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यजुर्वेद अध्याय - 7

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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 38
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्,विराट आर्ची पङ्क्ति स्वरः - धैवतः
    92

    म॒रुत्वाँ॑२इन्द्र वृष॒भो रणा॑य॒ पिबा॒ सोम॑मनुष्व॒धं मदा॑य। आसि॑ञ्चस्व ज॒ठरे॒ मध्व॑ऽऊ॒र्म्मिं त्वꣳ राजा॑सि॒ प्रति॑पत् सु॒ताना॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा मरु॒त्व॑ते॥३८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒रुत्वा॑न्। इ॒न्द्र॒। वृ॒ष॒भः। रणा॑य। पिब॑। सोम॑म्। अ॒नु॒ष्व॒धम्। अ॒नु॒स्व॒धमित्य॑नुऽस्व॒धम्। मदा॑य। आ। सि॒ञ्चस्व॒। ज॒ठरे॑। मध्वः॑। ऊ॒र्म्मिम्। त्वम्। राजा॑। अ॒सि॒। प्रति॑प॒दिति॒ प्रति॑ऽपत्। सु॒ताना॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते ॥३८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मरुत्वाँ इन्द्र वृषभो रणाय पिबा सोममनुष्वधम्मदाय । आसिञ्चस्व जठरे मध्वऽऊर्मिन्त्वँ राजासि प्रतिपत्सुतानाम् । उपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा मरुत्वतऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मरुत्वान्। इन्द्र। वृषभः। रणाय। पिब। सोमम्। अनुष्वधम्। अनुस्वधमित्यनुऽस्वधम्। मदाय। आ। सिञ्चस्व। जठरे। मध्वः। ऊर्म्मिम्। त्वम्। राजा। असि। प्रतिपदिति प्रतिऽपत्। सुतानाम्। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। मरुत्वते। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। मरुत्वते॥३८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 38
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ सभाध्यक्षायोपदेशः क्रियते॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र! यतस्त्वमुपयामगृहीतोऽसि तस्माद् वयं त्वा त्वां मरुत्वत इन्द्राय नियोजयामो यतस्ते तवैष योनिरस्ति, तस्मात् त्वा त्वां प्रतिपद्राजा प्रत्येककर्म्मणि प्रकाशमानो मरुत्वान् वृषभोऽस्त्यतो रणायानुष्वधं मदाय सोमं पिब, सुतानामन्नानां मध्व ऊर्म्मिं जठर आसिञ्चस्व॥३८॥

    पदार्थः

    (मरुत्वान्) प्रशस्ता मरुतः प्रजा सेना वा विद्यन्ते यस्य सः (इन्द्र) शत्रुजित् (वृषभः) शरीरात्मबलैश्वर्य्ययुक्तः (रणाय) सङ्ग्रामाय। रण इति सङ्ग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰२।१७) (पिब) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः। (अष्टा॰६।३।१३५) इति दीर्घः। (सोमम्) सोमाद्योषधिसमूहम् (अनुष्वधम्) सर्वेषु पक्वान्नेष्वनुकूलम्, अत्र विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः समासः। (मदाय) हर्षाय (आसिञ्चस्व) (जठरे) उदरे (मध्वः) मधुरस्य (ऊर्म्मिम्) लहरीम् (त्वम्) सभासेनापतिः (राजा) प्रकाशमानः (असि) (प्रतिपत्) पद्यते विचार्य्यते योऽर्थविषयः स पतं पतं प्रतीति प्रतिपत् (सुतानाम्) सुसंस्कारेण निष्पादितानामन्नानाम् (उपयामगृहीतः) राजनियमैः स्वीकृतः (असि) (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय रणाय (त्वा) मरुत्वते प्रशस्तानि मरुदस्त्राणि विद्यन्ते यत्र तस्मै (एषः) (ते) (योनिः) (इन्द्राय) राज्यैश्वर्य्याय (त्वा) (मरुत्वते) प्रजापालनसम्बद्धाय॥३८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। सभासेनापत्यादिमनुष्या उत्तमोत्तमान् पदार्थान् भुक्त्वा शरीरात्मबलं सम्पाद्य शत्रून् विजित्य न्यायव्यवस्थया सर्वान् पालयेयुरिति॥३८॥

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    विषयः

    अथ सभाध्यक्षायोपदेशः क्रियते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे इन्द्र! शत्रुजित् यतस्त्वमुपयामगृहीतः राजनियमैः स्वीकृतः असि,तस्माद्वयं त्वा=त्वां मरुत्वते प्रशस्तानि मरुदस्त्राणि विद्यन्ते यत्र तस्मै इन्द्राय परमैश्वर्यप्रापकाय रणाय नियोजयामः, यतस्ते=तवैष योनिरस्ति, तस्मात् त्वा=त्वां मरुत्वते प्रजापालनसम्बद्धाय इन्द्राय राज्यैश्वर्याय ब्रूमः। किं तत् ? तदाह--त्वं सेनापतिः प्रतिपत् पद्यते=विचार्य्यते योऽर्थविषयः सपत्, पतं पतं प्रतीति प्रतिपत् राजा=प्रत्येककर्म्मणि प्रकाशमानो मरुत्वान् प्रशस्ता मरुतः=प्रजा सेना वा विद्यन्ते यस्य सः वृषभः शरीरात्मबलैश्वर्ययुक्तः अस्ति, अतो रणाय सङ्ग्रामाय अनुष्वधं सर्वेषु पक्वान्नेष्वनुकूलं मदाय हर्षाय सोमं सोमाद्योषधिसमूहंपिब, सुतानां=अन्नानां सुसंस्करेण निष्पादितानामन्नानां मध्वः मधुरस्य ऊर्म्मिं लहरीं जठरे उदरे आञ्चिस्व॥ ७ । ३८ ॥ [हे इन्द्र........त्वा=त्वां मरुत्वत इन्द्राय ब्रूमः, किं तत्? तदाह—त्वं.......वृषभोऽस्यतो रणायानुष्वधंमदाय सोमं पिब, सुतानाम्=अन्नानां मध्व ऊर्मिं जठर आसिञ्चस्व]

    पदार्थः

    (मरुत्वान्) प्रशस्ता मरुतः=प्रजा सेना वा विद्यन्तेयस्य सः (इन्द्र) शत्रुजित् (वृषभः) शरीरात्मबलैश्वर्य्ययुक्तः (रणाय) संग्रामाय।रण इति संग्रामनामसु पठितम् ॥ निघं० २ । १७ ।। (पिब) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः॥ अ० ६। ३ । १३५ ॥ इति दीर्घः (सोमम्) सोमाद्योषधिसमूहम् (अनुष्वधम्) सर्वेषु पक्वान्नेष्वनुकूलम्। अत्र विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः समासः (मदाय) हर्षाय (आसिञ्चस्व) (जठरे) उदरे (मध्वः) मधुरस्य (ऊर्म्मिम्) लहरीम् (त्वम्) सभासेनापतिः (राजा) प्रकाशमानः (असि) (प्रतिपत्) पद्यते=विचार्य्यते योऽर्थं विषयः स पत्। पतं पतं प्रतीति प्रतिपत् (सुतानाम्) सुसंस्कारेण निष्पादितानामन्नानाम् (उपयामगृहीतः) राजनियमैः स्वीकृतः (असि) (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय रणाय (त्वा) (मरुत्वते) प्रशस्तानि मरुदस्त्राणि विद्यन्ते यत्र तस्मै (एष:) (ते) (योनिः) (इन्द्राय) राज्यैश्वर्य्याय (त्वा) (मरुत्वते) प्रजापालनसम्बद्धाय ।।३८।।

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः॥ सभासेनापत्यादिमनुष्या उत्तमोत्तमान् पदार्थान् भुक्त्वा शरीरात्मबलं सम्पाद्य शत्रून् विजित्य न्यायव्यवस्थया सर्वान् पालयेयुरिति ।। ७ । ३८ ।।

    विशेषः

    विश्वामित्रः। प्रजापतिः=राजा। निचृदार्षीत्रिष्टुप्। उपयामेत्यस्य प्राजापत्या त्रिष्टुप्। धैवतः।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब सभाध्यक्ष के लिये अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) शत्रुओं के जीतने वाले सभापते! जिस कारण आप (उपयामगृहीतः) राजनियमों से स्वीकार किये हुए (असि) हो, इसलिये हम लोग तुम को (मरुत्वते) जिसमें अच्छे-अच्छे अस्त्रों और शस्त्रों का काम है, उस (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य को प्राप्त करने वाले युद्ध के लिये युक्त करते हैं, जिससे (ते) आपका (एषः) यह युद्ध परमैश्वर्य्य का (योनिः) कारण है, इसलिये (त्वा) तुम को (मरुत्वते) (इन्द्राय) उस युद्ध के लिये कहते हैं कि आप (प्रतिपत्) प्रत्येक बड़े-बड़े विचार के कामों में (राजा) प्रकाशमान (मरुत्वान्) प्रशंसनीय प्रजायुक्त और (वृषभः) अत्यन्त श्रेष्ठ हो, इससे (रणाय) युद्ध और (मदाय) आनन्द के लिये (अनुष्वधम्) प्रत्येक भोजन में (सोमम्) सोमलतादि पुष्ट करने वाली ओषधियों के रस को (पिब) पीओ (सुतानाम्) उत्तम संस्कारो से बनाये हुए अन्नों के (मध्वः) मधुर रस की (ऊर्म्मिम्) लहरी को अपने (जठरे) उदर में (आसिञ्चस्व) अच्छे प्रकार स्थापन करो॥३८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सभा और सेनापति आदि मनुष्यों को चाहिये कि उत्तम से उत्तम पदार्थों के भोजन से शरीर और आत्मा को पुष्ट और शत्रुओं को जीत कर न्याय की व्यवस्था से सब प्रजा का पालन किया करें॥३८॥

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    विषय

    प्रज्ञा-दीप्ति

    पदार्थ

    राष्ट्र में राजा व सेनापति के उत्तम होने पर प्रजा का जीवन भी बड़ा सुन्दर बनता है, अतः कहते हैं कि १. ( मरुत्वान् ) = तू प्राणोंवाला है, तूने प्राणों की साधना करके उन्हें प्रशस्त बनाया है। 

    २. हे ( इन्द्र ) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! ( वृषभः ) = तू प्राणसाधना के परिणामरूप श्रेष्ठ बना है। 

    ३. तू ( रणाय ) = रमणीयता के लिए ( सोमं पिब ) = सोम का पान कर। प्राणसाधना का यह स्वाभाविक परिणाम है कि शक्ति की ऊर्ध्वगति होती है और शक्ति के शरीर में व्याप्त होने से तू अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रमणीयतावाला होता है। 

    ४. इस शक्ति के धारण से ही ( अनुष्वधं मदाय ) = [ स्वधामनु, स्वधा = अन्न ] अन्न के बाद तू हर्ष का अनुभव करता है। वीर्यरक्षा से पाचनशक्ति ठीक रहती है और भोजन के बाद व्यक्ति विशेष आनन्द का अनुभव करता है। 

    ५. ( जठरे ) = अपने उदर में ( मध्वः ऊर्मिं आसिञ्चस्व ) = इन सोम की तरङ्गों को सिक्त कर। यौवन में इस सोम के उत्पादन से उसमें ज्वार-सी उठती है, उबाल-सा आता है। इन तरङ्गों को तू अपने अन्दर ही सिक्त करनेवाला हो। 

    ६. ( प्रतिपत्सुतानाम् ) =  [ प्रतिपत् = चेतना ] ज्ञान की वृद्धि के लिए उत्पन्न किये गये इन सोमों का ( त्वम् ) = तू राजा ( असि ) = शरीर में ही नियमन [ regulate ] करनेवाला है। इन सोमकणों ने तेरी ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर उसे प्रज्वलित रखना है। प्रभु ने इन्हें मुख्यरूप से इस चेतना के लिए ही उत्पन्न किया है। 

    ७. इस प्रकार प्रेरणा दिया हुआ विश्वामित्र प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो! ( उपयामगृहीतः असि ) = आप सुनियमों से स्वीकृत होते हो। ( त्वा ) = आपको मैं इसलिए उपासित करता हूँ कि ( इन्द्राय मरुत्वते ) = मैं प्राणसाधनावाला मरुत्वान् बन सकूँ। ( एषः ते योनिः ) = यह मेरा ‘विग्रह’ = शरीर आपका विशिष्ट गृह है। ( त्वा ) = आपको मैं यहाँ इसलिए आसीन करता हूँ कि ( इन्द्राय मरुत्वते ) = मैं प्राणसाधना द्वारा उत्तम प्राणोंवाला, जितेन्द्रिय पुरुष बन सकूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ — प्रभु ने हमारे जीवनों में सोम की स्थापना इसलिए की है कि हमारी प्रज्ञा में वृद्धि हो, हमारी ज्ञानाग्नि दीप्त हो।

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    विषय

    मरुत्वान् इन्द्र, सेनापति का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) इन्द्र ! सेनापते ( मरुत्वान् ) उत्तम प्रजा और सेनाओं का स्वामी ( वृषभ: ) सर्वश्रेष्ठ बलवान् वा शत्रुओं पर शरवर्षा करनेवाला तू (अनुस्वधम् ) अपनी धारणशक्ति के अनुसार ( मदाय ) सबको सन्तुष्ट या हर्षित करने के लिये ( रणाय ) संग्राम के लिये ( सोमम् ) 'सोम' ओषधि रस के समान बलकारी राजा के अधिकार को ( पिब ) पान कर, स्वीकार कर । ( जठरे ) पेट में जिस प्रकार ( मध्वः ऊर्मिम् ) अन्न के खा लेने पर बल उत्पन्न होता है उसी प्रकार तू अपने ( जठरे ) जठर अर्थात् वश में ( मध्वः ) अन्न और शत्रु के दमन सामर्थ्य के ( ऊर्मिम् ) उद्योग को ( आ सिञ्चस्व ) प्रवाहित कर । ( त्वम् ) तू ( सुतानाम् ) राज्य के समस्त अंगों के ( प्रतिपत् ) प्रत्येक पद पर ( राजा असि ) राजा रूप से विद्यमान है । (उपयानगृहीतः ० इत्यादि) पूर्ववत् ॥ 

    टिप्पणी

    १ मरुत्वान्। २ उपयाम।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः । मरुत्वान् इन्द्रः प्रजापतिर्देवता । ( १ ) निचृदार्षी त्रिष्टुप् । (२) प्राजापत्या त्रिष्टुप् । धैवतः॥ 

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    विषय

    अब सभाध्यक्ष के लिये उपदेश किया जाता है ।।

    भाषार्थ

    हे (इन्द्र) शत्रुओं को जीतने वाले सभाध्यक्ष ! क्योंकि आप (उपयामगृहीतः) राजनियमों के अनुसार स्वीकार किये गये (असि) हो, इसलिये हम (त्वा) आपको (मरुत्वते) उत्तम वायु-अस्त्रों वाले (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य के प्रापक रण के लिये नियुक्त करते हैं, क्योंकि (ते) आपका (एषः) यह रण (योनिः) सुख का घर है इसलिये (त्वा) आपको (मरुत्वते) प्रजा-पालन से सम्बद्ध (इन्द्राय) राज्य की ऐश्वर्य वृद्धि का उपदेश करतेहैं। वह उपदेश क्या है ? वह यह है कि (त्वम्) आप सेनापति (प्रतिपत्) प्रत्येक विचारणीय विषय के प्रति सावधान, (राजा) प्रत्येक कर्म में प्रकाशमान, (मरुत्वान्) उत्तम प्रजा वा सेना वाले, (वृषभ:) शरीर और आत्मा के बल एवं ऐश्वर्य से युक्त (असि) हो, इसलिये (रणाय) संग्राम के लिये (अनुष्वधम्) सब पक्वान्नों में विद्यमान (मदाय) हर्ष की प्राप्ति के लिये (सोमम्) सोम आदि औषधियों का (पिब) पान करो और--(सुतानाम्) उत्तम संस्कार से तैयार किये अन्नों के (मध्वः) मधुर गुण की ( (ऊर्मिम्) लहरी का (जठरे) उदर में (आसिंचस्व) सेचन करो ॥ ७ । ३८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है॥सभापति और सेनापति आदि मनुष्य उत्तम-उत्तम पदार्थों के भोजन से शरीर और आत्मा के बल को प्राप्त कर तथा शत्रुओं को जीत कर न्यायव्यवस्था से सबका पालन करें ॥ ७ । ३८ ।।

    प्रमाणार्थ

    (रणाय) 'रण' शब्द निघं० (२ । १७) में संग्राम-नामों में पढ़ा है। (पिबा) पिब। यहाँ'द्व्यचोऽतस्तिङ: ' (अ०६ । ३ । १३५) इस सूत्र से दीर्घ है। (अनुष्वधम्) यहाँ विभक्ति-अर्थ में अव्ययीभाव समास है।

    भाष्यसार

    सभाध्यक्ष के लिये उपदेश--हे सभाध्यक्ष ! आप शत्रुओं को जीतने वाले हो, राजनियमों के अनुसार हमसे सभाध्यक्ष स्वीकार किये गये हो। इसलिये प्रशस्त वायु अस्त्रों वाले, परम ऐश्वर्य के प्रापक रण के लिये हम आपको नियुक्त करते हैं। क्योंकि यह रण आपके लिये सुख का हेतु है। इसलिये प्रजापालन से सम्बद्ध राज्य-ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये आपको उपदेश करते हैं। सभापति और सेनापति आदि लोग प्रत्येक विचारणीय विषय के प्रति अत्यन्त सावधान रहें, राज्य-सम्बन्धी प्रत्येक कर्म में प्रकाशमान (उपस्थित) रहें, प्रशस्त प्रजा और सेना वाले हों, शरीर और आत्मा के बल से युक्त रहें, सङ्ग्राम के लिये उत्तम- उत्तम पक्वान्नों का सेवन करें तथा हर्ष-प्राप्ति के लिये सोम आदि औषधियों का पान करें। न्याय-व्यवस्था से सब प्रजा का पालन करें ॥ ७ । ३८ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. सभा व सेनापती इत्यादींनी उत्तम पदार्थांनी भोजन करून शरीर व आत्मा यांना बलवान करावे व शत्रूंना जिंकून न्यायाने सर्व प्रजेचे पालन करावे.

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    विषय

    पुढी मंत्रात सभाध्यक्षासाठी उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (इन्द्र शत्रूंवर विजय मिळविणारे सभाध्यक्ष, आपण (असि) आहात. यामुळे ज्या युद्धांमध्ये (मरुत्वते) उत्तम अस्त्र-शास्त्रांचा उपयोग केला जाते, त्या युद्धाद्वारे आम्ही प्रजाजन आपणास (इन्द्राय) परमैश्वर्य प्राप्त करून देणार्‍या युद्धासाठी नियुक्त करतो. (ते) आपले (एष:) हे युद्ध परम ऐश्वर्य देण्याचे (योनि:) कारण आहे (या युद्धाद्वारे राज्याला भरपूर द्रव्यादींची प्राप्ती होणार आहे) यासाठी (त्वा)आपणाला (मरूत्वते) (इन्द्राय) हे युद्ध करण्यासाठी सांगत आहोत. आपण (प्रतिपत्) प्रत्येक मोठ्या विचारणीय कार्यामध्ये (राजा) दैदीष्यमान आणि (मरूत्वान्) प्रशंसनीय प्रजायुक्त तसेच (वृषभ:) अत्यंत श्रेष्ठ आहात. आपण (रणाय) या युद्धासाठी आणि (मदाय) त्यातून मिळणार्‍या आनंदासाठी (अनुष्वथग्) प्रत्येक भोजनामध्ये (सोमम्) पुष्टिकारक सोमलता आदी औषधांचे (पिब) प्या (सुतानाम्) उत्तम प्रकारे पक्व स्वादिष्ट अन्न आणि (मध्व:) मधुर रसाचा (उर्मिम्) धारा (जठरे) आपल्या उदरामध्ये (आसिंचरच) चांगल्याप्रकारे व भरपूर जाऊ द्या. (पुष्टिकारक अन्न आणि औषधांचे सेवन करा) ॥38॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. राजसभा आणि सेनापती आदी मनुष्यांना पाहिजे की त्या सर्वांनी उत्तमोत्तम पदार्थांचे भोजन करून शरीर आणि आत्म्याला पुष्ट करावे आणि शत्रूंवर विजय मिळवून न्यायपूर्ण शासन करीत प्रजेचे पालन करावे. ॥38॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Thou, head of the state, the conqueror of enemies, the lord of five classes of subjects under thy sway, and armies, strong in body and soul, take with thy meals, invigorating herbs, for pleasure and conquest. Fill thy belly with the sweet flow of well-cooked meals. Thou art the sovereign of all great deeds and requiring deep thought. Thou hast been initiated in the rules of administration ; we harness thee for battle involving the use of arms and weapons. This battle is the source of thy prosperity ; hence we goad thee to that battle.

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    Meaning

    Indra, head of the council/commander of the army, leader of the people/army, first and best among all, you are a man of honour and power. For joy and for the battles, drink soma according to your taste and capacity with every meal. Stimulate your appetite with draughts of the best and the choicest sweets of juices. You are intelligent and brilliant for every occasion of importance. Accepted and consecrated you are in the laws of the land and rules of the council/army. We honour and celebrate you in the service of the lord of the land and head of the people. You are dedicated and committed to the honour of the land and the welfare of the people for the development of airy weapons and missiles (marut- weapons). This commitment, this dedication, now is your haven, the very meaning and purpose of your existence.

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    Translation

    O resplendent Lord, accompanied by vital breaths, enjoy devotional expressions, as much as you like for your pleasure, after having devotional food. May you carry the wave of sweetness down to your stomach. You are the sovereign of freshest blisses. (1) О devotional bliss, you have been duly accepted. You to the resplendent Lord accompanied by vital breaths. (2) This is your abode. You to the resplendent Lord, accompanied by vital breaths. (3)

    Notes

    Anusvadham, स्वधा अन्न्म् तत् अनु पश्तात् यस्य , i. e. before meals, or after meals. It may mean both. Somam, pressed out Sorna-juice; devotional expressions. Pratipat sutanam, of those which have been pressed out on the new moon day; or of those which have been freshly pressed out; freshest.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ সভাধ্যক্ষায়োপদেশঃ ক্রিয়তে ॥
    এখন সভাধ্যক্ষের জন্য পরবর্ত্তী মন্ত্রে উপদেশ করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (ইন্দ্র) শত্রুদিগের জয়কারী সভাপতে! যে কারণে আপনি (উপয়ামগৃহীতঃ) রাজনিয়ম দ্বারা স্বীকৃত (অসি) আছেন, এইজন্য আমরা আপনাকে (মরুত্বতে) যাহাতে ভাল-ভাল শস্ত্রাস্ত্রের কাজ, সেই (ইন্দ্রায়) পরমৈশ্বর্য্য প্রাপ্তকারী যুদ্ধের জন্য যুক্ত করি যদ্দ্বারা (তে) আপনার (এষঃ) এই যুদ্ধ পরমৈশ্বর্য্যের (য়োনিঃ) কারণ, অতএব (ত্বা) আপনাকে (মরুত্বতে) (ইন্দ্রায়) সেই যুদ্ধের জন্য বলি যে, আপনি (প্রতিপৎ) প্রত্যেক বড়-বড় বিচারের কাজে (রাজা) প্রকাশমান (মরুত্বান্) প্রশংসনীয় প্রজাযুক্ত এবং (বৃষভঃ) অত্যন্ত শ্রেষ্ঠ হন, ইহার ফলে (রণায়) যুদ্ধ ও (মদায়) আনন্দের জন্য (অনুষ্বধম্) প্রত্যেক ভোজনে (সোমম্) সোমলতাদি পুষ্টকারিণী ঔষধির রস (পিব) পান করুন (সুতানাম্) উত্তম সংস্কার দ্বারা কৃত অন্নের (মধ্বঃ) মধুর রসের (ঊর্মিম্) তরঙ্গ কে নিজ (জঠরে) উদরে (আসিষ্ণস্ব) ভাল প্রকার স্থাপনা করুন ॥ ৩৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । সভা ও সেনাপতি প্রভৃতি মনুষ্যদিগের উচিত যে উত্তম-উত্তম পদার্থের ভোজন দ্বারা শরীর ও আত্মাকে পুষ্ট এবং শত্রুদিগকে জয় করিয়া ন্যায়ের ব্যবস্থা দ্বারা সকল প্রজার পালন করিতে থাকে ॥ ৩৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ম॒রুত্বাঁ॑২ইন্দ্র বৃষ॒ভো রণা॑য়॒ পিবা॒ সোম॑মনুষ্ব॒ধং মদা॑য় । আ সি॑ঞ্চস্ব জ॒ঠরে॒ মধ্ব॑ऽঊ॒র্ম্মিং ত্বꣳ রাজা॑সি॒ প্রতি॑পৎ সু॒তানা॑ম্ । উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতো॒ऽসীন্দ্রা॑য় ত্বা ম॒রুত্ব॑তऽএ॒ষ তে॒ য়োনি॒রিন্দ্রা॑য় ত্বা মরু॒ত্ব॑তে ॥ ৩৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মরুত্বানিত্যস্য বিশ্বামিত্র ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । উপয়ামেত্যস্য প্রাজাপত্যা ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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