यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 8
क्ष॒त्रस्योल्ब॑मसि क्ष॒त्रस्य॑ ज॒राय्व॑सि क्ष॒त्रस्य॒ योनि॑रसि क्ष॒त्रस्य॒ नाभि॑र॒सीन्द्र॑स्य॒ वार्त्रघ्नमसि मि॒त्रस्या॑सि॒ वरु॑णस्यासि॒ त्वया॒यं वृ॒त्रं व॑धेत्। दृ॒वासि॑ रु॒जासि॑ क्षु॒मासि॑। पा॒तैनं॒ प्राञ्चं॑ पा॒तैनं॒ प्र॒त्यञ्चं॑ पा॒तैनं॑ ति॒र्यञ्चं॑ दि॒ग्भ्यः पा॑त॥८॥
स्वर सहित पद पाठक्ष॒त्रस्य॑। उल्ब॑म्। अ॒सि॒। क्ष॒त्रस्य॑। ज॒रायु॑। अ॒सि॒। क्ष॒त्रस्य॑। योनिः॑। अ॒सि॒। क्ष॒त्रस्य॑। नाभिः॑। अ॒सि॒। इन्द्र॑स्य। वार्त्र॑घ्न॒मिति वार्त्र॑ऽघ्नम्। अ॒सि॒। मि॒त्रस्य॑। अ॒सि॒। वरु॑णस्य। अ॒सि॒। त्वया॑। अ॒यम्। वृ॒त्रम्। व॒धे॒त्। दृ॒वा। अ॒सि॒। रु॒जा। अ॒सि॒। क्षु॒मा। अ॒सि॒। पा॒त। ए॒न॒म्। प्राञ्च॑म्। पा॒त। ए॒न॒म्। प्र॒त्यञ्च॑म्। पा॒त। ए॒न॒म्। ति॒र्यञ्च॑म्। दि॒ग्भ्य इति॑ दि॒क्ऽभ्यः पा॒त॒ ॥८॥
स्वर रहित मन्त्र
क्षत्रस्योल्वमसि क्षत्रस्य जराय्वसि क्षत्रस्य योनिरसि क्षत्रस्य नाभिरसीन्द्रस्य वात्रघ्नमसी मित्रस्यासि वरुणस्यासि त्वयायँवृत्रँवधेत् । दृवासि रुजासि क्षुमासि । पातैनम्प्राञ्चम्पातैनम्प्रत्यञ्चम्पातैन्तिर्यञ्चन्दिग्भ्यः पात ॥
स्वर रहित पद पाठ
क्षत्रस्य। उल्बम्। असि। क्षत्रस्य। जरायु। असि। क्षत्रस्य। योनिः। असि। क्षत्रस्य। नाभिः। असि। इन्द्रस्य। वार्त्रघ्नमिति वार्त्रऽघ्नम्। असि। मित्रस्य। असि। वरुणस्य। असि। त्वया। अयम्। वृत्रम्। वधेत्। दृवा। असि। रुजा। असि। क्षुमा। असि। पात। एनम्। प्राञ्चम्। पात। एनम्। प्रत्यञ्चम्। पात। एनम्। तिर्यञ्चम्। दिग्भ्य इति दिक्ऽभ्यः पात॥८॥
विषय - क्षत्र का उल्ब
पदार्थ -
राजा के लिए कहते हैं कि १. हे राजन्! तू ( क्षत्रस्य उल्ब असि ) = ‘उल्ब’ शब्द गर्भाधारभूत उदक के लिए आता है, अतः तू क्षत्र का उल्ब है, आधारभूत है। राष्ट्र को आघातों से बचानेवाली शक्ति ‘क्षत्र’ है। राजा उस शक्ति का आधार है।
२. ( क्षत्रस्य जरायु असि ) = क्षत्र का तू गर्भवेष्टन है। यह क्षत्र नामक बल तुझमें सुरक्षित है।
३. ( क्षत्रस्य योनिः असि ) = क्षत्र का तू उत्पत्ति-स्थान है।
४. ( क्षत्रस्य नाभिः असि ) = क्षत्र का तू केन्द्र है। उसे अपने में बाँधनेवाला है।
५. ( इन्द्रस्य वार्त्रघ्नं असि ) = तू इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनकर ज्ञान के आवरणभूत वृत्र का संहारक है।
६. ( मित्रस्य असि वरुणस्य असि ) = तू मित्र का है और तू वरुण का है, अर्थात् तू सदा सबके साथ स्नेह करनेवाला है, किसी के भी प्रति द्वेष करनेवाला नहीं है। ( त्वया अयं वृत्रं वधेत् ) = तेरे साथ मिलकर, तेरे साहाय्य से यह प्रजा-वर्ग भी वृत्र का—काम का संहार करे।
७. हे राजन्! ( दृवा असि ) = [ दृणाति ] तू शत्रुओं का विदारण करनेवाला है। ( रुजा असि ) = रणक्षेत्र में शत्रुओं को भगानेवाला और ( क्षुमा असि ) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाला है।
९. हे प्रजाओ! आप ( एनम् ) = ऐसे राजा को ( प्राञ्चं पात ) = पूर्व दिशा से सुरक्षित करो। ( एनम् ) = इसे ( प्रत्यञ्चं पात ) = पश्चिम से सुरक्षित करो। ( तिर्यञ्चं एनं पात ) = इसे एक सिरे से दूसरे सिरे तक [ crosswise ] सुरक्षित करो। संक्षेप में ( दिग्भ्यः पात ) = सब दिशाओं से सुरक्षित करो।
भावार्थ -
भावार्थ — राजा को शक्ति का केन्द्र व पुञ्ज होना चाहिए। यही शत्रुओं को नष्ट करनेवाला है। प्रजाओं को चाहिए कि उसकी सर्वतः रक्षा करें।
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