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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 14/ मन्त्र 13
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यापरिहरणम् छन्दः - स्वराडनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त

    अ॒ग्निरि॑वैतु प्रति॒कूल॑मनु॒कूल॑मिवोद॒कम्। सु॒खो रथ॑ इव वर्ततां कृ॒त्या कृ॑त्या॒कृतं॒ पुनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नि:ऽइ॑व । ए॒तु॒ । प्र॒ति॒ऽकूल॑म् । अ॒नु॒कूल॑म्ऽइव । उ॒द॒कम् । सु॒ख: । रथ॑:ऽइव । व॒र्त॒ता॒म् । कृ॒त्या । कृ॒त्या॒ऽकृत॑म् । पुन॑: ॥१४.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निरिवैतु प्रतिकूलमनुकूलमिवोदकम्। सुखो रथ इव वर्ततां कृत्या कृत्याकृतं पुनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नि:ऽइव । एतु । प्रतिऽकूलम् । अनुकूलम्ऽइव । उदकम् । सुख: । रथ:ऽइव । वर्तताम् । कृत्या । कृत्याऽकृतम् । पुन: ॥१४.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 13

    Translation -
    Like fire towards an adversary, and like water towards a favourably inclined friend, like a pleasure-giving chariot, may the fatal contrivance go back to the applier of the fatal contrivance again.

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