्र में उपमा-वाचक 'इव' आदि शब्द लुप्त होने से वाचकलुतोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि जैसे ईश्वर सूर्य और पृथिवी को आकाश में स्थापित करता है, वैसे योगी के हृदयाकाश में सब पदार्थों के विज्ञान को स्थापित करता है। योगी ईश्वर के सखा के समान है ।। ७ । ५ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ईश्वराचा असा उपदेश आहे की, ब्रह्मांडात जसे व जितके पदार्थ आहेत त्यांचे ज्ञान त्याच्याजवळ आहे. योगविद्या न जाणणाऱ्या माणसाला हे कळू शकत नाही व त्याच्या उपासनेखेरीज कोणीही योगी बनू शकत नाही.
विषय
योगाभ्यासात प्रथम प्रवृत्ती ईश्वराकडे होते. त्यासाठी काय केले पाहिजे, याचा उपदेश पुढील मंत्रात केला आहे -
शब्दार्थ
(परमेश्वर योग्यास उपदेश करीत आहे) हे (मघवन्) योगी, मी परमेश्वर (ते) तुझ्या (अंत:) हृदयाकाशामध्ये (द्यावा पृथिवी) ज्याप्रमाणे सूर्य भूमीमध्ये विज्ञानासाठी आवश्यक पदार्थांची स्थापना करतो, त्याप्रमाणे मी तुझ्या हृदयात ज्ञानाची, यमादी योगाची (दधमि) स्थापना करतो. (उरु) विशाल (अन्रिक्षम्) आकाशाला (अन्त:) तुझ्या शरीरात (दधामि) धारण करण्यास सांगतो (आकाशाप्रमाणे विशाल अंत:करण व उदारवृत्ती असावी, असा आदेश देतो किंवा प्राण अपान आदीची गती नियमित करतो) तू (रुजू:) मित्रा प्रमाणे (देवेभ्य:) विद्वानांपासून विद्या प्राप्त कर आणि (अवरै:) (परै:) (च) आपल्या मित्रादींकडून वा दुसर्यांकडून थोडे अथवा अधिक योग साधना शिकून व (अन्तर्यामी) शरीरातील आवश्यक व्यवहारांचे पालन करून सर्वांना (मादयस्व) आनंदित करीत जा. ॥5॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ईश्वराचा योगीजनास वा सर्वांस असा उपदेश आहे की या सकळ ब्रह्मांडामध्ये ज्या ज्या प्रकारे जे जे पदार्थ आहेत, ते ते सर्व माझ्या ज्ञानात विद्यमान आहेत (मी सर्वात व्याप्त असून सर्व पदार्थ माझ्यात आहेत) जो योगविद्या जाणत नाही, तो त्या पदार्थांना (आणि त्या पदार्थात व्याप्त मला) पाहू वा जाणू शकत नाही. तसेच माझी उपासना केल्याशिवाय कोणी योगी होऊ शकत नाही. ॥5॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O Yogi, I place in thy heart knowledge spacious like the sun and moon and mid airs wide region. Like a friend, acquiring learning from the sages, and practising internal austerities, gladden others with the preliminary and advanced usages of Yoga.
Meaning
Man of power and glory of the self, in pursuit of yoga, I place the heaven and the earth within you, and the vast intervening spaces of the sky too. Friends with the noblest powers of nature and humanity, rejoice within by yourself in a state of divine bliss and spread the joy around.
Translation
I lay heaven and earth within you. O place the vast midspace in you. O Lord of richness, in amity with Nature's bounties, inferior and superior, rejoice in this containment of evil. (1)
Notes
Antaryama, containment: also, name of a particular cup for Soma juice, Avaraih paraigca, with inferiors and superiors.
बंगाली (1)
विषय
অথেশ্বরঃ প্রাথমকল্পিকায় য়োগিনে বিজ্ঞানমাহ ॥
এখন ঈশ্বর যিনি যোগে প্রথমেই প্রবৃত্ত হন তাঁহার জন্য বিজ্ঞানের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করিতেছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (মঘবন্) যোগী! আমি পরমেশ্বর (তে) তোমার (অন্তঃ) হৃদয়াকাশে (দ্যাবা পৃথিবী) সূর্য্য ভূমি সম বিজ্ঞানাদি পদার্থকে (দধামি) স্থাপিত করি । তথা (উরু) বিস্তৃত (অন্তরিক্ষম্) অবকাশকে (অন্তঃ) শরীরের মধ্যে (দধামি) ধারণ করি (সজূঃ) মিত্র সম তুমি (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্দিগের নিকট হইতে বিদ্যা প্রাপ্ত হইয়া (অবরৈঃ) (পরৈঃ) (চ) অল্প বা বেশী যোগ-ব্যবহার দ্বারা (অন্তর্য়্যামে) ভিতরের নিয়মে বর্ত্তমান থাকিয়া অন্য সকলকে (মাদয়স্ব) প্রসন্ন করিতে থাক ॥ ৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । ঈশ্বরের ইহা উপদেশ যে, ব্রহ্মান্ডে যে প্রকারের যত পদার্থ তত প্রকার ততই আমার জ্ঞানে বর্ত্তমান । যোগবিদ্যাকে যে জানে না সে উহাদিগকে দেখিতে পারে না এবং আমার উপাসনা ব্যতীত কেহ যোগী হইতে পারে না ॥ ৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒ন্তস্তে॒ দ্যাবা॑পৃথি॒বী দ॑ধাম্য॒ন্তর্দ॑ধাম্যু॒র্ব᳕ন্তরি॑ক্ষম্ ।
স॒জূর্দে॒বেভি॒রব॑রৈঃ॒ পরৈ॑শ্চান্তর্য়া॒মে ম॑ঘবন্ মাদয়স্ব ॥ ৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অন্তস্ত ইত্যস্য গোতম ঋষিঃ । ঈশ্বরো দেবতা । আর্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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