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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - विश्वे देवाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त

    येषां॑ प्रया॒जा उ॒त वा॑नुया॒जा हु॒तभा॑गा अहु॒ताद॑श्च दे॒वाः। येषां॑ वः॒ पञ्च॑ प्र॒दिशो॒ विभ॑क्ता॒स्तान्वो॑ अ॒स्मै स॑त्र॒सदः॑ कृणोमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येषा॑म् । प्र॒ऽया॒जा: । उ॒त । वा॒ । अ॒नु॒ऽया॒जा: । हु॒तऽभा॑गा: । अ॒हु॒त॒ऽअद॑: । च॒ । देवा: । येषा॑म् । व॒: । पञ्च॑ । प्र॒ऽदिश॑: । विऽभ॑क्ता: । तान् । व॒: । अ॒स्मै । स॒त्र॒ऽसद॑: । कृ॒णो॒मि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येषां प्रयाजा उत वानुयाजा हुतभागा अहुतादश्च देवाः। येषां वः पञ्च प्रदिशो विभक्तास्तान्वो अस्मै सत्रसदः कृणोमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येषाम् । प्रऽयाजा: । उत । वा । अनुऽयाजा: । हुतऽभागा: । अहुतऽअद: । च । देवा: । येषाम् । व: । पञ्च । प्रऽदिश: । विऽभक्ता: । तान् । व: । अस्मै । सत्रऽसद: । कृणोमि ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. '(महाभूतानि प्रयाजा:), (भूतान्यनुयाजा:) = प्राणाग्निहोत्रोपनिषद् के अनुसार शरीर में महाभूत प्रयाज हैं तथा जीवन में जिनके साथ हम सम्पर्क में आते हैं वे भूत-प्राणी अनुयाज हैं। (येषाम) = जिनके शरीर में (प्रयाजा:) = ये महाभूत (विभक्ताः) = ठीक रूप में विभक्त हैं उत वा तथा (अनुयाजा:) = जीवन में सम्पर्क में आनेवाले माता-पिता, आचार्य आदि व्यक्ति भी (विभक्ता:) = विशेषरूप से सेवित होते हैं [भज सेवायाम्], (व:) = तुममें से (तान्) = उन्हें (अस्मै) = इस जीवन-यात्रा के लिए (सत्रसद:) = जीवन-यज्ञ में स्थित होनेवाला (कृणोमि) = करता हूँ। शरीर में पृथिवी आदि तत्त्वों के ठीक अनुपात में होने पर किसी प्रकार के रोग नहीं होते। तत्पश्चात् यदि माता-पिता, आचार्य आदि का उत्तमता से सेवन होता है तो जीवन का विकास ठीक रूप में होता है। २. शरीर में इन्द्रियाँ, "हुतभाग' देव कहलाती हैं। ये शरीर में आहुत किये गये भोजन का सेवन करती हैं। उससे ही इनका पोषण होता है। प्राण'अहुताद' कहलाते हैं। ये बिना थके निरन्तर कार्य करते चलते हैं। (येषाम्) = जिनकी (हुतभागा: देवा:) = हुत का सेवन करनेवाली इन्द्रियाँ ठीक कार्य करती हैं (च) = और (आइताद:) = हुत का सेवन किये बिना ही निरन्तर कार्य करनेवाले प्राण ठीक कार्य करते हैं, उन्हें जीवन-यज्ञ में स्थिर होनेवाला कहता हूँ। ३. (वः) = तुममें से (येषाम्) = जिनके (पञ्च प्रदिश:) = पाँचों प्रकृष्ट प्रेरणाओं को देनेवाले अन्त:करण पञ्चक (विभक्ता:) = ठीक रूप में विभक्त होते हैं, अर्थात् अपना-अपना कार्य ठीक रूप में करते हैं, उन्हें इस जीवन यज्ञ में ठीक स्थिति प्राप्त होती हैं। ये ही व्यक्ति दीर्घ जीवनवाले बनते हैं।

    भावार्थ -

    दीर्घ जीवन के लिए आवश्यक है कि [क] महाभूत शरीर में ठीक अनुपात में हों, [ख] माता-पिता, आचार्य आदि का सम्पर्क ठीक रहे, [ग] इन्द्रियों व प्राण ठीक कार्य करें, [घ] अन्त:करण पञ्चक की प्रेरणा ठीक चले।

    सूचना -

    दीर्घजीवन के लिए प्रयाजों व अनुयाजों का ठीक अनुपात में होना आवश्यक है। अन्त:करण पञ्चक का कार्य ठीक चलना चाहिए तथा प्राण व इन्द्रियों का कार्य भी ठीक होना चाहिए। अन्त:करण पञ्चक का कार्य है-'मन' का उत्तम इच्छाएँ, 'बुद्धि' का विवेक, 'चित्त' का अविस्मरण, 'अहंकार' का आत्मा का उचित अभिमान, 'हृदय' का शब्द।

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