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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - विश्वे देवाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त

    ये वो॑ देवाः पि॒तरो॒ ये च॑ पु॒त्राः सचे॑तसो मे शृणुते॒दमु॒क्तम्। सर्वे॑भ्यो वः॒ परि॑ ददाम्ये॒तं स्व॒स्त्ये॑नं ज॒रसे॑ वहाथ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । व॒: । दे॒वा॒: । पि॒तर॑: । ये । च॒ । पु॒त्रा: । सऽचे॑तस: । मे॒ । शृ॒णु॒त॒ । इ॒दम् । उ॒क्तम् ।सर्वे॑भ्य: । व॒: । परि॑ । द॒दा॒मि॒ । ए॒तम् । स्व॒स्ति । ए॒न॒म् । ज॒रसे॑ । व॒हा॒थ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये वो देवाः पितरो ये च पुत्राः सचेतसो मे शृणुतेदमुक्तम्। सर्वेभ्यो वः परि ददाम्येतं स्वस्त्येनं जरसे वहाथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । व: । देवा: । पितर: । ये । च । पुत्रा: । सऽचेतस: । मे । शृणुत । इदम् । उक्तम् ।सर्वेभ्य: । व: । परि । ददामि । एतम् । स्वस्ति । एनम् । जरसे । वहाथ ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. घर में व्यक्तियों को देववृत्ति का तो होना ही चाहिए। प्रभु जब घर में इन देववृत्ति के सन्तानों को भी सन्तान प्राप्त कराते हैं तब कहते हैं-हे (देवा:) = देववृत्ति के पुरुषो! ये (व: पितर:) = जो आपके पितस्थानीय बड़े व्यक्ति हैं, ये (च पुत्रा:) = और जो तुम्हारे पुत्र हैं वे सब के-सब (सचेतसः) = पूरी चेतनावाले होते हुए (मे) =  मेरे (इदम् उक्तम्) = इस कथन को (शृणुत) = सुनो कि (व: सर्वेभ्यः) = तुम सबके लिए मैं (एतम्) = इस वर्तमान सन्तान को (परिददामि) - प्राप्त कराता हूँ। आप इसका इस सुन्दरता से पालन करो कि (एनम्) = इसे (स्वस्ति) = कल्याणपूर्वक (जरसे) = जरावस्था तक-पूर्णायुष्य के लिए (बहाथ) - ले-चलनेवाले होओ। आप इसप्रकार से इसका पालन करो कि यह पूर्ण जीवन को प्राप्त करे। २. यहाँ मन्त्र में सन्तान के पिता को 'देवपुत्र' शब्द से स्मरण किया है। देवपुत्र होने से वे सन्तानों को उत्तम बनाएंगे ही। सन्तान के पितामह यहाँ 'देव' कहे गये हैं। प्रपितामह 'देवपितर' कहे गये हैं। इसप्रकार प्रपितामह, पितामह व पिता-सभी के संस्कार देवत्व को लिये हुए हैं-ये सन्तानों को उत्तम बनाएंगे ही। चतुर्थ पीढ़ी के समय इन तीनों का ही जीवित होना सम्भव है। ये ही अपनी क्रियाओं से सन्तान को प्रभावित करनेवाले हो सकते हैं, अत: इनका उत्तरादायित्व स्पष्ट है। ये सन्तान-निर्माण के लिए जागरूक रहेंगे तो सन्तान दीर्घजीवी व उत्तम क्यों न बनेंगे?

    भावार्थ -

    सन्तान प्रपितामह, पितामह व पिता से विशेषरूप से प्रभावित होती है, अत: वे सन्तान को उत्तम बनाने का पूर्ण ध्यान करें।

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