यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 40
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - आर्षी गायत्री,विराट आर्षी त्रिष्टुप्,
स्वरः - षड्जः
74
म॒हाँ२ऽइन्द्रो॒ यऽओज॑सा प॒र्जन्यो॑ वृष्टि॒माँ२ऽइ॑व। स्तोमै॑र्व॒त्सस्य॑ वावृधे। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि महे॒न्द्राय॑ त्वै॒ष ते॒ योनि॑र्महे॒न्द्राय॑ त्वा॥४०॥
स्वर सहित पद पाठम॒हान्। इन्द्रः॑। यः। ओज॑सा। प॒र्जन्यः॑। वृ॒ष्टि॒माँ२इ॑व। वृ॒ष्टि॒मानि॒वेति॑ वृष्टि॒मान्ऽइ॑व। स्तोमैः॑। व॒त्सस्य॑। वा॒वृ॒धे॒। व॒वृ॒ध इति॑ ववृधे। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। म॒हे॒न्द्रायेति॑ महाऽइ॒न्द्रा॑य। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। म॒हे॒न्द्रायेति॑ महाऽइ॒न्द्राय॑। त्वा॒ ॥४०॥
स्वर रहित मन्त्र
महाँऽइन्द्रो य ओजसा पर्जन्यो वृष्टिमाँऽइव स्तोमैर्वत्सस्य वावृधे । उपयामगृहीतो सि महेन्द्राय त्वैष ते योनिर्महेन्द्राय त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
महान्। इन्द्रः। यः। ओजसा। पर्जन्यः। वृष्टिमाँ२इव। वृष्टिमानिवेति वृष्टिमान्ऽइव। स्तोमैः। वत्सस्य। वावृधे। ववृध इति ववृधे। उपयामगृहीत इत्युपयामगृहीतः। असि। महेन्द्रायेति महाऽइन्द्राय। त्वा। एषः। ते। योनिः। महेन्द्रायेति महाऽइन्द्राय। त्वा॥४०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनरीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते॥
अन्वयः
हे अनादिसिद्ध महायोगिन् सर्वव्यापिन्नीश्वर! यतत्वं योगिभिरुपयामगृहीतोऽसि तस्मात् त्वा त्वां महेन्द्रायोपश्रयामहे, यतस्ते तवैष योगो योनिरस्त्यतस्त्वा त्वां महेन्द्राय वयं ध्यायेम। यो महान् वृष्टिमान् पर्जन्य इव वत्सस्य स्तोमैरोजसेन्द्रः सुखवर्षको भवति, तं विदित्वा योगी वावृधेऽत्यन्तं वर्द्धते॥४०॥
पदार्थः
(महान्) महागुणकर्मस्वभावः (इन्द्रः) अखिलैश्वर्यः (यः) (ओजसा) अनन्तबलेन (पर्जन्यः) मेघः (वृष्टिमानिव) बह्व्यो वृष्टयो विद्यन्ते यस्मिंस्तद्वत् (स्तोमैः) स्तुतिभिः (वत्सस्य) यो वदति तस्य (वावृधे) अत्यन्तं वर्द्धते (उपयामगृहीतः) यमनियमादिभिर्योगाङ्गैः साक्षात् स्वीकृतः (असि) (महेन्द्राय) योगजाय महैश्वर्य्याय (त्वा) त्वाम् (एषः) (ते) तव (योनिः) निमित्तम् (महेन्द्राय) मोक्षप्रापकाय महैश्वर्य्याय (त्वा) त्वाम्॥४०॥
भावार्थः
यथा मेघो वृष्टिसमये स्वजलसमूहेन सर्वान् पदार्थान् तर्पयन् सन् वर्द्धयति, तथैवश्वरो योगाराधनतत्परं योगिनमभिवर्द्धयति॥४०॥
विषयः
पुनरीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते।।
सपदार्थान्वयः
हे अनादिसिद्ध महायोगिन् सर्वव्यापिन्नीश्वर! यतस्त्वं योगिभिरूपयामगृहीतः यमनियमादिभिर्योगाङ्गैः साक्षात् स्वीकृतः असि, तस्मात्त्वा=त्वां महेन्द्राय योगजाय महैश्वर्य्याय उपश्रयामहे। यतस्ते=तव एषः योगोयोनिः निमित्तम् अस्ति, अतस्त्वा=त्वां महेन्द्राय मोक्षप्रापकाय महैश्वर्य्यायध्यायेम। यो महान् महागुणकर्मस्वभावः वृष्टिमान् बह्वयो वृष्टयो विद्यन्ते यस्मिन् पर्जन्यः मेघःइव वत्सस्य यो वदति तस्य स्तोमैः स्तुतिभिः ओजसा अनन्तबलेन इन्द्रः अखिलैश्वर्यः सुखवर्षको भवति, तं विदित्वा योगी वावृधे=अत्यन्त वर्धते ॥ ७ । ४०॥ [यो महान् वृष्टिमान् पर्जन्य इव.......इन्द्रः सुखवर्षको भवति, , तं विदित्वा योगी वावृधे]
पदार्थः
(महान्) महागुणकर्मस्वभावः (इन्द्रः) अखिलैश्वर्यः (यः) (ओजसा) अनन्तबलेन (पर्जन्य:) मेघ: (वृष्टिमानिव) बह्वयो वृष्ट्यो विद्यन्ते यस्मिंस्तद्वत् (स्तोमैः) स्तुतिभिः (वत्सस्य) यो वदति तस्य (वावृधे) अत्यन्तं वर्द्धते (उपयामगृहीतः) यमनियमादिभिर्योगाङ्गैः साक्षात् स्वीकृतः (असि) (महेन्द्राय) योगजाय महेश्वर्य्याय (त्वा) त्वाम् (एषः) (ते) तव (योनिः) निमित्तम् (महेन्द्राय) मोक्षप्रापकाय महैश्वर्य्याय (त्वा) त्वाम् ।। ४० ।।
भावार्थः
यथा मेघो वृष्टिसमये स्वजलसमूहेन सर्वान् पदार्थान् तर्पयन् सन् वर्द्धयति तथैवेश्वरो योगाराधनतत्परं योगिनमभिवर्द्धयति ॥ ७। ४० ।।
विशेषः
वत्सः। प्रजापतिः=ईश्वरः। आर्षी गायत्री। उपयामेत्यस्य विराडार्षी गायत्री। षड्जः।
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी ईश्वर के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे अनादिसिद्ध योगिन् सर्वव्यापी ईश्वर! जो आप योगियों के (उपयामगृहीतः) यमनियमादि योग के अङ्गों से स्वीकार किये हुए (असि) हैं, इस कारण हम लोग (त्वा) आप के (महेन्द्राय) योग से प्रकट होने वाले अच्छे ऐश्वर्य्य के लिये आश्रय करते हैं, (ते) आपका (एषः) यह योग हमारे कल्याण का (योनिः) निमित्त है, इसलिये (त्वा) आपका (महेन्द्राय) मोक्ष कराने वाले ऐश्वर्य के लिये ध्यान करते हैं, (यः) जो (महान्) बड़े-बड़े गुण, कर्म्म और स्वभाव वाला (वृष्टिमान्) वर्षने वाले (पर्जन्य इव) मेघ के तुल्य (वत्सस्य) स्तुतिकर्त्ता की (स्तोमैः) स्तुतियों से (ओजसा) अनन्त बल के साथ प्रकाशित होता है, उस ईश्वर को जानकर योगी (वावृधे) अत्यन्त उन्नति को प्राप्त होता है॥४०॥
भावार्थ
जैसे मेघ वर्षा समय में अपने जल के समूह से सब पदार्थों को तृप्त करता हुआ उन्नति देता है, वैसे ईश्वर भी योगाभ्यास करने वाले योगी पुरुष के योग को अत्यन्त बढ़ाता है॥४०॥
विषय
वत्स
पदार्थ
१. गत मन्त्र की भावना के अनुसार इन्द्र से महेन्द्र बननेवाला व्यक्ति ही वस्तुतः प्रभु का उपासक है। इसका जीवन प्रभु का प्रतिपादन करनेवाला होता है। ‘वदतीति वत्सः’ इसी कारण यह ‘वत्स’ कहलाता है। यह प्रभु को निम्न रूप में देखता है।
२. ( महान् ) = ये प्रभु महान् हैं। ३. ( यः ) = जो ( ओजसा ) = अपने ओज के कारण ( इन्द्रः ) = सब शत्रुओं का विदारण करनेवाले हैं।
४. और सब उपासकों के लिए ( वृष्टिमान् पर्जन्यः इव ) = बरसनेवाले बादल की भाँति हैं। जैसे यह बादल सब सन्ताप को समाप्त कर देता है, इसी प्रकार प्रभु के उपासक का चित्त भी शान्त होता है।
५. ये प्रभु ( वत्सस्य ) = अपने जीवन से प्रभु का प्रतिपादन करनेवाले के ( स्तोमैः ) = स्तुति-समूहों से ( वावृधे ) = बढ़ाये जाते हैं, अर्थात् स्तुति वही करता है जो प्रभु के उस गुण को अपने जीवन में धारण करने का प्रयत्न करता है।
६. हे प्रभो! ( उपयामगृहीतः असि ) = आप सुनियमों से स्वीकृत होते हो। ( महेन्द्राय त्वा ) = मैं भी इन्द्र से महेन्द्र बन सकूँ, इसलिए आपको स्वीकार करता हूँ। ( एषः ते योनिः ) = यह मेरा शरीर आपका घर है, मैं अपने हृदय-मन्दिर में आपको प्रतिष्ठित करता हूँ। ( महेन्द्राय त्वा ) = जिससे मैं महेन्द्र बन सकूँ। इन्द्र से महेन्द्र बनना ही मानव का लक्ष्य होना चाहिए।
भावार्थ
भावार्थ — हम प्रभु की भाँति विशाल हृदय [ महान् ], शक्ति से शत्रुओं का विदारण करनेवाले [ इन्द्र ] और सबके सन्ताप को दूर करनेवाले [ पर्जन्य ], बनेंगे तभी प्रभु के प्रिय व ‘वत्स’ बन पाएँगे।
विषय
महेन्द्र पद।
भावार्थ
( यः ) जो ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवान् राजा ( ओजसा ) बल से ( महान् ) महान् है । और ( पर्जन्यः इव ) मेघ के समान ( वृष्टिमान् ) प्रजा पर अत्यन्त सुख सम्पत्तियों की वर्षा करनेवाला है। वह ( वत्सस्य ) अपने राज्य में बसनेवाला, पुत्र के समान प्रजा के किये ( स्तोमैः ) स्तुति- गुणानुवादों, अथवा संघों द्वारा ( वावृधे ) वृद्धि को प्राप्त होता है। (उपयाम गृहीतः असि० इत्यादि) पूर्ववत् ॥
परमेश्वर पक्ष में - वह बल में सबसे महान्, मेघ के समान समस्त सुखों का वर्षक, उसकी महिमा प्रजा की स्तुतियों से और भी बढ़ती है ।
टिप्पणी
१ महान्। २ उपयाम।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्स ऋषिः । इन्द्रः प्रजापतिर्देवता । ( १ ) आर्षी गायत्री । ( २ ) विराड् आर्षी गायत्री । षड्जः ॥
विषय
फिर भी ईश्वर के गुणों का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ
हे अनादिसिद्ध, महायोगी, सर्वव्यापक ईश्वर ! क्योंकि आप योगी जनों से (उपयामगृहीतः) यम-नियम आदि योग के अङ्गों द्वारा साक्षात् प्राप्त किये गये (असि) हो, अतः (त्वा) आपका (महेन्द्राय) योग से उत्पन्न महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (उपश्रयामहे) आश्रय ग्रहण करते हैं। क्योंकि--(ते) आपका (एषः) यह योग (योनिः) ऐश्वर्य प्राप्ति का निमित्त है, अतः (त्वा) आपका(महेन्द्राय) मोक्षदायक महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये हम लोग ध्यान करते हैं। और-- जो (महान्) महान् गुण, कर्म, स्वभाव वाला (वृष्टिमान्) बहुत वर्षा करने वाले (पर्जन्यः) मेघ के समान, (वत्सस्य) स्तुति करने वाले की (स्तौमैः) स्तुतियों से और (ओजसा) अनन्त बल से (इन्द्रः) अखिल ऐश्वर्य वाला इन्द्र सुख की वर्षा करने वाला है, उसे जानकर योगी (वावृधे) अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त करता है ।। ७। ४० ।।
भावार्थ
जैसे मेघ वर्षा के समय में अपने जल से सब पदार्थों को तृप्त करके बढ़ाता है वैसे ही ईश्वर योगाराधन में तत्पर योगी को समुन्नत करता है ।। ७ । ४० ।।
भाष्यसार
ईश्वर के गुणों का उपदेश--हे अनादि सिद्ध, महायोगीन्, सर्वव्यापक ईश्वर ! योगी लोग यम-नियम आदि योग के अङ्गों से आपका साक्षात्कार करते हैं, इसलिये हम भी योगज महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये आपकी उपासना करते हैं। यह योग ही आपकी प्राप्ति का निमित्त है इसलिये मोक्षदायक इस योगज महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये हम आपका ध्यान करते हैं। आपके गुण, कर्म, स्वभाव महान् हैं। जैसे वर्षा के समय में मेघ अपने जल से सब पदार्थों को तृप्त करके उन्हें बढ़ाता है, वैसे आप हम स्तोता जनों की नानाविधि स्तुतियों से प्रसन्न होकर सुख की वर्षा करते हो, और योगीजनों को अत्यन्त समुन्नत बनाते हो क्योंकि आप अनन्त बलवान् होने से अखिल ऐश्वर्य के स्वामी हो, इन्द्र हो ॥ ७ । ४० ॥
मराठी (2)
भावार्थ
जसा मेघ आपल्या जलाने सर्व पदार्थांना तृप्त करून त्यांची वृद्धी होण्यास साह्यभूत ठरतो तसेच ईश्वरही योगाभ्यास करणाऱ्या योगी पुरुषांची उन्नती होण्यास कारणीभूत ठरतो.
विषय
पुनश्च, पुढील मंत्रात ईश्वराच्या गुणांचे वर्णन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे अनादिसिद्ध योगी सर्वव्यापी ईश्वर, आपण (उपयामगृहीत:) यम, नियम आदी योगाच्या अंगांद्वारे प्राप्तव्य व ज्ञातव्य (असि) आहात. म्हणून (महेन्द्राय) योगाद्वारे व्यक्त वा प्राप्त होणार्या ऐश्वर्यासाठी आम्ही (त्वा) आपला आश्रय ग्रहण करतो (ते) योगाद्वारे प्राप्त होणार आपला (एष:) हा आश्रय आमच्या कल्याणाचा (योनि:) हेतू आहे, म्हणून आम्ही (महेन्द्राय) मोक्षदायक अशा (त्वा) आपल्या आश्रयाने मिळणार्या ऐश्वर्यासाठी आपले ध्यान करतो. (य:) जो (महान्) महान गुणकर्मस्वभाव असलेले, (वृष्टिमान्) वृष्टी करणार्या (पर्जन्यइव) पर्जन्याप्रमाणे कृपाशील ईश्वर आहे, जो (वत्सस्य) स्तुतिकर्त्याची (स्तोमै:) तुस्ती ऐकून (ओजसा) अनन्तशक्तीद्वारे प्रकाशित होतो, त्या ईश्वराला जाणून योगी देखी (वावृधे) वृद्दीमान होतो. (योगाद्वारे ईश्वराच्या अनंतशक्तीला जाणून योगी अत्यंत उन्नत होतो) ॥40॥
भावार्थ
भावार्थ - ज्याप्रमाणे वर्षाकाळी मेघ आपल्या जलाने सर्व पदार्थांना तृप्त करीत त्यांची उन्न्ती घडून आणतो , तद्वत एक योगी योगाभ्यास करीत असता ईश्वरदेखील त्या योगी पुरुषाला सहाय्यभूत होतो वा त्याच्या योगबलाची शक्ती वाढवितो. ॥40॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O God, Thou art attainable through yoga. Thy worship contributes to our good and advancement. We serve Thee to become great. Thou art Supreme, Come like a just leader. Thou impartest pleasure to humanity. Thou art coupled with temporal and spiritual knowledge. Through omniscience Thou knowest us all. Unlimited is Thy might. Thou art vast and Great. Noble souls take Thee as the doer of great deeds and full of splendour. Depending upon Thee, we are encouraged to be great through acts of prowess.
Meaning
The Lord is great, Lord of power and glory who, like the cloud laden with rain, showers the worshipper—who sends up his songs of praise natural as a child’s— with light and lustre. In the light of that glory, we grow in body, mind and soul. Lord of us all, you can be reached only through the discipline of yoga. You reside in the light of your glory revealed in the heart. We worship you for the realization of that glory, for the attainment of that infinite love and compassion.
Translation
Great is the resplendent Lord, who in His might is like a rain-cloud. He is magnified with the praises of the worshipper. (1) O devotional bliss, you have been duly accepted. You to the great resplendent Lord. (2) This is your abode. You to the great resplendent Lord. (3)
Notes
Parjanyo vrstiman iva, like a cloud full of rain. Vatsasya, वसनशीलस्य यजमानस्य, of the sacrificer or worshipper.
बंगाली (1)
विषय
পুনরীশ্বরগুণা উপদিশ্যন্তে ॥
পুনরায় ঈশ্বরের গুণের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে অনাদিসিদ্ধ যোগিন্ সর্বব্যাপী ঈশ্বর । আপনি যোগীদিগের (উপয়ামগৃহীতঃ) যম-নিয়মাদি যোগের অঙ্গ দ্বারা স্বীকৃত (অসি) আছেন, এই কারণে আমরা (ত্বা) আপনাকে (মহেন্দ্রায়) যোগ হইতে প্রকাশিত ভাল ঐশ্বর্য্য হেতু আশ্রয় করি (তে) আপনার (এষঃ) এই যোগ আমাদের কল্যাণের (য়োনিঃ) নিমিত্ত এইজন্য (ত্বা) আপনার (মহেন্দ্রায়) মোক্ষ প্রদান কারী ঐশ্বর্য্যের জন্য ধ্যান করি, (য়ঃ) যিনি (মহান্) বড় বড় গুণ কর্ম ও স্বভাবযুক্ত (বৃষ্টিমান্) বরিষণকারী (পর্জন্য ইব) মেঘের তুল্য (বৎসস্য) স্তুতিকর্ত্তার (স্তোমৈঃ) স্তুতি দ্বারা (ওজসা) অনন্ত বল সহ প্রকাশিত হয়, সেই ঈশ্বরকে জানিয়া যোগী (বাবৃধে) অত্যন্ত উন্নতি প্রাপ্ত হয় ॥ ৪০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যেমন মেঘ বর্ষার সময়ে নিজ জলসমূহ দ্বারা সকল পদার্থকে তৃপ্ত করিয়া উন্নতি প্রদান করে সেইরূপ ঈশ্বরও যোগাভ্যাসকারী যোগী পুরুষের যোগকে অত্যন্ত বৃদ্ধি করিয়া থাকে ॥ ৪০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ম॒হাঁ২ঽইন্দ্রো॒ য়ঽওজ॑সা প॒র্জন্য়ো॑ বৃষ্টি॒মাঁ২ঽই॑ব । স্তোমৈ॑র্ব॒ত্সস্য়॑ বাবৃধে ।
উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতোঽসি মহে॒ন্দ্রায়॑ ত্বৈ॒ষ তে॒ য়োনি॑র্মহে॒ন্দ্রায়॑ ত্বা ॥ ৪০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
মহানিন্দ্র ইত্যস্য বৎস ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । আর্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ । উপয়ামেত্যস্য বিরাডার্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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