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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः
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    अति॒ निहो॒ऽ अति॒ स्रिधोऽत्यचि॑त्ति॒मत्यरा॑तिमग्ने।विश्वा॒ ह्यग्ने दुरि॒ता सह॒स्वाथा॒ऽस्मभ्य॑ꣳ स॒हवीरा र॒यिं दाः॑॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अति॑। निहः॑। अति॑। स्रिधः॑। अति॑। अचि॑त्तिम्। अति॑। अरा॑तिम्। अ॒ग्ने॒ ॥ विश्वा॑। हि। अ॒ग्ने॒। दु॒रि॒तेति॑ दुःऽइ॒ता। सह॑स्व। अथ॑। अ॒स्मभ्य॑म्। स॒हवी॑रा॒मिति॑ स॒हऽवी॑राम्। र॒यिम्। दाः॒ ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अति निहोऽअति स्रिधोत्यचित्तिमत्यरातिमग्ने । विश्वा ह्यग्ने दुरिता सहस्वाथास्मभ्यँ सहवीराँ रयिन्दाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अति। निहः। अति। स्रिधः। अति। अचित्तिम्। अति। अरातिम्। अग्ने॥ विश्वा। हि। अग्ने। दुरितेति दुऽःइता। सहस्व। अथ। अस्मभ्यम्। सहवीरामिति सहऽवीराम्। रयिम्। दाः॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 6
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    भावार्थ - जे (राजे) दुष्ट आचरणाचा त्याग करतात, नीच लोकांना रोखतात, अज्ञान व कृपणता दूर करतात, दुर्व्यसनांना तिलांजली देतात, सुख-दुःख सहन करतात, वीर पुरुषांच्या सेनेबाबत प्रेम बाळगणाऱ्या लोकांचा सत्कार करतात व न्यायाने राज्यपालन करतात, ते नेहमी सुखी राहतात.

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