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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 14
    ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - विराट जगती, स्वरः - निषादः
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    अच्छि॑न्नस्य ते देव सोम सु॒वीर्य॑स्य रा॒यस्पोष॑स्य ददि॒तारः॑ स्याम। सा प्र॑थ॒मा सँस्कृ॑तिर्वि॒श्ववा॑रा॒ स प्र॑थ॒मो वरु॑णो मि॒त्रोऽअ॒ग्निः॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छि॑न्नस्य। ते॒। दे॒व॒। सो॒म॒। सु॒वीर्य्य॒स्येति॑ सु॒ऽवीर्य्य॑स्य। रा॒यः। पोष॑स्य। द॒दि॒तारः॑। स्या॒म॒। सा। प्र॒थ॒मा। संस्कृ॑तिः। वि॒श्ववा॒रेति॑ वि॒श्वऽवा॑रा। सः। प्र॒थ॒मः। वरु॑णः। मि॒त्रः। अ॒ग्निः ॥१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम । सा प्रथमा सँस्कृतिर्विश्ववारा स प्रथमो वरुणो मित्रो अग्निः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छिन्नस्य। ते। देव। सोम। सुवीर्य्यस्येति सुऽवीर्य्यस्य। रायः। पोषस्य। ददितारः। स्याम। सा। प्रथमा। संस्कृतिः। विश्ववारेति विश्वऽवारा। सः। प्रथमः। वरुणः। मित्रः। अग्निः॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 14
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    भाषार्थ -
    हे (देव) योग के जिज्ञासु ! (सोम) उत्तम गुण युक्त शिष्य ! हम अध्यापक लोग (ते) तेरे लिये (सुवीर्यस्य) उत्तम बल पराक्रम के समान (अच्छिन्नस्य) अखण्डित (रायः) सब विद्याओं से उत्पन्न बोध-धन की (पोषस्य) पुष्टि के (ददितारः) दाता (स्याम) हों, और जो (प्रथमा) आदिम (विश्ववारा) सब से स्वीकार करने योग्य (संस्कृतिः) विद्या और सुशिक्षा से उत्पन्न नीति है वह तेरे लिये सुखदायक हो । और--जो हमारे मध्य में (वरुणः) श्रेष्ठ (अग्निः) अग्नि के समान विद्या से देदीप्यमान अध्यापक है वह (प्रथम) पहला (ते) तेरा (मित्र) सखा हो ॥ ७ । १४ ।।

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है॥योगविद्या से युक्त मन वाले योगियों को योग्य है कि वे योगजिज्ञासुओं को योगविद्या प्रदान करके उन्हें उत्तम शरीर और आत्मा के बल से युक्त करें ।। ७ । १४ ।।

    भाष्यसार - १. शिष्य के लिये अध्यापक का कर्त्तव्य--योगविद्या के अध्यापक उत्तम गुण वाले योगविद्या के जिज्ञासु शिष्य को उत्तम बल पराक्रम के समान अखण्डित ज्ञान-धन की पुष्टि प्रदान करें। और उन्हें नित्य योग-विद्या प्रदान करके शारीरिक और आत्मिक बल से सम्पन्न बनावें। और जो प्रथम, सब से स्वीकार करने योग्य संस्कृति है उसे शिष्यों के लिये सुखद बनावें। और श्रेष्ठ, अग्नि के समान योगविद्या से देदीप्यमान अध्यापक शिष्यों के सखा हों ।। २. अलङ्कार– इस मन्त्र मेंउपमा अलङ्कार है॥ उपमा यह है कि जैसे अग्नि प्रकाश से देदीप्यमान है वैसे अध्यापक योगविद्या से देदीप्यमान हो ॥ ७ । १४ ॥

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