अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
सूक्त - उषा,दुःस्वप्ननासन
देवता - प्राजापत्या अनुष्टुप्
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
यं द्वि॒ष्मोयश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तस्मा॑ एनद्गमयामः ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । द्वि॒ष्म: । यत् । च॒ । न॒: । द्वेष्टि॑ । तस्मै॑ । ए॒न॒त् । ग॒म॒या॒म॒: ॥६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यं द्विष्मोयश्च नो द्वेष्टि तस्मा एनद्गमयामः ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । द्विष्म: । यत् । च । न: । द्वेष्टि । तस्मै । एनत् । गमयाम: ॥६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 6; मन्त्र » 4
विषय - सर्वाप्रियता
पदार्थ -
१. (यम्) = जिस एक समाज-विरोधी पुरुष को हम सब (द्विष्मः) = प्रीति नहीं कर पाते (च) = और (यत्) = जो (नः द्वेष्टि) = हम सबके प्रति अप्रीतिवाला है (तस्मै) = उस सर्वाप्रिय पुरुष के लिए (एनन्) = इस दुष्ट स्वप्नों के कारणभूत 'ग्राही, निर्जति' आदि को (गमयामः) = प्राप्त कराते हैं । २. वस्तुतः समाज में जो सबका अप्रिय बन जाता है, वह सदा द्वेषाग्नि में जलता रहता है और परिणामतः भयंकर रोगों का शिकार हो जाता है। दुष्ट स्वप्नों को देखता हुआ यह अल्पायु हो जाता है।
भावार्थ - हम समाज में इसप्रकार शिष्टता व बुद्धिमत्ता से वर्ते कि सबके द्वेषपात्र न बन जाएँ। यह स्थिति नितान्त अवाञ्छनीय है। यह दुष्ट स्वप्नों व अल्पायुष्य का कारण बनती है।
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