यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 42
ऋषिः - कुत्स ऋषिः
देवता - सूर्य्यो देवता
छन्दः - भूरिक् आर्षी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
0
चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः। आप्रा॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ꣳ सूर्य॑ऽआ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च॒ स्वाहा॑॥४२॥
स्वर सहित पद पाठचित्र॒म्। दे॒वाना॑म्। उत्। अ॒गा॒त्। अनी॑कम्। चक्षुः॑। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। अ॒ग्नेः। आ। अ॒प्राः॒। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। अ॒न्तरि॑क्षम्। सूर्य्यः॑। आ॒त्मा। जग॑तः। त॒स्थुषः॑। च॒। स्वाहा॑ ॥४२॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्रन्देवानामुदगादनीकञ्चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः । आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षँ सूर्य ऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
चित्रम्। देवानाम्। उत्। अगात्। अनीकम्। चक्षुः। मित्रस्य। वरुणस्य। अग्नेः। आ। अप्राः। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। अन्तरिक्षम्। सूर्य्यः। आत्मा। जगतः। तस्थुषः। च। स्वाहा॥४२॥
विषय - फिर भी वैसे ही ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है।।
भाषार्थ -
हे मनुष्यो ! तुम--जो (सूर्य:)स्व-प्रकाश वाला, सूर्य (स्वाहा) सत्य क्रिया से (देवानाम्) चक्षु के समान विद्वानों को, (मित्रस्य) सखा वा प्राण को, (वरुणस्य) श्रेष्ठ पुरुष वा उदान को (अग्नेः) विद्युत् को (चित्रम्) अद्भुत (अनीकम्) बलवान् सैन्य के समान प्रसिद्ध एवं सब प्राणियों को जीवन देने वाला (चक्षुः) नेत्र को (उद्+अगात्) उदय होकर प्रदान करता है, और जो (जगतः) चेतन (तस्थुष:) जड़ (च) और सब प्राणियों का (आत्मा) सर्वव्यापक आत्मा होकर (द्यावापृथिवी) पृथिवी, आकाश और (अन्तरिक्षम् ) सर्वत्र व्याप्त अनन्त आकाश को (आ+अप्राः) सब ओर से पूर्ण करता है, उस सूर्य के समान जो जगदीश्वर है, उसकी ही सदा उपासना करो ॥७ । ४२ ।।
भावार्थ - जिससे परमेश्वर आकाश के समान सर्वत्र व्याप्त, सूर्य के समान स्वयं प्रकाशमान, प्राण (वायु) के समान सर्वान्तर्यामी है, इसलिये सब जीवों को सत्य और असत्य का बोध कराने वाला है । जिसे परमेश्वर को जानने की इच्छा हो वह योगाभ्यास करके अपने आत्मा में ही उसे देख सकता है; अन्यत्र नहीं ।। ७ । ४२ ।। (चित्रं देवाना०) (सूर्य आत्मा०) प्राणों और जड़ जगत् की जो आत्मा है उसको सूर्य कहते हैं (आ प्रा द्या०) जो सूर्य और अन्य सब लोकों को बना के धारण और रक्षण करने वाला है (चक्षुर्मित्रस्य) जो मित्र अर्थात् रागद्वेष रहित मनुष्य तथा सूर्यलोक और प्राण का चक्षु प्रकाश करने वाला है (वरुणस्या०) सब उत्तम कामों में जो वर्त्तमान मनुष्य प्राण, अपान और अग्नि का प्रकाश करने वाला है। (चित्रं देवानाम्) जो अद्भुत-स्वरूप विद्वानों के हृदय में सदा प्रकाशित रहता है (अनीकम्) जो सकल मनुष्यों के सब दुःख नाश करने के लिये परम उत्तम बल है वह परमेश्वर (उदगात्) हमारे हृदयों में यथावत् प्रकाशित रहे ।। ३ ।। " (पञ्चमहायज्ञविधि) ॥ २. "सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च" इस यजुर्वेद के वचन से जो जगत् नाम प्राणी चेतन और जंगम अर्थात् जो चलते-फिरते हैं 'तस्थुषः' अप्राणी अर्थात् स्थावर जड़ अर्थात् पृथिवी आदि हैं उन सबके आत्मा होने और रूप सबके प्रकाश करने से परमेश्वर का नाम 'सूर्य' है । (सत्यार्थ प्रथम समु०) ।। ७ । ४२ ।।
प्रमाणार्थ -
(अनीकम्) यहाँ'अहृषिभ्यां किच्च’ उणा० (४ । १७) इस सूत्र से 'अन्' (अप्राः) धातु से 'ईकन्' प्रत्यय और वह कित् है । यहाँ लट् अर्थ में लुङ् लकार है। इस मन्त्र की व्याख्या यास्क मुनि ने निरुक्त में (१२-१६) की है ।
भाष्यसार - १. ईश्वर के गुणों का उपदेश--ईश्वर सूर्य के समान स्वप्रकाशस्वरूप है। जैसे चक्षु आदि इन्द्रियाँ अपने अर्थों को प्रत्यक्ष ग्रहण करती हैं, वैसे प्रत्यक्ष द्रष्टा विद्वानों का, मित्र जनों का, श्रेष्ठ जनों का ईश्वर चक्षु के समान मार्गदर्शक है। वायु (प्राण, उदान) के समान अन्तर्यामी है। विद्युत् आदि का दर्शक (कर्ता) वही है। वह अद्भुत है। बलवान् सेना के समान सर्वत्र प्रसिद्ध है, एवं प्राणियों का जीवन वही है। सब का द्रष्टा है। चेतन और जड़ पदार्थों का आत्मा है अर्थात् सब में सर्वत्र व्यापक है। द्युलोक, भूलोक और अन्तरिक्ष में सब ओर परिपूर्ण है। वह आकाश के समान सर्वत्रव्याप्त है। इसलिये सब जीवों को सत्य-असत्य का बोध कराने वाला वही है। जो परमेश्वर को स्वयं जानकर सबको जनाना चाहता है वह योगाभ्यास करके अपने आत्मा में उसके दर्शन करे, उसकी नित्य उपासना करे ।। ७ । ४२ ।।
अन्यत्र व्याख्यात - १.अन्यत्र व्याख्यात--महर्षि ने इस मन्त्र का पञ्चमहायज्ञविधि में ब्रह्मयज्ञ (सन्ध्या) में विनियोग किया है और इसका भाष्य इस प्रकार किया है:--
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal