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यजुर्वेद अध्याय - 7

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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 13
    ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्,प्राजापत्या गायत्री, स्वरः - धैवतः, षड्जः
    82

    सु॒वीरो॑ वी॒रान् प्र॑ज॒नय॒न् परी॑ह्य॒भि रा॒यस्पोषे॑ण॒ यज॑मानम्। स॒ञ्ज॒ग्मा॒नो दि॒वा पृ॑थि॒व्या शु॒क्रः शु॒क्रशो॑चिषा॒ निर॑स्तः॒ शण्डः॑ शु॒क्रस्या॑धि॒ष्ठान॑मसि॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒वीर॒ इति॑ सु॒ऽवीरः॑। वी॒रान्। प्र॒ज॒नय॒न्निति॑ प्रऽज॒नय॑न्। परि॑। इ॒हि॒। अ॒भि। रा॒यः। पोषे॑ण। यज॑मानम्। स॒ञ्ज॒ग्मा॒न इति॑ सम्ऽजग्मा॒नः। दि॒वा। पृ॒थि॒व्या। शु॒क्रः। शु॒क्रशो॑चि॒षेति॑ शु॒क्रऽशो॑चिषा। निर॑स्त॒ इति॒ निःऽअ॑स्तः। शण्डः॑। शु॒क्रस्य॑। अ॒धि॒ष्ठान॑म्। अ॒धि॒स्थान॒मित्य॑धि॒ऽस्थान॑म्। अ॒सि॒ ॥१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुवीरो वीरान्प्रजनयन्परीह्यभि रायस्पोषेण यजमानम् । सञ्जग्मानो दिवा पृथिव्या शुक्रः शुक्रशोचिषा निरस्तः शण्डः शुक्रस्याधिष्ठानमसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुवीर इति सुऽवीरः। वीरान्। प्रजनयन्निति प्रऽजनयन्। परि। इहि। अभि। रायः। पोषेण। यजमानम्। सञ्जग्मान इति सम्ऽजग्मानः। दिवा। पृथिव्या। शुक्रः। शुक्रशोचिषेति शुक्रऽशोचिषा। निरस्त इति निःऽअस्तः। शण्डः। शुक्रस्य। अधिष्ठानम्। अधिस्थानमित्यधिऽस्थानम्। असि॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    उक्तयोगमनुष्ठाता योगी कीदृग् भवतीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे योगिन्! सुवीरस्त्वं वीरान् प्रजनयन् परीहि एवं यजमानमभि रायस्पोषेण सञ्जग्मानो दिवा पृथिव्या सह शुक्रः शुक्रशोचिषा निरस्त एव विषयवासनारहितः शण्डस्त्वं शुक्रस्याधिष्ठानमसि॥१३॥

    पदार्थः

    (सुवीरः) शोभनश्चासौ वीर इव (वीरान्) उत्कृष्टगुणान् (प्रजनयन्) निष्पादयन्नेव (परि) सर्वतः (इहि) प्राप्नुहि (अभि) आभिमुख्ये (रायः) धनस्य (पोषेण) पुष्ट्या (यजमानम्) दातारम् (सञ्जग्मानः) संगतवान् (दिवा) सूर्य्येण (पृथिव्या) भूम्या सह (शुक्रः) वीर्य्यवान् (शुक्रशोचिषा) शुक्रस्य शोधकस्य सूर्य्यस्य शोचिर्दीपनं तेनैव (निरस्तः) निःसारितोऽन्धकार इव (शण्डः) शमादिसहितः (शुक्रस्य) शोधकस्य योगस्य (अधिष्ठानम्) अधितिष्ठन्ति यस्मिन्निति तत् (असि)॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। २। १। १६) व्याख्यातः॥१३॥

    भावार्थः

    शमदमादिगुणाधिष्ठानो योगाभ्यासनिरतो योगी स्वयोगविद्याप्रचारेण जिज्ञासूनात्मबलं वर्द्धयन् सर्वथा सूर्य्य इव प्रकाशमानो भवति॥१३॥

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    विषयः

    उक्तयोगमनुष्ठाता योगी कीदृग् भवतीत्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे योगिन् ! सुवीरः शोभनश्चासौ वीर इव त्वं वीरान् उत्कृष्टगुणान् प्रजनयन् निष्पादयन्नेव परि+इहि सर्वतः प्राप्नुहि, एवं यजमानं दातारम् अभिअभिमुख्येन रायः धनस्य पोषेण पुष्ट्या संजग्मानः संगतवान् दिवा सूर्येण पृथिव्या भूम्या सह शुक्रः वीर्यवान् शुक्रशोचिषा शुक्रस्य=शोधकस्ये सूर्यस्य शोचिर्दीपनं तेनेव निरस्तएव=विषयवासनारहितः निःसारितोऽन्धकार इव शण्ड: शमादिसहितः त्वं शुक्रस्य शोधकस्य योगस्य अधिष्ठानम् अधितिष्ठन्तियस्मिन्निति तत् असि ।। ७ । १३ ।। [हे योगिन्!.....त्वं वीरान् प्रजनयन् परीहि,.......शुक्रशोचिषा निरस्त एव विषयवासनारहितः......शण्डस्त्वं शुक्रस्याधिष्ठानमसि]

    पदार्थः

    (सुवीर:) शोभनश्चासौ वीर इव (वीरान्) उत्कृष्टगुणान् (प्रजनयन्) निष्पादयन्नेव (परि) सर्वतः (इहि) प्राप्नुहि (अभि) आभिमुख्ये (रायः) धनस्य (पोषेण) पुष्ट्या (यजमानम्) दातारम् (संजग्मानः) संगतवान् (दिवा) सूर्य्येण (पृथिव्या) भूम्या सह (शुक्रः) वीर्य्यवान् (शुक्रशोचिषा) शुक्रस्य=शोधकस्य सूर्य्यस्य शोचिर्दीपनं तेनैव (निरस्तः) निःसारितोऽन्धकार इव (शण्ड:) शमादिसहितः (शुक्रस्य) शोधकस्य योगस्य (अधिष्ठानम्) अधितिष्ठन्ति यस्मिन्निति तत् (असि)।। अयं मन्त्रः शत० ४ । २ । १ । १६ व्याख्यातः ॥ १३॥

    भावार्थः

    शमदमादिगुणाधिष्ठानो योगाभ्यासनिरतो योगी स्वयोगविद्याप्रचारेण जिज्ञासूनामात्मबलं वर्द्धयन् सर्वथा सूर्य इव प्रकाशमानो भवति ।। ७ । १३ ।।

    विशेषः

    वत्सारः कश्यपः । विश्वेदेवाः=विद्वांसः। निचृदार्षीत्रिष्टुप् । धैवतः । शुक्रस्येत्यस्य प्राजापत्या गायत्री । षड्जः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    उक्त योग का अनुष्ठान करने वाला योगी कैसा होता है, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे योगिन्! (सुवीरः) श्रेष्ठ वीर के समान योगबल को प्राप्त हुए आप (वीरान्) अच्छे-अच्छे गुणयुक्त पुरुषों को (प्रजनयन्) प्रसिद्ध करते हुए (परीहि) सब जगह भ्रमण कीजिये। इसी प्रकार (यजमानम्) धन आदि पदार्थों को देने वाले उत्तम पुरुषों के (अभि) सन्मुख (रायः) धन की (पोषेण) पुष्टि से (सञ्जग्मानः) संगत हूजिये और आप (दिवा) सूर्य्य और (पृथिव्या) पृथिवी के गुणों के साथ (शुक्रः) अति बलवान् (शुक्रशोचिषा) सब को शोधने वाले सूर्य्य की दीप्ति से (निरस्तः) अन्धकार के समान पृथक् हुए ही योगबल के प्रकाश से विषयवासना से छूटे हुए (शण्डः) शमदमादि गुणयुक्त (शुक्रस्य) अत्यन्त योगबल के (अधिष्ठानम्) आधार (असि) हैं॥१३॥

    भावार्थ

    शमदमादि गुणों का आधार योगाभ्यास में तत्पर योगीजन अपनी योगविद्या के प्रचार से योगविद्या चाहने वालों का आत्मबल बढ़ाता हुआ सब जगह सूर्य्य के समान प्रकाशित होता है॥१३॥

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    विषय

    शमादि गुणयुक्त पुरुष

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र की भावना के अनुसार अपने में वीरता का पूरण करनेवाला ( सुवीरः ) =  उत्तम वीर ( वीरान् ) = [ virtues, उत्कृष्टगुणान्—द० ] उत्तम गुणों को ( प्रजनयन् ) = अपने में विकसित करता हुआ तू ( परीहि ) = सर्वतः प्राप्त हो। 

    २. ( रायस्पोषेण ) = धन के पोषण से तू ( यजमानम् ) = यज्ञ करनेवाले को, अर्थात् दानादि उत्तम कार्यों के करनेवाले को ( अभि ) = लक्ष्य करके ( परीहि ) = प्राप्त हो, अर्थात् तू धन-धान्य से समृद्ध होकर यज्ञादि उत्तम कर्मों को करनेवाला बन। 

    ३. ( दिवा ) = देदीप्यमान मस्तिष्क से तथा ( पृथिव्या ) = [ प्रथ विस्तारे ] विस्तृत शक्तियोंवाले शरीर से ( संजग्मानः ) = सङ्गत हो, अर्थात् तेरा मस्तिष्क ज्ञानज्योति से चमके तो तेरा शरीर सब शक्तियों के विस्तारवाला होता हुआ सचमुच ‘पृथिवी’ हो। 

    ४. ( शुक्रः ) = तू वीर्य का पुञ्ज बन। ( शुक्रशोचिषा ) = पवित्र करनेवाले वीर्य की दीप्ति से तू ( निरस्तः ) = अपमृष्टः = सब मलिनताओं को दूर करके पूर्ण शुद्ध बन। 

    ४. पूर्ण शुद्ध बना हुआ यह ( शण्डः ) = शमादि गुणयुक्त पुरुष ( शुक्रस्य ) = इस जीवन को पवित्र करनेवाले सोम का ( अधिष्ठानम् ) = आधार ( असि ) = है। शमादि गुण वीर्यरक्षा में सहायक होते हैं। इसी से शान्त पुरुष वीर्य का अधिष्ठान बनता है। वीर्य शमादि गुणों का जनक है तो शमादि गुण वीर्यरक्षा में सहायक हैं। इसी दृष्टिकोण से ब्रह्मचारी के लिए सौम्य होना आवश्यक है और क्रोध वर्जित है।

    भावार्थ

    भावार्थ — १. वीर्यरक्षा से वीर बनकर मनुष्य अपने में सद्गुणों का पोषण करता है। २. धन की वृद्धि करके यज्ञशील बनता है। ३. देदीप्यमान मस्तिष्क व विस्तृत शक्तिवाले शरीर को प्राप्त करता है। ४. सब मालिन्यों से दूर होता है और ५. शमादि गुणों से युक्त होता है।

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    विषय

    मदमत्त पुरुष के दमन के लिये योग्य अधिकारी की नियुक्ति । पक्षान्तर में योगी का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे वीर पुरुष ! तू (सुवीरः) उत्तम वीर होकर और ( वीरान् ) और वीर पुरुषों को उत्पन्न करता हुआ ( परि इहि ) राष्ट्र से परे, दूर देशों में जा । और ( रायः पोषेण ) धन ऐश्वर्य की समृद्धि सहित ( यजमानम् ) अपने दानशील वृत्तिदाता राजा को ( अपि इहि ) प्राप्त हो। इस प्रकार ( दिवा ) सूर्य और ( पृथिव्या ) पृथिवी से ( संजग्मानः ) सदा संगति लाभ करते हुए ( शुक्रः ) तेजस्वी सूर्य के समान ( शुक्रशोचिषा ) शुद्ध कान्ति से युक्त होकर विराजमान हो। इस प्रकार से राज्य के भीतर ( शण्डः ) बलवान् वीर पुरुष भी ( निरस्तः ) देश से बाहर कर दिया जाय । हे राजन् ! तू स्वयं ( शुक्रस्य ) तेजस्वी सूर्य का ( अधिष्ठानम् असि ) अधिष्ठान, परम पद है । शत० ४ । २ । १ । १६ ॥ 
    योगी के पक्ष में - उत्तम वीर के समान योगी वीर्यवान् गुणों को उत्पन्न करके ऐश्वर्य से युक्त हो, शुद्धकान्ति से (निरस्त:) विषय वासनारहित, शान्त होकर वीर्य का आश्रय बने ॥

    टिप्पणी

    १ सुवीरों २ शुक्रस्याधिष्ठानमसि ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वदेवाः देवता: । ( १ ) निचृदाषी त्रिष्टुप् । धैवतः । ( २ ) प्राजापत्या- 
    गायत्री, षड्जः ॥ 

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    विषय

    उक्त योग का अनुष्ठान करने वाला योगी कैसा होता है, यह उपदेश किया है ॥

    भाषार्थ

    हे योगी ! (सुवीरः) श्रेष्ठ वीर के समान तू (वीरान्) उत्कृष्ट गुणों को (प्रजनयन्) उत्पन्न करता हुआ हो। (परि+इहि ) सब ओर प्राप्त हो। इस प्रकार (यजमानम्) दाता को (अभि) सब ओर से (रायः) धन की (पोषेण) पुष्टि से (संजग्मानः) संगत करके, (दिवा) सूर्य और (पृथिव्या) भूमि के सहाय से (शुक्रः) वीर्यवान् होकर (शुक्रशोचिषा) शुक्र अर्थात् शुद्धिकारक सूर्य के प्रकाश के समान (निरस्त) अविद्यान्धकार एवं वासना से रहित तथा (शण्ड:) शम आदि गुण सहित तू (शुक्रस्य) इन्द्रिय दोषों के शोधक योग का (अधिष्ठानम्) आधार (असि) है ॥ ७ । १३ ।।

    भावार्थ

    शम, दम आदि गुणों का आधार, योगाभ्यास में रत योगी अपने योग-विद्या के प्रचार से जिज्ञासुओं के आत्मबल को बढ़ाता हुआ सर्वथा सूर्य के समान प्रकाशमान होता है ।। ७ । १३ ।।

    प्रमाणार्थ

    इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।२।१।१६) में की गई है ।। ७ । १३ ।।

    भाष्यसार

    योगी कैसा होता है--योगी श्रेष्ठ वीर-पुरुष के समान उत्कृष्ट गुणों को उत्पन्न करने वाला होता है। योगाभ्यास में रत योगी सब ओर प्राप्त होता है अर्थात् अपनी योगविद्या का प्रचार करता है। अपने यजमानों अर्थात् योगविद्या के जिज्ञासुओं को योगधन की पुष्टि से संगत करता है, उनके आत्मबल की वृद्धि करता है। सूर्य और भूमि आदि पदार्थों के उपयोग से बलवान् होकर सूर्य के समान प्रकाशमान होता है, अविद्या अन्धकार को नष्ट करता है, विषय-वासना से रहित और शम-दम आदि गुणों से सहित होकर इन्द्रिय-दोषों के शोधक योग के शम-दम आदि गुणों का अधिष्ठान होता है ।। ७ । १३ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    शम, दम गुणांचा आधार असलेल्या योगाभ्यासात योगाभ्यासी आपल्या योगविद्येच्या प्रसाराने योगविद्या शिकू इच्छिणाऱ्यांचे आत्मबल वाढवून सर्वत्र सूर्याप्रमाणे प्रकाशित होतो.

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    विषय

    योगानुष्ठान करणारा योगी कसा असतो, पुढील मंत्रात याविषयी उपदेश केला आहे. -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे योगिन्, (सुवीर:) वीरतेमुळे श्रेष्ठ असलेल्या वीराप्रमाणे आपणही योगशक्तीमुळे शूरवीर झाला आहात (वीरान्) उत्तम गुणांनी युक्त पुरूषांना आपण (प्रजनयन्) आपल्या योगशक्ती आणि गुणांनी अधिक समृद्धकरीत (परीहि) सर्वत्र भ्रमण करा (योगीजनांनी एके ठिकाणी वास्तव्य न करता सर्वांनी योगविद्येचे शिक्षण व लाभ प्राप्त करून द्यावेत) तसेच (यजमानम्) धन आदी उत्तम पदार्थांचे दान करणार्‍या दानी पुरुषांच्या (अभि) समोर (राय:) धनाची (पोषेण) समृद्धी देऊन (संजग्भान:) त्यांच्या सह रहा (जे धनी दानी आहेत, त्यांच्या ऐश्वर्यात वृद्धी होत राहील, असे करा) आपण (दिवा) सूर्याच्या आणि (पृथिव्या) पृथ्वीच्या गुणांनी (शुक्र:) अति बलवान झालेले आहात (सूर्याप्रमाणे सर्वांना प्रेरणा व प्रकाश देणारे आणि पृथ्वीप्रमाणे पोषण करणारे आहात) आपण (शुक्रशोचिषा) त्या आपल्या सूर्याप्रमाणे असलेल्या तेजस्वी दीप्तीने (भिरस्त:) अज्ञानरुप अंधकाराला तसेच योगशक्तीने विषय वासनेला नष्ट करणारे व (शण्ड:) शम-दम आदी गुणांनी युक्त आहात. आपण (शुक्रस्थ) योगबलाचे (अधिष्ठानम्) आधार (असि) आहात. (आपल्या जवळ जी अनंत अशी योगशक्ती आहे, ती योगविद्येचा आधार आहे) ॥13॥

    भावार्थ

    भावार्थ - योभाग्यासात तत्पर एक योगी शम-दम आदी गुणांचा आधार असतो (तो मूर्तीमंत योग व योगाचा आदर्श असतो) तो योगविद्येची प्राप्ती करण्यास इच्छुक जनांना आपली योगविद्या शिकवितो. अशा प्रकारे तो शिकणार्‍या साधकांचे आत्मबल वाढवितो आणि स्वत: सूर्याप्रमाणे प्रकाशित म्हणजे कीर्तिमंत होतो. ॥13॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O yogi, endowed with yogic force, cultivate noble traits, like an exalted hero. Go to all places. Be friendly towards the charitably disposed person, who perfects his riches through charity. Thou art the mainstay of yoga, being full of mental peace, free from desire for passions, full of strength like the sun and earth, and purifier of all like the sun.

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    Meaning

    You are good and bold, make others good and bold, and come to the yajamana with all the wealth and honour. Going forward in harmony with the earth and heaven, shining bright and virtuous as by the light of the sun, drive out the dark, attain peace of mind, and be the haven and life-support of the creative and purifying energy of humanity.

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    Translation

    O blissful Lord, you are bravest of the brave. Begetting brave sons, come to the sacrificer surrounding him with plenty of wealth. (1) You are bright, united with bright-shining sky and the earth. (2) The evil has been thrown off. (3) You are the seat of the bright-shining Lord. (4)

    Notes

    Sukrah, bright.

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    बंगाली (1)

    विषय

    উক্তয়োগমনুষ্ঠাতা য়োগী কীদৃগ্ ভবতীত্যুপদিশ্যতে ॥
    উক্ত যোগের অনুষ্ঠানকারী যোগী কেমন হয় এই উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে যোগিন্ ! (সুবীরঃ) শ্রেষ্ঠ বীরের সমান যোগবল প্রাপ্ত হওয়া আপনি (বীরান্) ভাল-ভাল গুণযুক্ত পুরুষদিগকে (প্রজনয়ন্) প্রসিদ্ধ করিয়া (পরীহি) সর্বত্র ভ্রমণ করুন । এই ভাবে (য়জমানম্) ধনাদি পদার্থ দানকারী উত্তম পুরুষদিগের (অভি) সম্মুখ (রায়ঃ) ধনের (পোষেণ) পুষ্টি দ্বারা (সংজগ্মানঃ) সঙ্গত হউন এবং আপনি (দিবা) সূর্য্য ও (পৃথিব্যা) পৃথিবীর গুণ সহ (শুক্রঃ) অতি বলবান্ (শুক্রশোচিষা) সকলের শোধনকারী সূর্য্যের দীপ্তি দ্বারা (নিরস্তঃ) অন্ধকারের সমান পৃথক হওয়া যোগবলের প্রকাশ দ্বারা বিষয় বাসনা যুক্ত (শন্ডঃ) শমদমাদি গুণযুক্ত (শুক্রস্য) অত্যন্ত যোগবলের (অধিষ্ঠানম্) আধার (অসি) হউন ॥ ১৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- শমদমাদি গুণসকলের আধার যোগাভ্যাসে তৎপর যোগীগণ স্বীয় যোগবিদ্যার প্রচার দ্বারা যোগবিদ্যা ইচ্ছাকারীদিগের আত্মবল বৃদ্ধি করিয়া সর্বত্র সূর্য্য সমান প্রকাশিত হয় ॥ ১৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সু॒বীরো॑ বী॒রান্ প্র॑জ॒নয়॒ন্ পরী॑হ্য॒ভি রা॒য়স্পোষে॑ণ॒ য়জ॑মানম্ । স॒ঞ্জ॒গ্মা॒নো দি॒বা পৃ॑থি॒ব্যা শু॒ক্রঃ শু॒ক্রশো॑চিষা॒ নির॑স্তঃ॒ শণ্ডঃ॑ শু॒ক্রস্যা॑ধি॒ষ্ঠান॑মসি ॥ ১৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সুবীর ইত্যস্য বৎসারঃ কাশ্যপ ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ । শুক্রস্যেত্যস্য প্রাজাপত্যা গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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