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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 22
    ऋषिः - देवावात ऋषिः देवता - अग्न्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः छन्दः - विराट् आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    मा त॑ऽइन्द्र ते व॒यं तु॑राषा॒डयु॑क्तासोऽअब्र॒ह्मता॒ विद॑साम। तिष्ठा॒ रथ॒मधि॒ यं व॑ज्रह॒स्ता र॒श्मीन् दे॑व यमसे॒ स्वश्वा॑न्॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा। ते॒। इ॒न्द्र॒। ते। व॒यम्। तु॒रा॒षा॒ट्। अयु॑क्तासः। अ॒ब्र॒ह्मता॑। वि। द॒सा॒म॒। तिष्ठ॑। रथ॑म्। अधि॑। यम्। व॒ज्र॒ह॒स्ते॒ति॑ वज्रऽहस्त। आ। र॒श्मीन्। दे॒व॒। य॒म॒से॒। स्वश्वा॒निति॑ सु॒ऽअश्वा॑न् ॥२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा तऽ इन्द्र ते वयन्तुराषाडयुक्तासोऽअब्रह्मता विदसाम । तिष्ठा रथमधि यँवज्रहस्ता रश्मीन्देव यमसे स्वश्वान् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मा। ते। इन्द्र। ते। वयम्। तुराषाट्। अयुक्तासः। अब्रह्मता। वि। दसाम। तिष्ठ। रथम्। अधि। यम्। वज्रहस्तेति वज्रऽहस्त। आ। रश्मीन्। देव। यमसे। स्वश्वानिति सुऽअश्वान्॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 22
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    पदार्थ -

    १. हे ( इन्द्र ) = सब शत्रुओं के संहारक प्रभो! ( तुराषाट् ) = [ तूर्णं सहते ] शीघ्रता से शत्रुओं का पराभव करनेवाले प्रभो! ( वयम् ) = हम सब ( ते ) = तेरे हों और ( ते अयुक्तासः ) = आपसे अपने को न जोड़नेवाले ( मा ) = न हों। हम सदा अपनी चित्तवृत्ति को विषयों से व्यावृत्त करके आपके साथ लगाएँ। 

    २. ( अब्रह्मता ) = [ अब्रह्मतां ] नास्तिकवृत्तिता को, ‘संसार का सञ्चालक ईश्वर कोई नहीं है’, इस आसुरी विचारधारा को [ जगदाहुरनीश्वरम्—गीता ] ( विदसाम ) = हम विशेषरूप से नष्ट कर दें। हममें अनीश्वरता की भावना कभी उत्पन्न न हो। 

    ३. ( रथं तिष्ठ ) = मैं उस शरीररूप रथ में बैठूँ ( वज्रहस्त यं अधि ) = हे वज्रहस्त प्रभो! जिसके अधिष्ठाता आप हैं। प्रभु ही मेरे शरीररूप रथ के सञ्चालक हों। ऐसा होने पर क्या कोई वासना मेरी यात्रा को विहत कर पाएगी? वे प्रभु तो वज्रहस्त हैं, काम को भस्म करने के लिए उनका तो नाम ही पर्याप्त है। 

    ४. ( देव ) = हे सब विघ्नों के विजेता प्रभो! आप ही मेरे इस शरीररूप रथ पर स्थित हुए-हुए ( रश्मीन् ) = लगामों को ( यमसे ) = काबू करते हैं। आप ही ( अश्वान् ) = इन मेरे इन्द्रिय-रूप अश्वों को ( सुयमसे ) = उत्तमता से काबू करते हैं। वस्तुतः प्रभु-नामस्मरण हमें इस योग्य बनाता है कि हमारा मन विषय-व्यावृत्त हो पाये और हम इन्द्रियों को विषयपङ्क से मलिन न होने दें।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम ईश्वर के हों। अनीश्वरवाद हमारे नाश का कारण बनता है। वे प्रभु ही वज्रहस्त हैं, हमारे शत्रुओं का शीघ्रता से विनाश करनेवाले हैं।

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